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कविता

काल बैरी आ रहा …….

काल बैरी आ रहा …….

भीतर बैठा रो रहा, एक हंस दिन रैन।
भटक गया संसार में, खत्म हुआ सब चैन।।
खत्म हुआ सब चैन, रात को नींद ना आवे।
कहां फंसा इस कीचड़ में, पड़ा पड़ा पछतावे।।
गठरी बन गई बोझिल, नहीं संभाली जाती।
मौत हंस की देख दशा , मंद – मंद मुस्काती।।

जग मेला मैला भया, हंसा करे विलाप।
काल बैरी आ रहा , सुनत पड़ें पदचाप।।
सुनत पड़ें पदचाप , मन ही मन व्याकुल।
चमन उजड़ता देख, हुई मन की बत्ती गुल।।
जहां लगाया मन को अपने वही हुआ बेगाना।
बेगानों की दुनिया प्यारे गीत संभल के गाना।।

बने भिकारी घूमते, तनिक लजाते नाय।
मारकर स्वाभिमान को, हंता बनते जाएं।।
हंता बनते जाएं, कत्ल करें अपना निशदिन।
घूमते बन बहुरूपिये , सुधरेंगे यह किस दिन?
मजाक बना गरीबी का दारू के प्याले पीते हैं।
ना लाभ इन्हें कुछ देने का छद्म रूप में जीते हैं।।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत

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