पहले ही चिकित्सकों की कमी अनुभव करते भारत देश से चिकित्सकों का पलायन चिंता का विषय
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
यह तो मानना पड़ेगा कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं में उल्लेखनीय सुधार हुआ है पर अभी बहुत कुछ किया जाना है। कोविड के दौरान तो दुनिया में श्रेष्ठतम कार्य करने के बावजूद हमारी स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खुलकर रह गई।
देश से डॉक्टरों का ब्रेन ड्रेन यानी प्रतिभा पलायन इस मायने में महत्वपूर्ण और गंभीर हो जाता है कि देश को चिकित्सकों की आज भी बेहद कमी का सामना करना पड़ रहा है। देश के करीब 75 हजार डॉक्टर्स ओईसीडी यानी कि आर्थिक सहयोग व विकास संगठन से जुड़े देशों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। ताजातरीन उदाहरण देश के सबसे बड़े दिल्ली के एम्स का ही देखा जा सकता है जहां पिछले दस माह में 7 विशेषज्ञ डॉक्टरों ने किसी ना किसी कारण से सेवाएं देना बंद कर दिया है। आज दस हजार से अधिक लोगों को प्रतिदिन सेवाएं देने वाले एम्स में ही 200 डॉक्टर्स की कमी चल रही है। यह तो एक मिसाल मात्र है। इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे चिकित्सक अपनी काबिलियत और विशेषज्ञता के कारण ही विदेशों में अपनी पहचान बनाए हुए हैं और एक मोटे अनुमान के अनुसार ओईसीडी देशों में रह रहे 75 हजार डॉक्टरों में से करीब दो तिहाई डॉक्टर्स तो अमेरिका में ही अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
यह तो मानना पड़ेगा कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं में उल्लेखनीय सुधार हुआ है पर अभी बहुत कुछ किया जाना है। कोविड के दौरान तो दुनिया में श्रेष्ठतम कार्य करने के बावजूद हमारी स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खुलकर रह गई। दुनिया में सबसे अधिक डॉक्टरों के ब्रेन ड्रेन वाले देश ग्रेनाडा के दस हजार डॉक्टरों के विदेशों में पलायन और कोरोना महामारी के प्रकोप ने जब उस देश को हिला कर रख दिया तो ग्रेनाडा को अपने चिकित्सकों को विदेशों से वापस बुलाने तक का निर्णय करना पड़ा। हमारे यहां कोरोना ने स्वास्थ्य सेवाओं को नई जान दी है और सरकारी व गैरसरकारी प्रयासों से अस्पतालों में वेंटिलेटर, ऑक्सिजन कन्सन्ट्रेट आदि की जरूरत को पूरा करने के समग्र और सार्थक प्रयास किए गए पर आज भी प्रशिक्षित मैनपावर की कमी के कारण इन उपकरणों का सही उपयोग नहीं होना दुर्भाग्यपूर्ण ही माना जाएगा। यदि हम ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण करें तो देश में शहरी क्षेत्र में तो कमी है ही पर ग्रामीण क्षेत्र के हालात अधिक चिंताजनक हैं। ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2021-22 की मानें तो देश में ग्रामीण इलाकों की डिस्पेंसरियों में 81.6 प्रतिशत बाल रोग विशेषज्ञ उपलब्ध नहीं हैं। और तो और सामान्य फिजिशियनों की ही बात करें तो ग्रामीण क्षेत्र की डिस्पेंसरियों में 79 प्रतिशत फिजिशियनों की कमी है। 72 प्रतिशत से कुछ अधिक कमी प्रसूति रोग विशेषज्ञों की है। यह तो सरकारी आंकड़ों में दर्शाये गये हालात हैं। हालांकि नवीनतम रिपोर्ट में हालात में कुछ सुधार देखने को मिल सकते हैं पर अधिक सुधार की आशा करना बेमानी होगा। दरअसल हमारे यहां दस हजार की आबादी पर केवल 7 डॉक्टर उपलब्ध हैं जबकि क्यूबा जैसा देश दुनिया के देशों में मेडिकल चिकित्सकीय सेवा में लीड कर रहा है और वहां दस हजार की आबादी पर 84 डॉक्टर उपलब्ध हैं, अमेरिका में यह संख्या 35 तो चीन में 23 है।
ब्रेन ड्रेन शब्द सबसे पहली बार विश्वयुद्ध के समय उभर कर आया जब भारतीय इंजीनियर व अन्य विशेषज्ञ अपनी काबिलियत का लोहा मनवाने विदेशों में जाने लगे और वहां अपनी पहचान बनाई। 1950 से 1960 के दशक में यूके, कनाडा और यूएसए में प्रतिभा पलायन का दौर चला और इसे ब्रिटिश रॉयल सोसायटी ने ब्रेन ड्रेन कहा तो अब विदेशों में प्रतिभा पलायन चाहे वह किसी भी देश की हो उसे ब्रेन ड्रेन के नाम से पुकारा जाने लगा है। ब्रेन ड्रेन को एक तरह से अच्छा भी माना जा सकता है क्योंकि हमारी प्रतिभा को वहां स्थान मिल रहा हैं पर जब तक घर के हालात तंदुरुस्त नहीं हों तब तक इसे ज्यादा अच्छा नहीं कहा जा सकता। वैसे भी हमारे यहां से ही नहीं अपितु दुनिया के लगभग अधिकांश देशों से प्रतिभाएं किसी ना किसी कारण से पलायन करती हैं। विदेशों में प्रतिभा पलायन को ही ब्रेन ड्रेन कहा जाने लगा है। हालांकि अब ब्रेन ड्रेन को ब्रेन गेन कह कर भी पुकारा जाने लगा है तो दूसरी और रिवर्स ब्रेन ड्रेन भी होने लगा है। सवाल यह है कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार और डॉक्टरों की जरूरतों को देश में पूरा करना समय की मांग है। आज हम देश में आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं उसके बादजूद ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति खासतौर से चिकित्सकों और पैरामेडिकल स्टाफ की कमी निश्चित रूप से चिंता का विषय है। खासतौर से कोरोना के बाद तो सरकार को और अधिक गंभीर होने की आवश्यकता हो जाती है। दरअसल विदेशों जैसी सुविधाएं हमारे डॉक्टरों को मिलने लगें तो उनके विदेश जाने के मोह को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। लाख सरकारी दावों के बावजूद अन्य देशों की तुलना में स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी की तुलना में हमारे देश में 3 प्रतिशत से कुछ अधिक ही खर्च किया जा रहा है जबकि यूएसए में जीडीपी का स्वास्थ्य पर खर्च 18 प्रतिशत से भी अधिक है तो क्यूबा में 11 प्रतिशत और जापान में 10 से अधिक ही व्यय किया जा रहा है।
दरअसल देश में निर्धारित अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार प्रति दस हजार की आबादी पर चिकित्सकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने में लंबा समय लगेगा। हालांकि पिछले सालों में देश में चिकित्सा सेवाओं का विस्तार हुआ हैं। नए एम्स खोले जा रहे हैं तो शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में अस्पताल खुल रहे हैं। राजस्थान सरकार राइट टू हेल्थ कानून लाई है। मोहल्ला डिस्पेंसरियां खोली जा रही हैं। पर यह साफ है कि देश में यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज यानी कि सभी देशवासियों को गुणवत्तापूर्ण सेवाओं तक पहुंच अभी दूर की बात है। इसी साल देश में 50 नए मेडिकल कालेज खोलने का निर्णय किया गया है। इन्हें मिलाकर देश में 702 मेडिकल कालेज हो गए हैं तो अब देश में मेडिकल कालेजों में एमबीबीएस के अध्ययन की सीटें भी बढ़कर एक लाख 7 हजार से अधिक हो गई हैं। इसका सीधा-सीधा अर्थ यह हो गया है कि कुछ साल बाद हमें एक लाख डॉक्टर्स प्रतिवर्ष मिलने लगेंगे तो विदेशों से अध्ययन कर लौटने वाले भी कुछ डॉक्टर्स होंगे। इस तरह से नए डॉक्टर्स आने लगेंगे तो हालात में सुधार होगा।
सवाल अभी भी कायम है कि चिकित्सकों के ब्रेन ड्रेन को रोकने के लिए भी सरकार को ठोस प्रयास करने होंगे। डॉक्टर्स की सेवा शर्तों में सुधार के साथ ही इस क्षेत्र में निजी और सरकारी दोनों ही क्षेत्रों में निवेश को बढ़ावा देना होगा। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत बनाना होगा। आज भी चिकित्सा क्षेत्र में निवेश की जो तस्वीर देखने को मिल रही है वह यही है कि करीब 90 फीसदी निवेश निजी क्षेत्र में आ रहा है। लाख टके का सवाल है कि लाख सरकारी व्यवस्थाओं के बावजूद निजी चिकित्सालयों तक अधिकांश लोगों की पहुंच लगभग नहीं के बराबर ही है और आने वाले समय में कोई बड़ा बदलाव होगा यह लगता भी नहीं है।
हमारे लिए एक अच्छी बात यह है कि देश में मेडिकल टूरिज्म को बढ़़ावा मिलने लगा है। देश के नामी गिरामी अस्पतालों की साख व अपनी पहचान का ही कारण है कि विदेशी यहां इलाज के लिए आने लगे हैं। इससे मेडिकल टूरिज्म के क्षेत्र में हमारी पहचान बनने लगी है। अब यदि विदेशों में बेहतर सुविधाओं और नाम कमाने के लिए युवा डॉक्टर्स पलायन का रास्ता अपनाते हैं तो इसे रोकने के भी प्रयास करने होंगे। कहा जा सकता है कि इतने बड़े देश से 75 हजार डॉक्टर्स ब्रेन ड्रेन पर चले भी जाते हैं तो क्या फर्क पड़ने वाला है। हालातों में तो फिर भी सुधार होने से रहा तो यह हमारी निगेटिव सोच ही होगी। 75 हजार कोई छोटी संख्या नहीं है। इससे कुछ मायने में तो सुधार होगा ही वहीं अन्य युवाओं को विदेश की राह अपनाने से तो हतोत्साहित किया जा सकेगा। युवा व अनुभवी विशेषज्ञ चिकित्सकों की अंतरराष्ट्रीय मंच पर मार्केटिंग की जाती है, देश में मेडिकल रिसर्च से जुड़े विश्वस्तरीय सेमिनार, वर्कशाप और इसी तरह की गतिविधियों का वार्षिक केरिकुलम बनाकर प्रचारित किया जाता है तो देश में ही सेवा दे रहे चिकित्सकों को विश्वस्तरीय पहचान बनेगी, मेडिकल टूरिज्म को बढ़ावा मिलेगा और विदेशों में पलायन रुकेगा। इसके साथ ही सेवा शर्तों और सुविधाओं की ओर भी ध्यान देना होगा। यदि ऐसा होता है तो निश्चित रूप से हमारे युवा डॉक्टर्स का ब्रेन ड्रेन रुकेगा और देश में बेहतर चिकित्सकीय सेवाएं उपलब्ध हो सकेंगी। इससे विदेशों की ओर रुख करने वाले डॉक्टर्स को भी देश में रह कर ही अपनी प्रतिष्ठा और पहचान बनाने का अवसर मिलेगा।