भारत में नवजात शिशुओं की दर
रमेश सर्राफ धमोरा
भारत में नवजात बच्चों की मौतों के मामलों में सरकार के लिए बीते 75 साल बड़ी चुनौती भरे रहे हैं। हालांकि इसमें लगातार कमी आ रही है। सरकार की ओर से जो आंकड़े जारी किये गए हैं उसके मुताबिक 1951 में जहां प्रति 1000 नवजात बच्चों में 146 की मौत हो जाती थी।
नवजात शिशुओं की उचित सुरक्षा ना हो पाने के कारण दुनिया में बहुत सारे बच्चे मौत के आगोश में चले जाते है। भारत में नवजात शिशुओं की मौत की दर बहुत अधिक है। हालांकि सरकार ने इसे रोकने कि दिशा में सार्थक प्रयास किये हैं जिनकी बदौलत देश में शिशु मृत्यु दर में कमी आयी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया के अनुसार देश 2030 तक सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) प्राप्त करने की दिशा में बढ़ रहा है। उन्होंने कहा है कि एसआरएस 2020 ने 2014 से शिशु मृत्यु दर में लगातार गिरावट दिखाई है।
भारत में नवजात बच्चों की मौतों के मामलों में सरकार के लिए बीते 75 साल बड़ी चुनौती भरे रहे हैं। हालांकि इसमें लगातार कमी आ रही है। सरकार की ओर से जो आंकड़े जारी किये गए हैं उसके मुताबिक 1951 में जहां प्रति 1000 नवजात बच्चों में 146 की मौत हो जाती थी। वहीं 2022 में यह संख्या घटकर 28 तक आ गई है। ये आंकड़े उन बच्चों से जुड़े हैं जिनकी मौत जन्म के एक साल के अंदर हो जाती है। पिछले एक दशक में ग्रामीण क्षेत्रों की शिशु मृत्यु दर में 35 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 34 प्रतिशत की गिरावट आई है।
नवजात मृत्यु दर भी 2019 में प्रति 1000 जीवित शिशुओं में से 22 के मुकाबले दो अंक घटकर 2020 में 20 रह गई। रिपोर्ट के अनुसार देश के लिए कुल प्रजनन दर (टीएफआर) भी 2019 में 2.1 से घटकर 2020 में 2.0 हो गई है। बिहार में 2020 के दौरान उच्चतम टीएफआर (3.0) दर्ज गई जबकि दिल्ली, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में न्यूनतम टीएफआर (1.4) दर्ज की गई। इसके अनुसार छह राज्यों- केंद्र शासित प्रदेशों, केरल (4), दिल्ली (9), तमिलनाडु (9), महाराष्ट्र (11), जम्मू और कश्मीर (12) और पंजाब (12) ने पहले ही नवजात मृत्यु दर के एसडीजी लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है। रिपोर्ट के अनुसार ग्यारह राज्य और केंद्र शासित प्रदेश (यूटी)- केरल (8), तमिलनाडु (13), दिल्ली (14), महाराष्ट्र (18), जम्मू कश्मीर (17), कर्नाटक (21), पंजाब (22), पश्चिम बंगाल (22), तेलंगाना (23), गुजरात (24) और हिमाचल प्रदेश (24) पहले ही यू5एमआर के एसडीजी लक्ष्य को प्राप्त कर चुके हैं।
नमूना पंजीकरण प्रणाली (एसआरएस) सांख्यिकीय रिपोर्ट 2020 के अनुसार भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के शिशुओं की मृत्यु दर (यू5एमआर) में 2019 से तीन अंकों की (वार्षिक कमी दर 8.6 प्रतिशत) देखी गई है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में पांच वर्ष से कम आयु में मृत्यु दर 2019 में प्रति 1,000 जीवित शिशुओं में से 35 के मुकाबले 2020 में घटकर 32 रह गई है। रिपोर्ट के अनुसार शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में भी 2019 में प्रति 1000 जीवित शिशुओं में से 30 के मुकाबले 2020 में प्रति 1000 जीवित शिशुओं में से 28 के साथ दो अंकों की गिरावट दर्ज की गई है और वार्षिक गिरावट दर 6.7 प्रतिशत रही।
रिपोर्ट के अनुसार अधिकतम आईएमआर मध्य प्रदेश (43) और न्यूनतम केरल (6) में देखा गया है। रिपोर्ट के अनुसार देश में आईएमआर 2020 में घटकर 28 हो गया है। जो 2015 में 37 था। पिछले पांच वर्षों में नौ अंकों की गिरावट और लगभग 1.8 अंकों की वार्षिक औसत गिरावट आई है। इसमें कहा गया है कि इस गिरावट के बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक 35 शिशुओं में से एक ग्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक 32 शिशुओं में से एक और शहरी क्षेत्रों में प्रत्येक 52 शिशुओं में से एक की अभी भी जन्म के एक वर्ष के भीतर मृत्यु हो जाती है। रिपोर्ट के अनुसार देश में जन्म के समय लिंग अनुपात 2017-19 में 904 के मुकाबले 2018-20 में तीन अंक बढ़कर 907 हो गया है। केरल में जन्म के समय उच्चतम लिंगानुपात (974) है जबकि उत्तराखंड में सबसे कम (844) है।
भारत ने पिछले पांच दशकों में भले ही चिकित्सा क्षेत्र में प्रगति करते हुए शिशु मृत्यु दर पर काबू पाया है। लेकिन आज भी शिशुओं की मौत बड़ा सवाल है। वर्तमान में प्रत्येक एक हजार शिशुओं में से 28 की मौत एक साल का होने से पहले ही हो जाती है। देश में स्वास्थ्य सम्बन्धी चीजों की कमी के कारण यह समस्या और बढ़ जाती है। सरकारों ने इस समस्या से निपटने के लिए बहुत-सी योजनायें लागू की हैं। मगर बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी तथा जागरूकता की कमी के कारण शिशुओं की मृत्यु दर में पूर्णतया कमी नहीं आई है। उचित पोषण के भाव में अब भी कई बच्चे दम तोड़ देते हैं। ग्रामीण इलाकों में शिक्षा की कमी एवं प्रशिक्षित नर्सों व दाइयों की कमी के कारण भी विभिन्न प्रकार की समस्यायें उत्पन्न होती हैं।
शिशु मृत्यु दर में कमी लाने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार शिशु जन्म के एक घंटे के भीतर मां का दूध पिलाना चाहिए। माँ के गाढ़े पीले दूध में सर्वाधिक मात्रा में संक्रमण-रोधी तत्त्व मौजूद होता है। जिसे कोलोस्ट्रम कहा जाता है। इसमें बड़ी मात्रा में विटामिन ए के साथ 10 प्रतिशत तक प्रोटीन होता है। जो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम होता है। 6 माह तक शिशुओं को केवल स्तनपान कराया जाना चाहिए। जिसमें मां के दूध के अलावा कोई अन्य दूध, खाद्य पदार्थ, पेय पदार्थ और यहां तक पानी भी नहीं पिलाना चाहिए। इससे शिशु डायरिया, निमोनिया, अस्थमा एवं एलर्जी से बचा रहता है।
जीडीपी के प्रतिशत के रूप में भारत के स्वास्थ्य खर्च को दुनिया के औसत और अन्य विकासशील और विकसित देशों से काफी नीचे छोड़ देता है। भारत का खर्च नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे देशों से तो ज्यादा है। मगर यूनाइटेड किंगडम, न्यूज़ीलैंड, फ़िनलैंड, नीदरलैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की तुलना में जो अपने कुल सकल घरेलू उत्पाद का 9 प्रतिशत से अधिक स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं, उनसे भारत बहुत पीछे है। इसी तरह, जापान, कनाडा, स्विट्जरलैंड, फ्रांस, जर्मनी स्वास्थ्य सेवाओं पर अपनी कुल जीडीपी का कम से कम 10 प्रतिशत खर्च करते हैं। वहीं, अमेरिका अपनी जीडीपी का करीब 16 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करता है। बजट में स्वास्थ्य आवंटन में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और प्रौद्योगिकी में सुधार पर जोर देना चाहिए। स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढांचे, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
2023-24 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग का अनुमानित व्यय 86,175 करोड़ रुपए है जो 2023-24 के लिए केंद्र सरकार के कुल व्यय का लगभग 2% है। यह राशि कम है इसे बढ़ाना होगा तभी भारत में नवजात शिशुओं की मौत पर रोक लगायी जा सकती है। शिशु सुरक्षा सिर्फ सरकार की ही नहीं वरन सभी की जिम्मेदारी है। सभी को एकजुट होकर इसके लिए आगे आना होगा तब जाकर हम अपने देश के शिशुओं की सुरक्षा के मामले में अन्य देशों की तुलना में ऊपरी पायदान पर आ पाएंगे।