थमती रही सांसे… फिर भी पाकिस्तानियों को खदेड़ते रहे कैप्टन विक्रम बत्रा
, ऐसे बने ‘शेरशाह’
अनन्या मिश्रा
जब-जब कारगिल युद्ध की बात आती है तो भारतीय सेना के एक ऐसे जाबांज का नाम जुबान पर जरूर आता है। जिसने पाकिस्तान के नापाक मंसूबों को हकीकत में नहीं बदलने दिया। भारतीय सेना के इस जाबांज को ‘शेरशाह’ के नाम से भी जाना जाता है। इस जाबांज ने अपने देश के लिए अपनी जान की परवाह भी नहीं की। बता दें कि आज ही के दिन यानी की 7 जुलाई को पालमपुर के वीर सिपाही कैप्टन विक्रम बत्रा ने वीरगति प्राप्त की थी। दुश्मन विक्रम बत्रा के नाम से थर-थर कांपते थे। आइए जानते हैं उनकी डेथ एनिवर्सरी के मौके पर विक्रम बत्रा के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातों के बारे मे..
कांगड़ा जिले के पालमपुर के घुग्गर गांव में 9 सितंबर 1974 को शिक्षक जी.एल. बत्रा और कमलकांता बत्रा के दो जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ। इन बच्चों का नाम विक्रम बत्रा और विशाल बत्रा रखा गया। जिसके बाद विक्रम बत्रा ने अपनी शुरूआती शिक्षा डीएवी स्कूल और फिर आगे की पढ़ाई सेंट्रल स्कूल पालमपुर से पूरी की। सेना छावनी में स्कूल होने के कारण विक्रम सेना के जवानों को काफी करीब से देखा करते थे। विक्रम को सेना की वीरता की कहानियां, सीरियल और फिल्में आदि बहुत अच्छी लगती थीं। इसी दौरान उनका देश के प्रति प्रेम प्रबल हो उठा और उन्होंने सेना में जाने की ठान ली।
12वीं की पढ़ाई पूरी होने के बाद उन्होंने डीएवी कॉलेज, चंडीगढ़ में विज्ञान विषय में ग्रेजुएशन की पढ़ाई शुरू की। इसी दौरान वह एनसीसीए एयर विंग में शामिल हो गए। विक्रम बत्रा ने एनसीसीए एयर विंग को सी सर्टिफिकेट से क्वालिफाई किया। एनसीसी में ही उन्हें कैप्टन विक्रम बत्रा की रैंक मिली। जिसके बाद साल 1994 में विक्रम बत्रा ने गणतंत्र दिवस परेड में एनसीसी कैडेट के रूप में भाग लिया था। कॉलेज के दौरान विक्रम बत्रा को शिपिंग कंपनी के साथ मर्चेंट नेवी के लिए चुना गया था, लेकिन उन्होंने इस इरादे को बदल दिया।
साल 1996 में सेना में भर्ती होने के लिए विक्रम बत्रा ने सीडीएस की परीक्षा दी। इलाहाबाद में सेवा चयन बोर्ड द्वारा उनका चयन हो गया। इस परीक्षा में कुल 35 उम्मीदवार सेलेक्ट किए गए थे। जिसमें से एक विक्रम बत्रा भी थे। विक्रम बत्रा ने भारतीय सैन्य अकादमी में शामिल होने के लिए कॉलेज छोड़ दिया। वहीं साल 1997 में उनकी ट्रेनिंग खतम होने के बाद 6 दिसम्बर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर विक्रम बत्रा को 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्त किया गया। जिसके बाद साल 1998 में यंग ऑफिसर्स कोर्स पूरा करने के लिए उन्हें पांच महीने के लिए मध्य प्रदेश के इन्फैंट्री स्कूल में भेजा गया था।
जम्मू-कश्मीर बटालियन में शामिल होने के बाद साल 1999 में विक्रम बत्रा ने कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए। प्राप्त जानकारी के अनुसार, कारगिल युद्ध के पहले वह अपने घर कुछ दिनों की छुट्टी पर आए थे। इस दौरान उन्होंने परिवार, दोस्तों और मंगेतर डिंपल चीमा से मुलाकात की थी। इस दौरान विक्रम ने कारगिल युद्ध पर भी चर्चा की थी। इस युद्ध पर चर्चा करते हुए कैप्टन बत्रा ने कहा था कि वह या तो तिरंगा लहराते हुए आएंगे या फिर तिरंगे में लिपट कर आएंगे, लेकिन आएंगे जरूर।
साल 1999 में बत्रा की टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प व राकी नाब स्थानों पर विजय मिलने के बाद विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद कैप्टन बत्रा की टुकड़ी को श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाकिस्तान की सेना से मुक्त करवाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इस दौरान वह अपनी टुकड़ी के साथ पूर्व दिशा की तरफ से आगे बढ़े और शत्रुसेना को बिना भनक लगे बिना उनके नजदीक पहुंच गए।
चोटी पर पहुंचने के बाद कैप्टन बत्रा की टुकड़ी ने पाक सेना के जवानों पर हमला बोल दिया। इस दौरान कैप्टन बत्रा ने सबसे आगे रहकर अपनी सेना का नेतृत्व की किया और निडरता के साथ दुश्मन सेना को पीछे धकेलते रहे। आमने-सामने की इस लड़ाई में चार दुश्मनों को मौत के घाट उतार दिया।
विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह 5140 चोटी को अपने कब्जे में ले लिया। जब कैप्टन बत्रा ने इस चोटी से रेडियो के द्वारा अपनी सेना की जीत की खबर ‘यह दिल मांगे मोर’ कहकर सुनाई। जिसके बाद विक्रम बत्रा का नाम न सिर्फ भारतीय सेना बल्कि पूरे देश में छा गया। इसी दौरान उनको कोड नाम शेरशाह के साथ ही कारगिल के शेर की उपाधि दी गई। चोटी 5140 से भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो मीडिया में छा गया।
इस चोटी पर विजय पाने के बाद विक्रम बत्रा की सेना द्वारा 7 जुलाई 1999 को प्वाइंट 4875 चोटी को कब्ज़े में लेने का अभियान शुरू किया गया। बता दें यह चोटी ऐसी मुश्किल जगह पर थी, जहां पर दोनों तरफ खड़ी ढलान थी। उसी रास्ते पर दुश्मनों ने नाकाबंदी की हुई थी। लेकिन कैप्टन विक्रम बत्रा ने इस अभियान को पूरा करने के लिए संर्कीण पठार के पास से दुश्मन ठिकानों पर हमला करने का फैसला लिया।
इस दौरान आमने-सामने के युद्ध में कैप्टन विक्रम बत्रा ने पॉइंट ब्लैक रेंज में पांच दुश्मन सैनिकों को मार गिराया। लेकिन इस दौरान कैप्टन बत्रा खुद दुश्मन स्नाइपर के निशाने पर आ गए और वह बुरी तरह से जख्मी हो गए। लेकिन इसके बाद भी वह दुश्मनों पर ग्रेनेड से हमला करते रहे। इस युद्ध में कैप्टन बत्रा ने सबसे आगे रहकर असंभव कार्य को भी संभव कर दिया। अपनी जान की परवाह किए बिना कैप्टन विक्रम बत्रा ने विजय हासिल की। लेकिन गंभीर रूप से जख्मी होने के कारण 7 जुलाई 1999 को भारत मां के इस वीर सपूत ने अपनी आखें सदा के लिए बंद कर ली।