कसाब:’अश्वत्थामा’ मारा गया
पाकिस्तानी नागरिक और 26/11 की आतंकी घटना का एकमात्र जीवित बचा अपराधी आमिर कसाब फांसी की सजा पा गया है। सारे घटनाक्रम में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की भूमिका सराहनीय रही। उन्होंने कसाब की दया याचिका को 5 नवंबर को ही निरस्त कर दिया था। वह अपने बोये कांटों में उलझी कांग्रेस के लिए एक बार फिर संकट मोचक सिद्घ हुए।कसाब की फांसी को देश में बहुत अच्छा माना गया है। लोगों ने इसे ऐसे देखा है कि जैसे मानो अब आतंकवाद का ही खात्मा हो जाएगा। इसलिए कई स्थानों पर मिठाईयां तक बांटी गयीं। कसाब नाम के कसाई ने जिन अनमोल जानों को लिया, उसकी फांसी से उन अनमोल जानों की कीमत पूरी नही हुई। ना ही कसाब का व्यक्तित्व उन अनमोल जानों से इतना महत्वपूर्ण था कि उसके जाने पर मिठाईयां बांटी जातीं। बुराई को कूड़े में दबाया जाना ही बेहतर होता है। वैसे भी आमिर कसाब के रूप में केवल आतंक के एक मोहरे को हमने अपने बीच से खत्म होते देखा है। आतंक तो अब भी जीवित है। मोहरा पिट गया है तो शतरंज का खेल खत्म नही हो गया है।कुछ लोगों को भ्रांति है कि ‘मजहब नही सिखाता आपस में बैर रखना’ जबकि सच ये है कि मजहब ही तो सिखाता है आपस में बैर रखना। किसी मजहब की तरक्की के लिए कसाब को जिन लोगों ने प्रयोग किया वो तो आज भी जिंदा हैं। इस विश्व ने सन 1000 से 1300 तक लगातार 300 वर्षों तक धर्मयुद्घों को झेला और देखा है, जिनमें ईसाईयत और इस्लाम ने अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए लगातार तीन सौ वर्षों तक लोगों को गाजर मूली की तरह काटा। स्वयं भारत ने भी 712 में मौहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से लेकर गजनी, गौरी, तैमूर, बाबर, अब्दाली और नादिरशाह तक के कितने ही क्रूर और धर्मांध शासकों के आक्रमणों को झेला। ये सबके सब किसी खास मजहब के लिए कार्य कर रहे थे। इनका मजहब ही इन्हें प्रेरित कर रहा था कि मानवता का खून इस तरह बहाओ। 1947 में हमने अपनी नंगी आंखों से मजहब के नाम पर देश के विभाजन के समय दस लाख लोगों का बलिदान होते देखा। लोग मजहब के लिए मरे और मजहब के लिए कटे।
1947 के बाद भी पाकिस्तान से युद्घ हुए हैं। उसके हर आक्रमण के पीछे भारत का विधर्मी होना उसके लिए एक महत्वपूर्ण कारण है। मजहब के नाम पर मानवता को कलंकित करना कुछ लोगों का पेशा है। ये लोग 14वीं सदी की सोच के लोग हैं। रावण की अपसंस्कृति के पोषक हैं। इन्हें खून चाहिए और खून से अलग कुछ नही चाहिए। इनका मकसद कसाब का भला करना नही था बल्कि इनकी सोच और योजना थी कि कसाब भी मरे, उसके अन्य साथी भी मरें और दिल दहलाने वाली एक घटना भी घटित हो। जिन लोगों ने इस घृणित सोच के साथ ये अपराध कराया उनके कसाई दिल से पूछिये कि उनका दिल उस घटना से कितना खुश हुआ था या उस पर कितना हंसा था? उनकी योजना के मुताबिक सारा सही सही हुआ, कमी इतनी रही कि कसाब बच गया। जिस कसाब को हमारे कानून ने इतनी देर बाद फांसी पर चढ़ाया और देश के समय धन और ऊर्जा का इतना अपव्यय कराया उसके लिए कसाब के आकाओं की योजना कितनी सरल थी कि घटनास्थल पर ही घटना को अंजाम देने वाला भी मारा जाए।
आतंकवाद के विषय में एक मिथ्या धारणा गढ़ी गयी है कि आतंकवाद कुछ बेरोजगार और गरीब युवकों की अपने हकों की लड़ाई का नाम है। यह बात एकदम झूठ है। क्योंकि आतंकवाद बहुत ही शातिर पढ़े लिखे लोगों के दिमाग की योजनाओं में जन्मता है। हां, उन योजनाओं को सिरे चढ़ाने के लिए कुछ गरीबों की गरीबी का प्रयोग अवश्य किया जाता है। यदि निर्धन वर्ग के युवक अपने अधिकारों के लिए लडऩा सीख जाते तो भारत में क्रांति स्वतंत्रता के पहले दशक में ही हो गयी होती लेकिन निर्धनों को तो भारत में ही नही अपितु आज की वैश्विक व्यवस्था में भी हर युग की भांति विवश करके ही रखा जाता है। कम्युनिस्ट देशों में भी ऐसा ही है और पूंजीवादी देशों में भी ऐसा ही है। कसाब की निर्धनता को कुछ लोगों ने अपने लिए कैश किया और आज कसाब तो फांसी पर झूल गया है पर उनका मन झूम रहा है। मोहरों को कानून सजा देकर हमसे कह रहा है कि देखो मैंने कितना बड़ा काम कर दिया है? और हम भी खुश हो रहे हेँ कि हां कुछ अच्छा हो गया लगता है। सारी दुनिया जानती है कि वास्तविक अपराधियों को तो अब भी कुछ नही हुआ। हमारा कानून वहां तक पहुंच भी नही पाया। तो क्या फिर हम एक झूठे मतिभ्रम में जीने के लिए स्वयं को अभिशप्त समझें कि ‘अश्वत्थामा’ मारा गया। हम अश्वत्थामा नाम के हाथी को मारकर वास्तविक अश्वत्थामा के मारने का ढोल पीट रहे हैं। यद्यपि हम जानते हैं कि वास्तविक अश्वत्थामा कौरव दल में कहां छिपा बैठा है?
आज के विश्व नेता संकल्प तलाशते हैं और विकल्पों को तराशते हैं। संकल्प लेते हैं-आतंकवाद के समूल विनाश का और कहते हैं कि ये देखो हम आतंकवाद की जड़ों में डाल रहे हैं। लेकिन वास्तव में के स्थान पर आतंकवाद की जड़ों में खाद डालने के विकल्पों पर चिंतन करते रहते हैं। आने वाले कल की तस्वीर आज से भयानक इसीलिए होगी कि संकल्पों की भूमि में विकल्पों की खेती करने के झूठे परिवेश में हम जी रहे हैं। दमघोटूं की बीमारी हमारे चारों ओर पैर पसार चुकी है और हम संकट से नजरें मोड़ रहे हैं। हम विकल्पों को संकल्पों के स्थान पर पूज रहे हैं। आने वाले कल के बारे में हम कोई गलतफहमी ना पालें, निश्चित रूप से कल भी वही होगा जो बीते कल में हुआ था। मजहबी उन्माद उसी दिन पैदा हो गया था जिस दिन मानव के एक धर्म के दो धर्म हो गये यानि मानवता का विखंडन हो गया था। ‘कम्युनिटीज’ की सोच रखना ही तो कम्युनल होना है। मजहबी (सम्प्रदाय की अर्थात कम्युनिटीज की) सोच रखने वाला हर आदमी ही तो कम्युनल है। फिर बबूल बोकर आम खाने की कल्पना करना कितनी समझदारी है? कसाब इस सोच का जनक नही था जो उसके जाने से ये सोच खत्म हो गयी है। कसाब तो इस सोच का शिकार बना। वह जिस सोच का शिकार बना उसके पोषक तो आज भी हैं। इसलिए कसाब के अंत पर हम अपनी पीठ न थपथपाएं।
कई महापुरूषों ने अपने हत्यारों तक को क्षमादान दिया है। इसके पीछे उनकी कोरी उदारता ही काम नही करती थी, बल्कि वो जानते थे कि मारने वाले से बड़े मरवाने वाले हैं-इसलिए मारने वाले नादान पर तरस खाओ। दुनिया को उन्होंने अपने मूक संदेश से बताया कि मरवाने वालों तक पहुंचने के लिए हमारे पास समय नही और तुम्हारा कानून उनका कुछ कर नही पाएगा। इसलिए हमारे हत्यारे से कुछ मत कहना, लेकिन इसका अर्थ यह नही था कि आप चोर की मां को नही पकड़ेंगे। हमने ऐसी किसी भी महापुरूष की उदारता का सही अर्थ नही समझा। बल्कि उसकी उदारता के ढोल पीटने आरंभ कर दिये। झूठी बातों में जीना हमारा स्वभाव हो गया है। कसाब एक हत्यारा था लेकिन दूसरे दर्जे का। फांसी तो इसे भी मिलनी चाहिए थी, लेकिन इससे पहले इसके आकाओं को मिलती तो वह भी आज हमारे बीच से आतंकवाद को कोसता हुआ ही जाता। तभी हम कह पाते कि आतंकवाद को अब हमने नियंत्रित कर लिया है।