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वैदिक धर्म वह धर्म है जिसका आविर्भाव ईश्वर प्रदत्त ज्ञान ‘वेद’ के पालन व आचरण से हुआ है। वैदिक धर्म के अनुसार मनुष्य को ईश्वर प्रदत्त शिक्षाओं को ही मानना व आचरण करना होता है। ऐसे ग्रन्थ वेद हैं जिसमें परमात्मा के सृष्टि की आदि में दिए गये सभी वचन व शिक्षायें विद्यमान है। हमारे विद्वान मनीषी ऋषियों की मान्यता रही है कि वेद सब विषयों में स्वतः प्रमाण है और अन्य ग्रन्थ व विद्वानों के वचन व बातें परतः प्रमाण है। किसी भी ग्रन्थ की वही बातें प्रामाणिक होती है जो वेदों की मान्यता व भावना से पुष्ट होती हैं। इसी आधार पर ऋषि दयानन्द जी ने वेदों को विद्या के ग्रन्थ कहा है और इतर सभी ग्रन्थों की जो बातें वेद विरुद्ध देखने को मिली उसको उन्होंने अविद्या बताया व उसका प्रसंगानुसार युक्तियों एवं तर्कों से खण्डन भी किया है। वह कहते हैं कि मनुष्य जाति की उन्नति का एक मात्र कारण सत्य का ग्रहण करना और असत्य का त्याग करना है। सत्य वही होता है कि जो विद्या से युक्त तथा अविद्या से रहित हो। अतः सभी मनुष्यों को वेदों का अध्ययन कर उससे ईश्वर, जीव तथा सृष्टि सहित मनुष्य के कर्तव्यों एव आचरणों आदि की शिक्षा लेकर उसी के अनुसार आचरण व कार्य करने चाहियें। यदि हम ऐसा करेंगे तो हम एक सच्चे ईश्वरभक्त होकर धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं और इनको यत्किंचित प्राप्त भी कर सकते हैं। वेद विरुद्ध आचरण अशुभ व पाप कर्मों में आता है। इससे मनुष्य की आत्मा व जीवन की उन्नति न होकर अवनति होती है। मनुष्य को जीवन के उत्तर काल में ज्ञान प्राप्त होने पर पछताना पड़ता है। अतः मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह विद्वानों की संगति करं् और उनके जीवन व आचरण के अनुकूल अपने जीवन व आचरण को बनायें। ऐसा करके एक साधारण अशिक्षित मनुष्य भी जीवन में उच्च स्थिति को प्राप्त हो सकता है। आर्यसमाज में जाने पर इस उद्देश्य की पूर्ति होती है। वहां अनेक विषयों के विद्वानों तथा सभ्य पुरुषों सहित महात्माओं एवं विरक्त संन्यासियों के दर्शन होने सहित उनके विचार सुनने को मिलते हैं। आर्यसमाज में सन्ध्या तथा यज्ञ, माता-पिता की सेवा, अतिथि सत्कार तथा पशुओं से प्रेम आदि की शिक्षा सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं वेदों के स्वाध्याय की प्रेरणा मिलती है। इस प्रक्रिया से मनुष्य की आत्मा, मन व बुद्धि सहित शरीर की उन्नति होती है तथा वह सामाजिक व पारलौकिक उन्नति को भी प्राप्त होता है।
वेदों ने मनुष्य की आयु लगभग 100 वर्ष को चार आश्रमों में विभक्त किया है। मनुष्य का जीवन काल जन्म लेकर शैशवास्था से हो आरम्भ होता है। आरम्भ में माता-पिता के सान्निध्य में रहकर शिशु आरम्भिक ज्ञान एवं शारीरिक पोषण प्राप्त करता है। आठ वर्ष व उससे कुछ कम वय का होने पर उसे गुरु के पास अध्ययन के लिये भेजा जाता है। उसका अध्ययन सामान्यतः 25 वर्ष में पूरा होता है। इस 25 वर्ष की आयु को ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता है। प्राचीन काल के वैदिक युग में इस अवस्था में मनुष्य अधिक से अधिक विद्याओं को ग्रहण करते थे जिसमें वेदों का यथोचित ज्ञान प्राप्त करना मुख्य कर्तव्य होता था। विद्या पूरी करने पर ब्रह्मचारी का समावर्तन व विवाह संस्कार होता था। विवाह होने पर युवक व युवती का ग्रहस्थ आश्रम में प्रवेश होता है। इस आश्रम की अवधि भी 25 वर्ष निर्धारित है। गृहस्थ जीवन में रहकर मनुष्य को अर्थोपार्जन करने सहित सन्तानों को जन्म देना व उन्हें सुसंस्कारित करने सहित उनको विद्यावान बनाना होता है। अतिथियों का सत्कार तथा माता पिता आदि संबंधियों की सेवा करनी होती है। ऐसा करना माता पिता व विद्वान अतिथियों के ऋण से उऋण होने सहित सामाजिक तथा देश की उन्नति के लिये आवश्यक होता है। गृहस्थ जीवन में माता-पिता व दम्पत्तियों को यथासमय ईश्वरोपासना तथा दैनिक यज्ञ सहित परोपकार व दान आदि का भी सेवन करना होता है। स्वाध्याय प्रत्येक गृहस्थी के लिए अनिवार्य होता है। इससे मनुष्य का ज्ञान बढ़ने सहित आत्मा की उन्नति भी होती है। स्वाध्याय से हम सावधान रहते हैं और मिथ्या व अन्धविश्वासों में नहीं फंसते तथा अपने स्वाध्याय से अर्जित ज्ञान से अन्धविश्वासों में फंसे अपने निकटस्थ बन्धुओं को निकालने में भी सहयोगी होते हैं। अतः गृहस्थ जीवन काल में प्रत्येक दम्पत्ति को वैदिक धर्म की मान्यताओें के अनुसार अपने सभी कर्तव्यों का सेवन करना चाहिये और मुख्यतः अपनी सन्तानों को वेदों के अनुसार वेद व वैदिक साहित्य का ज्ञानी व बलिष्ठ बनाना चाहिये। वह सब सदाचारी हों इसी में माता-पिता के जीवन की सार्थकता होती है।
जब गृहस्थी पचास वर्ष की आयु के हो जायें तो उन्हें अपने गृहस्थ के दायित्वों को अपने पुत्रों को सौंप कर वानप्रस्थी होने का विधान वैदिक धर्म में किया गया है। आजकल स्थिति सर्वथा भिन्न है। वैदिक काल में ऐसा होता रहा है, ऐसा हम अनुमान व विश्वास करते हैं। आज भी आर्यसमाज से जुड़े लोग अपनी अपनी भावना व सुविधा के अनुसार वानप्रस्थी बनते हैं। आर्यसमाज के एक विद्वान एवं ऋषि दयानन्द भक्त श्री शैलेशमुनि सत्यार्थी जी हैं। उन्होंने वानप्रस्थ आश्रम की लगभग सही समय पर दीक्षा ली। वर्तमान में वह आर्यसमाज द्वारा संचालित आर्य वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम, ज्वालपुर-हरिद्वार में निवास करते हैं। उनका जीवन अध्ययन, चिन्तन, मनन तथा वैदिक धर्म के प्रचार में व्यतीत होता है। फेसबुक आदि के माध्यम से भी वह लोगों को सत्प्रेरणायें करते रहते हैं। ऐसे लोगों से ही वैदिक धर्म व संस्कृति की शोभा है। सभी को उनका और उनके अनुरूप सामाजिक जीवन व्यतीत कर रहे विद्वानों, महात्माओं व संन्यासियों के जीवन का अनुकरण करना चाहिये। वानप्रस्थ में रहकर हम स्वाध्याय, चिन्तन, मनन, ईश्वर का ध्यान तथा यज्ञ आदि से अपने जीवन में शुभ कर्मों का संचय कर इसे मुक्ति प्राप्त करने की ओर अग्रसर कर सकते हैं। इससे आत्मा तथा ईश्वर के साक्षात्कार में भी हम उन्नति कर सकते हैं। अतः वानप्रस्थ आश्रम का अपना महत्व है। सारा जीवन धनोपार्जन में लगे रहना आदर्श व प्रशंसनीय मनुष्य जीवन नहीं है। जीवन में स्वाध्याय के साथ ईश्वर प्राप्ति की साधना सहित आत्मा व जीवन को ऊंचा उठाने के कार्य होने चाहियें जिनके लिये वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश लेकर इस आश्रम के कर्तव्यों की पूर्ति के लिए अवकाश निकालना चाहिये। यह ध्यान रखना चाहिये कि हमारा जीवन किसी भी समय समाप्त हो सकता है। हम कल रहेंगे या नहीं, यह किसी को पता नहीं। अतः हमें समय रहते और ऋषियों के विधानों पर आस्था रखकर उनका यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक पालन करना चाहिये। वानप्रस्थ का काल आत्मकल्याण का काल होता है। इसमें हम धर्म प्रचार का कार्य भी कर सकते हैं जिससे हमें पुण्यकर्मों का लाभ प्राप्त होने सहित हमारी आत्मा की उन्नति भी होती है और हमारा समाज व देश संवरता है।
मनुष्य जीवन का चौथा आश्रम संन्यास आश्रम है। इसकी अवधि सामान्यतः 75 वर्ष की आयु से आरम्भ होती है। वैराग्य होने पर इसे ब्रह्मचर्य के बाद कभी भी धारण किया जा सकता है। इस अवस्था में मनुष्य को अपना समय ईश्वर की प्राप्ति हेतु साधना में लगाने के साथ पूर्व के तीन आश्रम में जो ज्ञान व अनुभव प्राप्त किया होता है उससे समाज व देश का मार्ग दर्शन करना होता है। ऋषि दयानन्द का जीवन एक आदर्श संन्यासी का जीवन था। स्वामी श्रद्धानन्द, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती एवं महात्मा नारायण स्वामी आदि विद्वान हमारे आदर्श संन्यासी रहे हैं। हमें इनके जैसा जीवन बनाकर परमार्थ का संग्रह करना है। संन्यास में मनुष्य का अपने परिवार से संबंध समाप्त हो जाता है। पूरा विश्व व इसके सभी लोग ही संन्यासी का परिवार होते हैं। इनके कल्याण के लिये ही वह सत्योपदेश एवं इतर कार्य करता है। वैदिक काल में यह व्यवस्थायें उत्तम अवस्था को प्राप्त थी। महाभारत युद्ध के बाद देश व समाज का पतन हुआ। वेदों का व्यवहार आलस्य व प्रमाद के कारण छूट गया। समाज में नाना प्रकार के अन्धविश्वास व कुरीतियां उत्पन्न हुईं। आज यह वृद्धि को प्राप्त हो रही हैं। ऋषि दयानन्द ने अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड और कुरीतियों को दूर करने के अनेक प्रयत्न किये परन्तु अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों एवं आचार्यों ने उनके इस दैवीय-कार्य में सहयोग नहीं किया। परिणाम हमारे सामने है। आज स्थिति भयावह है। हमारे भाईयों का धर्मान्तरण एवं अनेक प्रकार से उत्पीड़न किया जाता है और हम एक दर्शक बन कर रह जाते हैं। ऐसी समस्याओं का हमारे पास कोई समाधान नहीं है। हमारी व्यवस्था भी लाचार दीखती है। यह स्थिति वेद प्रचार व संगठन को बलवान बनाकर ही कुछ हल की जा सकती है। अतः सुख, शान्ति और कल्याण की विश्व में स्थापना हेतु वैदिक आश्रम व्यवस्था को लागू करने की महती आवश्यकता है। आर्यसमाज इसके लिए प्रयत्नशील है। ईश्वर कृपा करेंगे तो यह कार्य भविष्य में शायद सफल हो सकेगा।
वैदिक धर्म में चार आश्रम हैं। इनमें अपनी अपनी जगह सभी बड़े हैं परन्तु गृहस्थाश्रम का महत्व अधिक माना जाता है। ब्रह्मचारी स्वयं को बड़ा, वानप्रस्थी स्वयं को बड़ा तथा संन्यासी स्वयं को सबसे बड़ा मानते हैं। लोगों में इस विषयक अनेक भ्रान्तियां हैं। प्रायः सभी संन्यासी को सबसे बड़ा मानते हैं। ऋषि दयानन्द ने इन सब भ्रान्तियों का समाधानयह कहकर किया है कि गृहस्थ आश्रम सबसे बड़ा है। सत्यार्थप्रकाश के चौथे समुल्लास के अन्त में उन्होंने प्रश्न किया है कि गृहाश्रम सब से छोटा वा बड़ा है? इसका उत्तर उन्होंने दिया है कि अपने-अपने कर्तव्यकर्मों में सब बड़े हैं। परन्तु यथा ‘नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्। तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।1।। यथा वायुं समाश्रित्य वत्र्तन्ते सर्वजन्तवः। तथा गृहस्थमाश्रित्य वत्र्तन्ते सर्व आश्रमाः।।2।।’ ऋषि ने इसके आगे मनुस्मृति के ही दो और श्लोक भी दिये हैं। वह लिखते हैं कि जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते? वैसे गृहस्थ ही के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते हैं।1। विना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता।2। जिस से ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को दान और अन्नादि देके प्रतिदिन गृहस्थ ही धारण करता है इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है, अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहाता है। इसलिये जो अक्षय मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो वह प्रयत्न से गृहाश्रम का धारण करे। जो गृहाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने के अयोग्य है, उसको (निर्भीक एवं सबल पुरुष) अच्छे प्रकार धारण करें। ऋषि आगे लिखते हैं कि इसलिये जितना कुछ व्यवहार संसार में है उस का आधार गृहाश्रम है। जो यह गृहाश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति के न होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम कहां से हो सकते? जो कोई गृहाश्रम की निन्दा करता है वही निन्दनीय है और जो प्रशंसा करता है वही प्रशंसनीय है। परन्तु तभी गृहाश्रम में सुख होता है जब स्त्री पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हों। इसलिये गृहाश्रम के सुख का मुख्य कारण ब्रह्मचर्य और स्वयंवर विवाह है।
हमने वैदिक आश्रम व्यवस्था में आश्रम का उल्लेख कर गृहस्थ आश्रम की महत्ता को वेदों के महान ऋषि दयानन्द जी के शब्दों में प्रतिपादित किया है। इससे लोगों का भ्रम निवारण होता है। आज भी लोग संन्यासियों को ही सबसे अधिक महत्व देते हैं और सभी संन्यासी यथार्थ वैराग्यवान न होकर संन्यास आश्रम की मर्यादा के अनुरूप सभी कार्य करते हुए नहीं दीखते। सभी को ऋषि दयानन्द के विचारों को पढ़कर लाभ उठाना चाहिये। गृहस्थ आश्रम की महत्ता का इससे अधिक उपयुक्त वर्णन कहीं देखने को नहीं मिलता। ऋषि दयानन्द जी को सादर नमन। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य