इसी प्रकार समय की रेत पर पडऩे वाले हर व्यक्ति के कदमों की चापों को वक्त की बयार धीरे धीरे मिटा देती है और जितनी भर भी इबारतें लिखी जाती हैं, वक्त के सांचे में धीरे धीरे विलुप्त होती चली जाती हैं-इतिहास स्वयं उनको अपने कंधों पर उठाकर यश के शोभायमान सिंहासन पर विराजमान करता है। ऐसे व्यक्तित्व की दिशाएं चेरी बन जाती हैं और व्योम पुष्प वर्षा करने वाला सेवक बनकर आ खड़ा होता है। बाल ठाकरे अब एक उज्जवल इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ बन चुके हैं। उन्होंने समय को 86 वर्ष की अवस्था में 92 वर्ष पीछे धकेलकर हमें बाल गंगाधर तिलक के अंतिम सम्मान की याद दिलाई और लोगों को उनकी मृत्यु ने भी एक स्मरणीय संदेश दिया कि बाल गंगाधर तिलक और बाल ठाकरे में शब्दों का परिवर्तन चाहे कहीं हो गया हो लेकिन अर्थ दोनेां के एक ही हैं-हिंदू हृदय सम्राट, भारत मां का शेर, भारत मां का अमर सपूत, हिंदू धर्म के ध्वजवाहक और संस्कृति के महान रक्षक इत्यादि।
भारत जैसे देश में रोज लगभग 67 हजार लोग मरते हैं। बाल ठाकरे ने जिस दिन महाप्रयाण किया उस दिन भी भारत से लगभग इतने ही लोग परलोक सिधारे, लेकिन काल ने खड़े होकर किसी के लिए नमन नही किया, उसने अपना नमन केवल बाल ठाकरे के लिए किया। 15 लाख लोगों ने इस नेता के अंतिम संस्कार में सम्मिलित होकर काल के नमन को अपनी खुली आंखों से देखा, जबकि करोड़ों लोगों ने टीवी चैनलों से या किसी अन्य प्रकार से अपना नमस्कार किया।
जब मुंबई की सड़कों पर विशाल जनसमूह अपने नेता के अंतिम संस्कार के लिए उमड़ रहा था तो उसे देखकर यमदूतों ने भी सहज ही अनुमान लगा लिया होगा कि आज किस शेर से पाला पड़ा है? सचमुच यह शेर वही था जो कभी किसी के दर पर जाकर याचक नही बना, जिसके सामने हर व्यक्तित्व ने समय समय पर अपनी गर्दन झुकायी और इसने अपने स्वाभिमान के साथ हमेशा ऐसा निर्णय लिया जिसे केवल वही ले सकता था। राम और रावण के युद्घ का वर्णन करते हुए बाल्मीकि ने लिखा है कि राम रावण का युद्घ भी राम रावण का ही युद्घ था, इसका अभिप्राय है कि वैसा युद्घ किन्हीं अन्य योद्घाओं के मध्य नही हुआ था। अत: वह युद्घ अद्वितीय और अनुपम था। इसलिए उसकी उपमा उसी से दी जा सकती थी। इसलिए लालकृष्ण आडवाणी की इस श्रद्घांजलि के शब्दों में दम है कि भारत के 65 वर्ष के दौरान देश पर ऐसी गहरी छाप शायद ही किसी ने छोड़ी होगी जैसी छाप बाल ठाकरे ने छोड़ी है।
बाल ठाकरे अपनी सिद्घांत प्रियता और कठोर जीवन शैली के लिए याद किये जाएंगे। यद्यपि कई बार वह अपनी कार्यशैली के कारण विवादों में भी आए और उन्हें आलोचना का भी शिकार बनना पड़ा लेकिन सार्वजनिक जीवन के लिए आलोचना नाम की वस्तु कोई बेमानी नही है। वह राष्ट्रवादी थे लेकिन महाराष्ट्रवादी भी थे। निश्चित रूप से लोगों के लिए इसी बिंदु पर आकर वह आलोच्य हो जाते थे। इसके उपरांत भी उनका व्यक्तित्व चुम्बकीय था और वह अपनी पार्टी शिवसेना को राजनीति में निर्णायक भूमिका में लाने में सफल रहे। उनकी उग्रता किसी संप्रदाय के विरूद्घ नही थी अपितु अपने सिद्घांतों के प्रति थी और वहां भी वह उग्रता न होकर कट्टïर प्रतिबद्घता थी। इसी कारण चाहें उन्होंने बेशक ‘मराठी मानुष’ का जयघोष किया लेकिन उनकी मृत्यु ने उन्हें विराट मानुष का गौरवान्वित पद प्रदान कर दिया। वह भारत के उस वैभव को पुन: लाने के लिए प्रयास रत रहे, जिसके लिए कवि ने अपने शब्दों का रेखाचित्र खींचा है-
‘अमरीका चीन ईरान यहां विद्या पढऩे आते थे।
मेरे देश के ऋषियों के चरणों में शीश नवाते थे।।
पीते चरणामृत की प्याली बहती दूध दही की नाली।
वन पर्वत नदी नालों की कैसी थी यहां छटा निराली।।’
इस बात से ठाकरे दुखी रहे—
जिन चरणों में दुनिया झुकती उनमें घुंघरू बाज रहे।
बने जनाने प्रिय देवता खड़े तख्त पर नाच रहे।।
वह भौंडेपन और अश्लीलता के वशीभूत होकर विलासी और भावुक बनी युवा पीढ़ी को लेकर चिंतित थे। इसलिए देश में बढ़ते भौंडेपन और अश्लीलता के बढ़ते प्रचलन का उन्होंने विरोध किया। उनका विरोध अभी चाहे बुरा लगा हो लेकिन वक्त बताएगा कि वह कितने सही थे। वह प्रेम के नही वासना के विरोधी थे और वासना के नग्न प्रदर्शन को वह भारतीयता के विपरीत मानते थे। देश की संस्कृति के हो रहे पश्चिमीकरण से वह अप्रसन्न रहते थे। उन्होंने प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति बनने के समय उन्हें अपनी पार्टी का समर्थन दिया था। वजह केवल ये थी कि प्रतिभा मराठी थीं। उन्होंने निर्णय लिया तो भाजपा उनसे अपने निर्णय पर पुनर्विचार कराने में असफल रही। लेकिन यह ठाकरे ही थे जिन्होंने अपने निर्णय का कोई मोल नही लिया। अपने लिए तो उन्होंने कभी किसी के सामने कोई याचना नही की, इसीलिए उन्हें अपने त्याग में ही आनंद मिला और उस त्याग ने ही उन्हें ख्याति की बुलंदियों पर बैठा दिया। उन्होंने अपने भीतर सदा एक रहस्य बनाकर रखा और कभी भी अपने कठोर व्यक्तित्व के सारे आयामों को खोलने का संकेत तक नही दिया। इसलिए उन्हें कभी कोई राजनेता सही रूप में समझ नही पाया, यकीनन उनकी गहराई को नाप नही पाया, अटल जी जैसा नेता भी नही।
अपने नेता को खोकर शिवसेना के पास अब एक शून्य है। यद्यपि उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी उनके बेटे उद्घव ठाकरे हैं- लेकिन हर व्यक्ति का अपना अनूठा व्यक्तित्व होता है। उद्घव के साथ भी ठाकरे लगा है-यह उनका सौभाग्य है, लेकिन वह ‘बाल’ नही है। उनके पिता ने बाल गंगाधर से बाल ठाकरे के बीच के लंबे अंतराल को अपनी मौत से तय कर दिया। बाल गंगाधर और बाल ठाकरे दोनों शब्दों के एक अर्थ कर दिये। अब देखना ये है कि उद्घव ऊधम मचाते हैं या ऊध्र्वगति को प्राप्त कर पिता के यश की चादर को सारे हिंदुस्तान पर तानकर पिता की विरासत में खूबसूरती के चार चांद लगाते हैं। विरासत कभी भी केवल धन संपदा तक ही सीमित नही होती है। वास्तविक विरासत विचारों की होती है। माता पिता के विचारों की चादर को सम रूप में जो तान दे वही तो संतान होती है। उद्घव के सामने सचमुच बहुत बड़ी चुनौती है-पिता की विरासत को संभालना। दु:ख के इन क्षणों में हमें उनके साथ सहानुभूति है और हम आशा करते हैं कि वह मराठावाद से निकलकर राष्ट्रवाद की ओर बढेंगे और हिंदी हिंदू और हिंदुस्तान के लिए विशेष कार्य करेंगे।
मुख्य संपादक, उगता भारत