किसी भी राष्ट्र में विधि का प्रथम एवं परम उद्देश्य है – समाज में सामाजिक न्याय को स्थापित किया जाना। भारतवर्ष में भारतीय संविधान विधि का मूल स्रोत एवं मानक है अर्थात समस्त विधियां संविधान की अवधारणा को केंद्र में रखते हुए क्रियान्वित करने और वास्तविक स्वरूप देने में लगी हैं। इसमें दोनों प्रकार की विधियां शामिल हैं चाहे वह मौलिक विधि हो अथवा प्रक्रियात्मक विधि। जब हम भारतीय संविधान की उद्देश्यिका का अध्ययन मनन और चिंतन करते हैं तो उसमें इन शब्दों को विशेष रूप से मनन किए जाने योग्य समझते हैं :-
“समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक ,न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता।”
अर्थात भारतीय संविधान समस्त नागरिकों को उक्त के संबंध में गारंटी देता है। ऐसी गारंटी संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों एवं नीति निर्देशक तत्व वाले अध्याय में विशेष रूप से उल्लेखित किए गए हैं अर्थात उद्देश्यिका तक ही सीमित नहीं रह गई बल्कि विशेष उल्लेख संविधान में मिलता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 को यदि हम देखते हैं तो संविधान सभा का सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय से क्या तात्पर्य था ? यह स्वयं स्पष्टित एवं परिभाषित हो जाता है।
अनुच्छेद 38 के प्राविधानों पर दृष्टिपात करते हैं जो निम्न प्रकार है :-
“अनुच्छेद 38(1 )राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्रमाणित करें ,भरसक प्रभावी रूप से स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृद्धि का प्रयास करेगा।
अनुच्छेद 38(2 )राज्य विशेषतया आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यक्तियों के बीच बल्कि विभिन्न व्यवसाय में लगे हुए लोगों के समूह के बीच भी प्रतिष्ठा सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा”।
सभी लोगों को समान अवसर प्रदान करना ,धार्मिक असमानता दूर करना ,लिंग भेदभाव समाप्त करना एवं व्यक्ति के सामाजिक अधिकारों की रक्षा करना तथा प्रत्येक नागरिक को उसकी योग्यता और सामर्थ्य के अनुसार काम देना तथा उसके बदले में पारिश्रमिक देना, जिससे भली-भांति उसका एवं उसके परिवार का भरण पोषण हो सके । ऐसे समस्त कथन सामाजिक न्याय के लक्षण के रूप में जाने जाते हैं। जहां तक सामाजिक न्याय शब्द के अर्थ की बात है तो उसको एक शब्द में स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। ऐसे ही कुछ उपरोक्त उदाहरणों के माध्यम से सामाजिक न्याय को समझा जा सकता है। सार रूप में यह कहा जा सकता है कि जो कुछ उपलब्ध है उसका निष्पक्ष और उचित वितरण ही सामाजिक न्याय है।
व्यावहारिक रूप में उक्त सामाजिक न्याय और व्यवस्था में समरूपता दृष्टिगोचर नहीं होती है। लिंग और धर्म के नाम पर बुराइयों और ऐसी मान्यताएं भारतवर्ष में ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर स्थान प्राप्त कर चुकी हैं।
अर्थात व्यावहारिक रूप में संविधान के उक्त प्राविधानों का अस्तित्व होते हुए भी अनुच्छेद वर्तमान काल में अप्रासंगिक से प्रतीत होने लगे हैं। इसलिए सामाजिक न्याय और समान नागरिक संहिता के विषय में विशेष मांग भारतीय जनमानस द्वारा की जा रही है। इसलिए भारत की केंद्रीय सरकार ने विधि आयोग और केंद्रीय कानून मंत्रालय से समान नागरिक संहिता लागू करने के संदर्भ में सुझाव मांगे हैं।
संविधान के प्रावधानों अथवा अनुच्छेदों का कुछ मत पंथ और मजहब के लोग अलग-अलग अर्थ निकालकर और अपने हित सिद्ध होने के अनुसार अर्थ निकाल कर अपनी सुविधा के लिए दुरुपयोग कर रहे हैं। यह मानसिकता भारतीय समाज में घर कर गई है और संविधान के अनुच्छेद बौने पड़ते नजर आने लगे हैं। हम प्रतिदिन टी0वी0 डिबेट में अथवा प्रिंट मीडिया में इस प्रकार की सूचनाएं और समाचार पढ़ते और सुनते हैं, जिनमें संविधान के विधिक प्राविधानों का गलत सहारा लेकर अनुचित बातों को भी अपने धर्म के अनुसार अर्थात मत, पंथ और मजहब की आड़ में उचित बताना कुछ लोगों का शौक बन गया है। परंतु हमारे संविधान निर्माता, ऐसा नहीं है कि इस दुरुपयोग को 75 वर्ष पहले जानते अथवा समझते नहीं थे। मैं विशेष रूप से डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का उल्लेख करना चाहूंगा कि उन्होंने इस समस्या के भविष्य में उत्पन्न होने के खतरे से आशंकित होकर संविधान में उनके समाधान हेतु अनुच्छेद 44 का प्राविधान किया और जिसमें समान नागरिक संहिता बनाकर देश को धर्म आधारित व्यवस्था एवं लिंग अन्याय से मुक्ति दिलवाये जाने का प्राविधान किया गया है। अनुच्छेद 44 के प्राविधान भारतीय संविधान से पढ़े जा सकते हैं।
परंतु यहां पर यह उल्लेख करना समीचीन एवं संदर्भानुकूल हो जाता है कि अपने मनमाने तरीके से संविधान निर्माताओं के आशय के विपरीत अर्थ निकालकर अपनी कुरीतियों का मान मर्दन किया जाने लगा है , समाज में और राष्ट्र में भ्रांति उत्पन्न की जाती है,और उनको उचित ठहराया जाता है।
राष्ट्रीय अखंडता, महिलाओं की दशा में सुधार, लिंग ,न्याय पंथनिरपेक्षता आदि सिद्धांत समान नागरिक संहिता के निर्माण करने एवं प्रवर्तनीय बनाने के लिए आवश्यक हैं। तभी सामाजिक न्याय को सभी वर्गों को सुविधाजनक रूप से प्रदान किया जा सकेगा।
यहां पर यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि संविधान के अनुच्छेद 44 को प्रवर्तनीय करने में जिन बातों को, सिद्धांतों को और कुरीतियों को आधार बनाकर प्रस्तुत किया जाता है अथवा विरोध किया जाता है वह निम्न अनुच्छेद एवं अन्य बिंदु हैं :-
सर्वप्रथम अनुच्छेद 25 जो धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। इसी अनुच्छेद को आधार मानकर धर्म और मजहब आधारित राजनीति करने वाले लोग जो स्वयं भ्रांति में हैं और भ्रांति उत्पन्न करते हैं कि यह स्वतंत्रता लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य अनुबंधों के अधीन रहते हुए उनको प्राप्त है।
उपरोक्त के अतिरिक्त अनुच्छेद 29 जो संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार की स्वतंत्रता प्रदान करता है। प्रत्येक नागरिक को उनकी अपनी संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार अनुच्छेद 29 का प्राविधान देता है लेकिन संविधान निर्माताओं का दृष्टिकोण कदापि यह नहीं था कि गलत कानूनों को बनाए रखने के लिए संस्कृति संबंधी अधिकार को आधार बनाए जाए।
तीसरा और अंतिम महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि मुस्लिम की गतिविधियों में संशोधन नहीं किया जा सकता, ऐसी विचारधारा है। जिसके लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड बना है। लेकिन हमारे भारतवर्ष में ही मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के लोग इसका विरोध करते हैं। जबकि मुस्लिम व्यक्तिगत विधियों में विश्व के बहुत से देशों में परिवर्तन किए जा चुके हैं अर्थात मुस्लिम व्यक्तिगत विधियां भी संशोधनीय हैं। जिन देशों में मुस्लिम व्यक्तिगत विधि लागू है, वो निम्न हैं :-
सऊदी अरब ,अबूधाबी, कुवैत, बहरीन और यमन।
जहां व्यक्तिगत विधियां मुस्लिम देशों द्वारा समाप्त कर दी गई हैं, ऐसे देश अल्बानिया और टर्की हैं।
तीसरे ऐसे देश हैं जहां मुस्लिम व्यक्ति गतिविधियों में परिवर्तन किया जा चुका है उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान, ईरान, इराक, अल्जीरिया ,मोरक्को, ट्यूनीशिया, सीरिया, जॉर्डन, सूडान आदि।
वैश्विक स्तर पर दिन-रात परिवर्तन हो रहा है। बहुत से देश ऐसे हैं जो पुराने व्यक्तिगत कानूनों को छोड़कर समय के अनुसार अपने देश की विधियों में संशोधन करके समाज के अंदर समरसता, सामंजस्य, एकता को स्थापित करना चाहते हैं ।ऐसे ही प्रयास में पाकिस्तान ,ईरान आदि तीसरी श्रेणी के देशों ने मुस्लिम व्यक्तिगत विधियों में संशोधन करके नए कानून बनाए हैं।
विस्मयजनक रूप से भारतवर्ष में एक समान कानून नहीं है। विशेषकर अल्पसंख्यकों की व्यक्तिगत विधि बिल्कुल पृथक है। समय-समय पर उच्चतम न्यायालय के अनेक न्यायाधीशों द्वारा यह संस्तुति की गई है कि समान नागरिक संहिता बनाने के लिए सबसे पहला कदम यह होना चाहिए कि अल्पसंख्यकों की व्यक्तिगत विधि को तर्कसंगत बनाया जाए। ऐसे न्यायाधीशों में माननीय आर एम सहाय का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
उपरोक्त न्यायाधीश के विचार को भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न न्यायाधीशों द्वारा अभिव्यक्त किया गया।
उदाहरण के तौर पर मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम, एआईआर 1985 सुप्रीम कोर्ट प्रष्ठ 945 ,सरला मुद्गल बनाम भारत संघ ए आई आर 1995 सुप्रीम कोर्ट पेज 531, जान वल्लामत्तम बनाम भारत संघ, ए आई आर 2003 सुप्रीम कोर्ट पेज 2902 आदि के निर्णय में एक समान संहिता समस्त नागरिकों के लिए बनाए जाने की अभिव्यक्ति की गई है। परंतु केंद्र की तत्कालीन सरकार ने ऐसा नहीं किया और माननीय सर्वोच्च न्यायालय की राय को दरकिनार करते हुए राजनीतिक स्वार्थों से निर्णय लेती रही।
यद्यपि समान नागरिक संहिता का हर समुदाय को स्वागत करना चाहिए। यही एकमात्र ऐसा उपाय है जो धर्म ,मजहब और पंथ के दुरुपयोग को रोक सकता है और इसके नाम पर होने वाले भेदभाव को समाप्त कर सकता है । इसके भेद समाप्त होने से विभिन्न – विभिन्न समुदायों में समानता स्थापित होगी तथा देश की एकता और अखंडता भी सशक्त होगी। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारी ऐसी महिलाएं जिनके साथ लिंगभेद होता है, वे भी संविधान के अनुसार समानता का अधिकार प्राप्त कर पाएंगी ।क्योंकि एक तरफ संविधान लिंग, भाषा, धर्म आदि के नाम पर समानता की बात करता है लेकिन मजहब में दिए गए बहुत से सिद्धांतों में नारी के साथ भेदभाव है ।इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। हम देखते हैं कि समान नागरिक संहिता का सबसे अधिक विरोध भी ऐसे ही मजहब के ठेकेदार करते हैं लेकिन महिलाएं मन ही मन प्रसन्न होती हैं।
ऐसा किए बिना और समान नागरिक संहिता लागू किए बिना हम सामाजिक न्याय की परिकल्पना भी नहीं कर सकते और भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्व संबंधी अध्याय में जिस प्रकार की अपेक्षाएं की गई हैं , वे भी पूरी नहीं होती हैं ।यदि उनको हम पूरा कर देते हैं तो सभी को गरिमा पूर्ण जीवन व्यतीत करने का अवसर प्राप्त होगा। ऐसा करने से ही सभी प्रकार के व्यक्ति अथवा समाज के लिए चाहे वह किसी भी धर्म संप्रदाय के मानने वाले क्यों न हों ,पर यदि उन्हें अपनी अवस्था आर्थिक स्थिति अथवा अन्य प्रकार के कारणों से कठिनाई उत्पन्न होती है तो उन्हें दूर कर उनके रहन-सहन के स्तर को ऊंचा करना ही श्रेयस्कर होगा। सामाजिक न्याय की कल्पना इसी दृष्टि से सारे भारत में उन मानदंडों की की जानी चाहिए जो गांव या शहर ,धर्म या जाति, गोरे काले हर प्रकार के भेदभाव से ऊपर उठकर समान रूप से व्याप्त होने वाली स्थिति के बारे में है ।यह सभी समान नागरिक संहिता के लागू किए जाने पर ही संभव है अन्यथा सामाजिक न्याय का उद्देश्य मृतप्राय हो जाएगा। धार्मिक आधार पर उत्पन्न की गई विषमता को जारी रखते हुए सामाजिक न्याय को प्रदान किया जाना असंभव होगा ।उपरोक्त सभी कारणों के दृष्टिगत सारांश में यह कहा जा सकता है कि सामाजिक न्याय की संरचना के लिए समान नागरिक संहिता सुंदर,समुचित, सुदृढ़ एवं उपयुक्त उपाय के रूप में स्थापित हो सकेगी।
यदि हम चाहते हैं कि भारत वर्ष में राष्ट्रीय अखंडता ,महिलाओं की दशा में सुधार ,लिंग न्याय और पंथनिरपेक्षता के आधार पर भेदभाव को समाप्त किया जाए तो समान नागरिक संहिता को लागू किया जाना आवश्यक है।
समान नागरिक संहिता लागू किए जाने के लिए निम्नलिखित अधिनियमों को समाप्त किया जाना आवश्यक होगा:-
मुस्लिम पर्सनल लॉ शरीयत एप्लीकेशन एक्ट 1937,मुस्लिम वूमेन प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डायवोर्स एक्ट 1986, नेशनल कमिशन फॉर माइनॉरिटी एजुकेशनल इंस्टीट्यूशंस एक्ट 2004, पारसी मैरिज एंड डायवोर्स एक्ट 1936,प्लेसिस ऑफ वर्सेप( स्पेशल प्रोविजंस )एक्ट 1991,रिलीजियस एंडोवमेंट एक्ट 1863, रिलिजियस सोसाइटीज एक्ट 1860,स्पेशल मैरिज एक्ट 1954,वक्फ एक्ट 1995, आनंद मैरिज एक्ट 1909, डिसोल्यूशन ऑफ मुस्लिम मैरिज एक्ट 1939,आर्य मैरिज वैलिडेशन एक्ट 1937,इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट 1872,चैरिटेबल एंड रिलिजियस ट्रस्ट एक्ट 1920, इंडियन डायवोर्स एक्ट 1869,फॉरेन मैरिज एक्ट 1969,गार्जियन एंड वार्ड्स एक्ट 1890, हिंदू एडॉप्शन एंड मेंटिनेस एक्ट 1956,
हिंदू डिस्पोजिशन ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट 1960,हिंदू मैरिज एक्ट 1955, मैरिज लॉज अमेंडमेंट एक्ट 1999, हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्जियनशिप एक्ट 1956, हिंदू सकसेशन एक्ट वन 1956,
इंडियन सकसेशन एक्ट1825,मुस्लिम लॉ रिलेटेड टू गिफ्ट,
शिया ला रिलेटिग टू हिबा और गिफ्ट्स,मुस्लिम लॉ रिलेटिंग टू विल्स, मुसलमान वक्फ एक्ट 1923, दी पब्लिक वक्फ (एक्सटेंशन ऑफ लिमिटेशन) एक्ट 1959,मुस्लिम लॉ रिलेटिंग टू सक्सेशन।
समान नागरिक संहिता लागू होने से जनता, अधिवक्ता एवं न्यायाधीशों के मन में सदैव बनी रहने वाली आशंकाएं दूर हो सकेंगी, तथा उपरोक्त दिए गए जटिल एवं अप्रासंगिक हो गए कानूनों से निवृत्ति मिलेगी ।इसके अतिरिक्त पति-पत्नी के मध्य आपसी विश्वास एवं भरोसा जगेगा, जिससे समाज अच्छा बन सकेगा। समाज में असंतोष व्याप्त नहीं होगा। सभी को एक जैसा लाभ विशेष परिस्थितियों में जैसे बांझपन, नपुंसकता अथवा दंपति में दोनों के जीवित रहते हुए दूसरे व्यक्ति के साथ रहकर शादी करना आदि पर एक जैसा कानून होगा। विवाह विच्छेदन शब्द भारतवर्ष में नहीं था । तलाक का शब्द केवल मुस्लिमों की देन है। इसमें भी एकरूपता आ जाएगी। उत्तराधिकार का प्रश्न एक समान हो जाएगा ।भिन्न-भिन्न पंथों ,मजहब के भिन्न-भिन्न कानूनों से मुक्ति मिलेगी। न्यायपालिका पर अनावश्यक मुकदमों का भार भी नहीं पड़ेगा। एक जैसा कानून होने के कारण उत्पन्न भ्रम सदैव के लिए समाप्त हो जाएंगे। न्यायालयों को त्वरित न्याय देने में सहायता मिलेगी।लैंगिक असमानता दूर हो जाएगी।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत समाचार पत्र