सर्वज्ञ ईश्वर से ही सर्गारम्भ में चार ऋषियों को चार वेद मिले थे”
ओ३म्
हमारा यह संसार स्वतः नहीं बना अपितु एक पूर्ण ज्ञानवान सर्वज्ञ सत्ता ईश्वर के द्वारा बना है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, सर्वव्यापक, सर्वातिसूक्ष्म, एकरस, अखण्ड, सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता, पालनकर्ता तथा प्रलयकर्ता है। जो काम परमात्मा ने किये हैं व वह करता है, उन कामों को करना किसी मनुष्य के वश की बात नहीं है। संसार में केवल दो ही चेतन सत्तायें हैं। एक ईश्वर तथा दूसरी जीवात्मायें। जीवात्मायें चाहे मनुष्य योनि में हों या किसी अन्य प्राणी योनि में, वह सब मिलकर व अकेले इस सृष्टि की रचना, पालन तथा प्रलय नहीं कर सकतीं। सृष्टि की रचना आदि महत्कार्यों के लिये ईश्वर की सत्ता का होना अपरिहार्य है अन्यथा यह सृष्टि कदापि नहीं बन सकती थी।
सृष्टि के बनने से पहले इस कार्य सृष्टि का अस्तित्व नहीं था। यह कार्य सृष्टि इसके उत्पत्तिकर्ता ईश्वर ने बनायी है जिसमें ईश्वर सृष्टि की उत्पत्ति का निमित्तकारण तथा त्रिगुणातमक सत्व, रज व तम गुणों वाणी प्रकृति उपादान कारण है। ईश्वर, जीव तथा प्रकृति यह तीनों पदार्थ अनादि, नित्य, अमर, अविनाशी तथा अजर हैं। ईश्वर तथा जीव दोनों चेतन तथा प्रकृति जड़ है। यही तीन पदार्थ ही पूरे विश्व में विद्यमान हैं, आज भी हैं और हमेशा रहेंगे। हमारी इस सृष्टि से पूर्व प्रलय थी, उस प्रलय से पूर्व सृष्टि और उस सृष्टि से भी पूर्व प्रलयावस्था थी। सृष्टि बनती है तथा सर्गकाल की समाप्ति पर सृष्टि की प्रलय हो जाती है। इस क्रम का न आरम्भ है और न ही अन्त। इस प्रकार हमारी यह सृष्टि प्रवाह से अनादि कहलाती है।
सृष्टि के बनने के बाद परमात्मा जीवों को अमैथुनी सृष्टि में जन्म देते हैं। जन्म का कारण अनादि व नित्य जीव व उनके पूर्व कृत कर्म हैं। जीवों की संख्या न बढ़ती है न घटती है। आज जितने जीव हैं उतने ही इससे पूर्व की सृष्टियों में रहे हैं। हम वा समस्त जीवात्मायें सृष्टिकाल, सृष्टि की उत्पत्ति के बाद तथा प्रलय के मध्य के काल, में अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के आधार पर उन कर्मों का फल भोगने तथा मुक्ति के लिए कर्म करने के लिए मनुष्य आदि प्राणी योनियों में जन्म लेते रहते हैं। सभी जीव अपने पूर्वजन्म के पाप व पुण्य कर्मों का फल भोगते हैं। मनुष्य योनि में जीव उभय कर्म करते हैं अर्थात् यह पूर्वजन्म में किये हुए कर्मो का फल भी भोगते हैं तथा नये पुण्य व पाप कर्मों को भी करते हैं। मनुष्यों के लिये यह आवश्यक है कि वह अपने माता-पिता से ही जन्म ले सकते हैं। माता-पिता के लालन-पालन से उनका पोषण होता है। माता-पिता ही उन्हें शैशव अवस्था से किशोर अवस्था तक पहुंचाते हैं। उन्हीं के पालन में किशोर अवस्था के बाद युवावस्था आती है। युवावस्था से पूर्व यदि माता-पिता न हों तो मनुष्य का जन्म व पालन नहीं हो सकता। शिशुओं को भाषा व आवश्यकता के अनुरूप ज्ञान भी माता-पिता से ही प्राप्त होता है। माता-पिता के अतिरिक्त विद्यालयों के आचार्यों से भी ज्ञान प्राप्त होता है। अतः जीवात्माओं को मनुष्य आदि अनेक योनियों में जन्म देने तथा पालन-पोषण के लिये माता-पिता, अभिभावकों तथा अध्यापकों का होना आवश्यक होता है।
परमात्मा ने सर्गारम्भ में जब इस सृष्टि की रचना की थी तो उसे जीवात्माओं को जन्म देने के लिये युवा माता-पिता उपलब्ध नहीं थे। अतः सृष्टि के आरम्भ की प्रथम पीढ़ी अमैथुनी अर्थात् बिना माता-पिता से जन्म पाती है। परमात्मा सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान तथा सर्वव्यापक है। उसने यह सृष्टि पहली बार नही की और न ही अन्तिम बार की है। अतः उसे इसे सृष्टि से पूर्व की सभी सृष्टियों में भी मनुष्य आदि प्राणियों की उत्पत्ति आदि का ज्ञान होता है। परमात्मा का ज्ञान अनादि तथा नित्य है जिसका न क्षय होता है और न ही वृद्धि को प्राप्त होता है। यह सृष्टि परमात्मा अमैथुनी अर्थात् बिना माता-पिता के करता है। हम सृष्टि में देखते हैं कि हम पृथिवी में बीज डाल देते हैं तो उससे पौधा उत्पन्न होता है जो बाद में वृहद वटवृक्ष का रूप ले लेता है। परमात्मा भी अमैथुनी सृष्टि वनस्पतियों की भांति भूमि के गर्भ से करते हैं। इसी कारण से भूमि का एक नाम माता भी है। यही भूमि हमारे पूर्वजों की जननी व उन सभी व हमारी भी वर्तमान में अन्न आदि से पोषण करने के कारण माता कहलाती है। अतः सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों की पहली पीढ़ी अमैथुनी सृष्टि में पृथिवी के गर्भ से उत्पन्न होती है। सृष्टि की आदि में उत्पन्न सभी प्राणियों की माता भूमि ही होती है तथा परमात्मा माता-पिता व दोनों होता है। मनुष्यों की सृष्टि के आदिकाल में उत्पत्ति अमैथुनी होती है। सभी मनुष्य युवावस्था में उत्पन्न होते हैं। इसका कारण यह है कि यदि परमात्मा अमैथुनी सृष्टि में शिशुओं को जन्म देता तो उनका पालन-पोषण करने के लिये युवा माता-पिता की आवश्यकता होती? सृष्टि के आरम्भ में माता-पिता होते नहीं है, अतः परमात्मा ने आदि सृष्टि युवावस्था में स्त्री व पुरुषों को उत्पन्न कर ही की थी। युवावस्था में सृष्टि करने का एक अन्य कारण यह भी है कि सृष्टि को आगे बढ़ाने व चलाने के लिये माता-पिताओं की आवश्यकता होती है जो मैथुनी सृष्टि कर सके। यह मैथुनी सृष्टि युवा-दम्पती ही कर सकते हैं। यदि परमात्मा वृद्धावस्था में मनुष्यों को उत्पन्न करता तो उनसे सन्तान उत्पन्न न होने के कारण भी यह सृष्टि आगे चल नहीं सकती थी। अतः सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि का होना और वह भी युवावस्था में ही होना सम्भव होता है व सिद्ध होता है। यही वास्तविकता एवं यथार्थ स्थिति है।
सृष्टि वा समस्त ब्रह्माण्ड के उत्पन्न हो जाने तथा जीवात्माओं का युवावस्था में जन्म हो जाने के बाद उन युवाओं को ज्ञान कहां से प्राप्त होता है? उस समय न तो माता-पिता थे और न ही विद्वान आचार्य आदि। कोई भाषा भी नहीं थी जिससे आदिकालीन युवा-सन्तति आपस में बोल कर व्यवहार कर सकती। अतः उनको ज्ञान प्राप्त होना भी ईश्वर द्वारा ही सम्भव होता है। ईश्वर ज्ञानवान एवं सर्वज्ञ सत्ता है। वह निराकार, सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी होने से पूरे विश्व में व्यापक एवं सर्वत्र विद्यमान है। वह एकरस है अर्थात् वह सर्वत्र विद्यमान है तथा सर्वत्र पूर्ण ज्ञानवान सत्ता है। वह सभी मनुष्यों के बाहर होने सहित सभी पदार्थों के भीतर भी विद्यमान रहती है। अतः वह अपने सर्वान्तर्यामीस्वरूप से जीवों के भीतर जीवस्थ-स्वरूप से आत्मा में प्रेरणा द्वारा चार वेदों का ज्ञान देती है। ज्ञान, कर्म, उपासना एवं विज्ञान की दृष्टि से वेद चार हैं। अतः परमात्मा ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य एवं अंगिरा को युवावस्था में उत्पन्न कर उनको क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। इस वेदज्ञान से ही सृष्टि में वेदज्ञान के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा आरम्भ हुई है और आज तक चली आ रही है। परमात्मा सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी होने से सभी जीवों के भीतर भी है। अतः वह जीवों को प्रेरणा द्वारा वेदज्ञान प्रदान कर सकता है व उसने किया भी है। यदि परमात्मा ज्ञान न देता तो आदि काल के मनुष्य अज्ञानी व निबुर्द्धि रहते। ऐसा होने पर ईश्वर पर आरोप लगता कि उस ज्ञानवान सत्ता ने सृष्टि को तो बना दिया, जीवों को जन्म भी दे दिया परन्तु उसने उन्हें ज्ञान नहीं दिया। ईश्वर इस आरोप से मुक्त है। ईश्वर का वह ज्ञान ही वेद है। वेद सृष्टि के सभी नियमों के सर्वथा अनुकूल है। मत-मतान्तरों की पुस्तकों की तरह से वेदज्ञान कहानी, किस्सों तथा असम्भव बातों से भरा हुआ संग्रह नहीं है। वेद का ज्ञान जैसा पहले था वैसा ही आज भी सुलभ है और हमेशा ऐसा ही रहेगा। वेद पहले भी सार्थक एवं प्रासंगिक थे, आज भी हैं और हमेशा रहेंगे।
यदि परमात्मा ने सृष्टि की आदि में वेदज्ञान न दिया होता तो अद्यावधि पर्यन्त सभी मनुष्य आदि अज्ञानी रहते। वह कोई भाषा की रचना नहीं कर सकते थे। मनुष्य के लिए यह सम्भव ही नहीं है कि वह विश्व की प्रथम भाषा को स्वयं रच सके। यह सदैव परमात्मा द्वारा प्रदत्त ही होती है। वेदों की भाषा संस्कृत ही संसार की आदि भाषा है। इसी भाषा में विकार व अपभ्रंस होने से कालान्तर में नई नई भाषायें बनी हैं। वेदों में ईश्वर का सत्यस्वरूप उपलब्ध होता है। आत्मा व प्रकृति सहित मनुष्य के सभी कर्तव्यों का ज्ञान भी वेद से उपलब्ध होता है। मनुष्य जीवन के सभी दुःखों की पूर्ण निवृत्ति का उपाय ज्ञान प्राप्ति एवं तदनुरूप आचरण है। ईश्वर को यथार्थरूप में जानकर उसका समाधि अवस्था को प्राप्त होकर साक्षात्कर करने से मनुष्य को मोक्ष वा मुक्ति की प्राप्ति होती है। यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। इसका ज्ञान भी सर्वप्रथम वेद ने ही कराया है। वेद वस्तुतः ईश्वरीय ज्ञान है। इसको विस्तार से जानने के लिये ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से इस विषय की सभी भ्रान्तियां दूर हो सकती हैं। अतः सभी जिज्ञासु मनुष्यों को ईश्वर व उसके ज्ञान वेदों पर विश्वास करना चाहिये और मत-मतान्तरों की भ्रमित करने वाली शिक्षाओं के स्थान पर वेदों का अध्ययन कर अपनी आत्मा सहित शारीरिक एवं सामाजिक उन्नति करनी चाहिये। ऋषि दयानन्द ने ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी में वेदों का पुनरुद्धार किया। उन्होंने ही हमें वेदों की संहितायें, वेद संज्ञा किन ग्रन्थों की है सहित वेद विषयक अनेक रहस्यों तथा सत्य वेदार्थों से परिचित कराया है। उनका विश्व की समस्त मानव जाति पर जो उपकार हैं उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। इसके लिये उनको सादर नमन है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य