देव शयनी एकादशी रहस्य* भाग 2
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भाग 2 अंतिम
Dr DK Garg
मां अम्बे गौरी दुर्गा :– जितने ‘देव’ शब्द के अर्थ लिखे हैं उतने ही ‘देवी’ शब्द के भी हैं। परमेश्वर के तीनों लिंगों में नाम हैं। जैसे-‘ब्रह्म चितिरीश्वरश्चेति’। जब ईश्वर का विशेषण होगा तब ‘देव’ जब चिति का होगा तब ‘देवी’, इससे ईश्वर का नाम ‘देवी’ है।
दुर्गाणि तरन्ति ये‘
अर्थात जो धार्मिक व्यक्तियों के दुर्गुणों को समाप्त करके, उन्हें सभी प्रकार के दुर्गो से कठिनाइयों से पार करा देता है, इसलिए उस प्रभु को दुर्गा कहते है।
मां लक्ष्मी :(लक्ष दर्शनांकनयोः) इस धातु से ‘लक्ष्मी’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो लक्षयति पश्यत्यंकते चिह्नयति चराचरं जगदथवा वेदैराप्तैर्योगिभिश्च यो लक्ष्यते स लक्ष्मीः सर्वप्रियेश्वरः’ जो सब चराचर जगत् को देखता, चिह्नित अर्थात् दृश्य बनाता, जैसे शरीर के नेत्र, नासिकादि और वृक्ष के पत्र, पुष्प, फल, मूल, पृथिवी, जल के कृष्ण, रक्त, श्वेत, मृत्तिका, पाषाण, चन्द्र, सूर्यादि चिह्न बनाता तथा सब को देखता, सब शोभाओं की शोभा और जो वेदादिशास्त्र वा धार्मिक विद्वान् योगियों का लक्ष्य अर्थात् देखने योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘लक्ष्मी’ है।
5 विष्णु छीरसागर में विश्राम करते है का भावार्थ ?
इस कथानक में आगे कहा है की चार महीने भगवान विष्णु छीरसागर में विश्राम करते हैं।
विष्णू शब्द को लेकर पुराणों और पोराणिको में बहुत भ्रांति है , तरह तरह की कथाएं प्रचलित है,अच्छी खासी तुकबंदी और विरोधाभास है ,कही विष्णु को सर्वुव्यापी निराकर ईश्वर बताया गया है तो इन्ही कथायो में विष्णू को शरीरधारी मानव के रूप में भी वर्णित किया गया है जिसकी पत्नी का नाम लक्ष्मी है,निवास क्षीरसागर में रहते है आदि।
कुछ मुख्य लोक मान्यताओं पर विचार करते हैं।
1. भगवान विष्णु जल में स्थित है?
स ब्रह्मा स विष्णुः
शिव: एक ही ईश्वर को अनेकों गुणों के कारण जैसे कि उसके द्वारा सब जगत् के बनाने के कारण उसे ‘ब्रह्मा’, सर्वत्र व्यापक होने से ‘विष्णु’, और दुष्टों को दण्ड देके रुलाने वाले के कारण ‘रुद्र’, तथा मंगलमय और सब का कल्याणकर्त्ता होने की वजह से ‘शिव’कहा है
‘यः सर्वमश्नुते न क्षरति न विनश्यति तदक्षरम्’
विष्णु: विष्लृ व्याप्तौ) इस धातु से ‘नु’ प्रत्यय होकर ‘विष्णु’ शब्द सिद्ध हुआ है। ‘वेवेष्टि व्याप्नोति चराऽचरं जगत् स विष्णुः’
यानि की चर और अचररूप जगत् में व्यापक होने से परमात्मा का नाम ‘विष्णु’है।
नारायण: – आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।
ता यदस्यायनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः।। -मनुन अ० १। श्लोक १०।।
जल और जीवों का नाम नारा है, वे अयन अर्थात् निवासस्थान हैं, जिसका इसलिए सब जीवों में व्यापक परमात्मा का नाम ‘नारायण’है।
(जल घातने) इस धातु से ‘जल’शब्द सिद्ध होता है, ‘जलति घातयति दुष्टान् सघांतयति अव्यक्तपरमाण्वादीन् तद् ब्रह्म जलम्’ जो दुष्टों का ताड़न और अव्यक्त तथा परमाणुओं का अन्योऽन्य संयोग वा वियोग करता है, वह परमात्मा ‘जल’संज्ञक कहाता है।
विष्णु और जल का सम्बन्ध : यदि ईश्वर के विभिन्न नामो की व्याख्या का अवलोकन किया जाये तो ये ईश्वर को विभिन्न नामो से उसके कार्यो के अनुसार जाना गया है। विष्णु का एक शाब्दिक अर्थ सृष्टि को चलाने वाले ईश्वर से है और जल का दूसरा अर्थ ५ तत्वों से है जिनको प्रकृति का नाम दिया है -जिनमे अग्नि ,जल ,वायु आदि है और सभी अपने आप में महत्वपूर्ण है।
हम सब जानते हैं जल है तो कल है। जहां जल नहीं है वहां जीवन नहीं है। इसलिए वैज्ञानिक यह खोजने में लगे हुए हैं कि पृथ्वी के अतिरिक्त और किन ग्रहों पर जल है जिससे वहां जीवन की संभावना खोजी जा सके। पुराणों के अनुसार इस संसार का निर्माण जल के बिना नहीं हो सकता है और प्रलय काल में सब कुछ जल में ही विलीन हो जाता है, इस जल को एकार्णव कहा गया है।
यदि हम यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे के सिद्धांत पर ध्यान दें हमें अपने शरीर और ब्रह्मांड में जल की मात्रा का साम्य दिखाई देगा. हमारी पृथ्वी का तीन चैथाई हिस्सा जल से ढका हुआ है और मनुष्य के शरीर का तीन चैथाई भाग पानी से बना हुआ है।इसके अलावा इस संसार के पालनहार भगवान विष्णु भी जल में भी स्थित है ।आदि पुरूष विष्णु का निवास ‘आयन’ नार यानी ‘जल’ है इसलिए भगवान विष्णु को नारायण नाम से संबोधित किया जाता हैं। एवं, हर बच्चा मां के गर्भ में जल में अवस्थित होता है।
उपमा के रूप में इन्ही कथानक में जल को भगवान विष्णु के घोर तपस्या से उत्पन्न पसीने की बूंद कह गया है।उत्पत्ति और विनाश दोनों में जल उपस्थित है। पुराणों में बार-बार उल्लेख आया है कि जब प्रलय काल आता है उस समय सारा जगत अंधकार में खो गया था। ऐसा अंधकार कि ना तो उसके विषय में कोई कल्पना की जा सकती थी ना कोई वस्तु जाना जा सकता था। सारा ज्ञान खो गया था, किसी वस्तु का अवशेष नहीं रहा था। तब भगवान विष्णु प्रलय के अंधकार को चीर कर उत्पन्न होते हैं।
शास्त्र में कहा गया है कि सृष्टि के अंत के समय सिर्फ जल शेष बच जाता है जिसमें भगवान विष्णु शयन करते हैं । फिर कुछ काल बीतने के बाद भगवान विष्णु उसी जल से सृजन का काम आरंभ करते हैं ।निर्माण और अंत के समय जल की उपस्थिति इस बात को दर्शाता है कि बिना जल के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है।
सारांश : १ अब आप बताए की क्या सृष्टि का निर्माता परमपिता ईश्वर चार महीने के लिए आराम करने के लिए जल में जाकर सो जाते है ?
और अपना कार्य किसको देते है ये स्पष्ट नहीं है ये कथा कही तुक्के बाजी लगती है।
२ प्रश्न है की क्या ईश्वर को अपने कार्य के लिए किसी की मदद की जरुरत होती है?
इस विषय में वेद ग्रन्थ और ऋषि क्या कहते है ?
ईश्वर सर्वशक्तिशाली है ,सर्वव्यापक है, जनम मरण से रहित है ,निराकर है और उसको किसी की सहायता की अवश्यकता नही है।आप इस विशाल ब्रह्मांड को देखकर ,समुंद्र ,पहाड़ और भूकंप की शक्ति देखकर ईश्वर के रचनाकार होने का अंदाजा लगा सकते हैं।
ईश्वर के होने और शक्तिशाली हों के प्रमाण हमेशा हमारे सामने होते है और इस विषय में सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास के ऋषि ने लिखा है:
सामर्थ्यवाले का नाम ईश्वर है।
‘य ईश्वरेषु समर्थेषु परमः श्रेष्ठः स परमेश्वरः’
जो ईश्वरों अर्थात् समर्थों में समर्थ, जिस के तुल्य कोई भी न हो, उस का नाम ‘परमेश्वर’ है।
सर्वाः शक्तयो विद्यन्ते यस्मिन् स सर्वशक्तिमानीश्वरः
जो अपने कार्य करने में किसी अन्य की सहायता की इच्छा नहीं करता, अपने ही सामर्थ्य से अपने सब काम पूरा करता है, इसलिए उस परमात्मा का नाम ‘सर्वशक्तिमान्’ है।
३ अब आप बताये की चार महीने कौन कौन से देव चार महीने के लिए सो जाते हैं? देव का अर्थ स्पष्ट है जिनके बिना एक छण भी सृष्टि नहीं चल सकती।
ये एक बहुत बड़ा अंधविश्वास है और पाखंड है ये कहना की सृष्टि का रचिता ईश्वर चार महीने के लिऐ सो जाता है और अपना कार्य किसी और को से कराता है।ये कैसे संभव है?इस पर गौर से विचार करिए,कोई वैज्ञानिक खोज हैं क्या ,या किसी ने कथा गढ़ दी और आपने सुना दी।
सत्य पर विस्वास करना और असत्य को त्याग देना ही परम धर्म है।
४ कथानक का संदेश? ये हैं कि भगवान विष्णु की तरह हर व्यक्ति के लिए क्रियाशील रहना अनिवार्य है और उन्हीं के समान हर व्यक्ति एक अदृश्य कुरुक्षेत्र में खड़ा है। समझने की बात है कि कुरुक्षेत्र सिर्फ एक स्थान नहीं है जहां कौरव-पाण्डव का आपस में युद्ध हुआ था, बल्कि कुरुक्षेत्र मनुष्य का मन है जहां पर पंच तत्व से बने शरीर ( पांडव) में अवस्थित धर्म भावना का सौ प्रकार की र्दुभावनाओं की सेना (कौरव) के साथ धीर गंभीर मन से युद्धरत होना है अर्थात् क्रियाशील होना है अपने लिए सौभाग्य लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिए। आज का मनुष्य भी भावनाओं के समुद्र में तैर रहा है, अर्थात भगवान विष्णु की तरह जल में अवस्थित है।
५ संस्कृत में धार्मिक साहित्यानुसार ईश्वर के अनेको नाम उसके विभिन्न कार्यों के कारण है जैसे की सूर्य, चन्द्रमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त है। हरिशयन का तात्पर्य इन चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही द्योतक होता है। इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण या सो जाती है। आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने भी खोजा है कि कि चातुर्मास्य में (मुख्यतः वर्षा ऋतु में) विविध प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, जल की बहुलता और सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्राप्त होना ही इनका कारण है।
इसलिए इन चार महीने उपवास इत्यादि के द्वारा शरीर शुद्ध रखने की सलाह दी गयी है ,निरोगी रहेंगे तो सम्पन्नता बढ़ेगी और घर में लक्ष्मी का वास होगा।
बच्चे का पहला गुरु माता होती है इसके बाद जो शिक्षा देते है,और गुरू द्वारा लिखे ग्रंथ मार्ग दर्शन करते है ।शायद इसलिए कहा गया है की गुरु सृष्टि को सम्हालते है क्योंकि उनका मार्गदर्शन जीवन को आगे ले जाने के लिए जरूरी हो जाता है।
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