पुण्यतिथि 4 जुलाई पर विशेष : नरेंद्र से विवेकानंद बनने का सफर
अनन्या मिश्रा
एक ऐसा आध्यात्म गुरु जिसने भारतीय सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार पूरी दुनिया में किया। आज ही के दिन यानी की 4 जुलाई को भारतीय पुनर्जागरण के पुरोधा माने जाने वाले स्वामी विवेकानंद का निधन हो गया था। बता दें कि स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। लेकिन नरेंद्रनाथ दत्त से स्वामी विवेकानंद बनने का सफर इतना भी आसान नहीं रहा। उन्हें कई ऐसी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। जिसे लांघकर वह पूरी तरह से सन्यासी बनें। आइए जानते हैं उनकी डेथ एनिवर्सरी के मौके पर स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातों के बारे में…
कलकत्ता में एक कुलीन कायस्थ परिवार में 12 जनवरी 1863 को स्वामी विवेकानंद का जन्म हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। वहीं उनके पिता विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। विश्वनाथ दत्त ने अपने पुत्र नरेंद्रनाथ को अंग्रेजी भाषा का ज्ञान दिया और उन्हें पाश्चात्य सभ्यता पर ही चलाने की इच्छा रखते थे। वहीं नरेंद्रनाथ भी बचपन से तीव्र बुद्धि के स्वामी थे। उनमें परमात्मा को पाने की प्रबल लालसा थी। इसी लालसा की इच्छा से उन्होंने ब्रह्म समाज का रुख किया। लेकिन उनके चित को वहां भी संतोष नहीं मिला।
साल 1884 में नरेंद्रनाथ के पिता विश्वनाथ की मृत्यु हो गई। जिसके बाद नरेंद्र पर घर का भार आ गया। उस दौरान उनके घर की माली हालत काफी खराब थी। वहीं नरेंद्रनाथ का विवाह भी नहीं हुआ था। गरीबी होने के बाद भी वह अतिथि सेवा में कोई कमी नहीं छोड़ते थे। वह खुद भूखे रहते, लेकिन अतिथि को भोजन कराते। खुद बाहर बारिश में भीगते व ठिठुरते रहते। लेकिन अतिथि को अपने बिस्तर पर सुलाते।
नरेंद्रनाथ ने रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा काफी सुनी थी। जिसके चलते वह उनके पास तर्क के विचार से पहुंचे थे। लेकिन परमहंस ने उन्हें देखते ही पहचान लिया कि यही वह शिष्य है। जिसकी वह खोज कर रहे थे। जिसके बाद नरेंद्रनाथ को परमहंस जी की कृपा से आत्म-साक्षात्कार हुआ और वह उनके शिष्यों में प्रमुख बन गए। सन्यास लेने के बाद नरेंद्रनाथ का नाम विवेकानंद पड़ा। उन्होंने अपना पूरा जीवन गुरु रामकृष्ण परमहंस की सेवा में समर्पित कर दिया था।
जब गुरु रामकृष्ण परमहंस शरीर-त्याग के दिनों में अपने जीवन से संघर्ष कर रहे थे। तो बिना किसी बात की परवाह किए विवेकानंद उनकी सेवा में लगे रहते थे। इसी दौरान गुरुदेव का शरीर काफी रुग्ण हो गया था। वहीं गले में कैंसर होने के कारण गले में से थूंक, रक्त, कफ आदि निकलने लगा था। लेकिन स्वामी विवेकानंद बड़े ही लगन के साथ अपने गुरु की सेवा में लगे रहते थे। एक बार किसी शिष्य ने गुरु परमहंस की सेवा में घृणा से नाक भौंहें सिकोड़ीं।
जिसे देखकर स्वामी विवेकानंद काफी गुस्सा हो उठे। उन्होंने उसे गुरुभाई का पाठ पढ़ाते हुए गुरुदेव की रखी प्रत्येक वस्तु से अपना प्रेम दर्शाया। सिर्फ इतना ही नहीं विवेकानंद ने गुरुदेव के बिस्तर के पास रखी रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर पी गए। गुरु की ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से स्वामी विवेकानंद दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। इसी निष्ठा के कारण ही समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक खजाने की महक को फैलाने का काम किया था।
बता दें कि महज 25 साल की उम्र में नरेंद्रनाथ दत्त ने गेरुए वस्त्र धारण कर लिए थे। इसके बाद उन्होंने पैदल पूरे भारतवर्ष की यात्रा को पूरा किया था। वहीं साल 1893 में शिकागो में हो रही विश्व धर्म परिषद् में स्वामी विवेकानंद भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुंचे थे। उस दौरान यूरोप और अमेरिका के लोग भारतवासियों को हीन दृष्टि से देखते थे। उस दौरान विश्व धर्म परिषद् में मौजूद कई लोगों का प्रयास रहा कि स्वामी विवेकानंद को बोलने का मौका न मिले।
हालांकि एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद में बोलने का मौका मिला। इस दौरान वहां मौजूद सभी लोग विवेकानंद के विचारों को सुनकर आश्चर्यचकित हो गए। इस सर्वधर्म परिषद में बोलने के बाद स्वामी विवेकानंद का अमेरिका में काफी स्वागत-सत्कार किया गया। वहीं एक बहुत बड़ा समुदाय विवेकानंद का भक्त बन गया। तीन साल अमेरिका में रहने के दौरान विवेकानंद ने वहां के लोगों में भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान कराते रहे।
स्वामी विवेकानंद का मानना था कि ‘अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा’। विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं अमेरिका में स्थापित कीं। वहीं तमाम अमेरिकन विद्वान उनके शिष्य बनें। स्वामी विवेकानंद खुद को गरीबों का सेवक कहा करते थे। उन्होंने सदैव भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्जवल करने का प्रयास किया। वहीं 4 जुलाई 1902 को स्वामी विवेकानंद ने अपनी देह का त्याग कर दिया।
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