स्वाभिमान एवं शौर्य की प्रतीक थी रानी दुर्गावती
ललित गर्ग
भारत का इतिहास महिला वीरांगनाओं के शौर्य, शक्ति, बलिदान, स्वाभिमान एवं प्रभावी शासन व्यवस्था के लिये दुनिया में चर्चित है। इन वीरांगणाओं ने जहां हिंदू धर्म, संस्कृति एवं विरासत को प्रभावित किया, वहीं इन्होंने संस्कृति, समाज और सभ्यता को नया मोड़ दिया है। अपने युद्ध कौशल एवं अनूठी शासन व्यवस्था से न केवल भारत के अस्तित्व एवं अस्मिता की रक्षा की बल्कि अपने कर्म, व्यवहार, सूझबूझ, स्वतंत्र सोच और बलिदान से विश्व में आदर्श प्रस्तुत किया है। भारतीय इतिहास ऐसी महिला वीरांगनाओं की गाथाओं से भरा हैं। लेकिन उनमें से केवल रानी दुर्गावती ऐसी विलक्षण, साहसी एवं कर्मयोद्धा साम्राज्ञी हैं जिन्हें उनके बलिदान, स्वाभिमान और वीरता के साथ गोंडवाना के एक कुशल शासक के तौर पर याद किया जाता है। 24 जून को देश उनका बलिदान दिवस मनाता है जब उन्होंने मुगलों के आगे हार स्वीकार नहीं करते हुए आखिरी दम तक मुगल सेना का सामना किया और उसकी हसरतों को कभी पूरा नहीं होने दिया। महारानी दुर्गावती ने 1564 में मुगल सम्राट अकबर के सेनापति आसफ़ खान से लड़कर युद्ध-भूमि में अपनी जान गंवाने से पहले पंद्रह वर्षों तक कुशल एवं प्रभावी शासन किया था।
रानी दुर्गावती का जन्म सन् 1524 में दुर्गाष्टमी पर होने के कारण ही उनका नाम दुर्गावती रखा गया। नाम के अनुरूप ही अपने तेज, साहस, शौर्य और सुंदरता के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गई। उनका राज्य गोंडवाना में था। महारानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। दुर्गावती को बचपन से ही तीरंदाजी, तलवारबाजी का बहुत शौक था। इनकी रूचि विशेष रूप से शेर व चीते का शिकार करने में थी। इन्हें बन्दूक का भी अच्छा खासा अभ्यास था। इन्हें वीरतापूर्ण और साहस से भरी कहानी सुनने और पढ़ने का भी बहुत शौक था। रानी ने बचपन में घुड़सवारी भी सीखी थी। रानी अपने पिता के साथ ज्यादा वक्त गुजारती थी, उनके साथ वे शिकार में भी जाती और साथ ही उन्होंने अपने पिता से राज्य के कार्य भी सीख लिए थे, और बाद में वे अपने पिता का उनके काम में हाथ भी बटाती थी। उनके पिता को भी अपनी पुत्री पर गर्व था क्योंकि रानी सर्वगुण सम्पन्न, सौन्दर्य एवं शौर्य की अद्भुत मिसाल थीं। इस तरह उनका शुरूआती जीवन बहुत ही अच्छा बीता और प्रेरणादायी था।
राजा संग्राम शाह के पुत्र दलपत शाह से उनका विवाह हुआ था। दुर्भाग्यवश विवाह के 4 वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती का पुत्र नारायण मात्र 3 वर्ष का ही था अतः रानी ने स्वयं ही गढ़मंडला का शासन संभाल लिया। गोंड वंशजों के 4 राज्यों, गढ़मंडला, देवगढ़, चंदा और खेरला में से गढ़मंडला पर उनका अधिकार था। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केंद्र था। दुर्गावती बड़ी वीर एवं साहसी थी। उसे कभी पता चल जाता था कि अमुक स्थान पर शेर दिखाई दिया है, तो वह शस्त्र उठा तुरंत शेर का शिकार करने चल देती और जब तक उसे मार नहीं लेती, पानी भी नहीं पीती थीं। दुर्गावती के वीरतापूर्ण चरित्र को भारतीय इतिहास से इसलिए काटकर रखा गया, क्योंकि उन्होंने मुस्लिम शासकों के विरुद्ध कड़ा संघर्ष किया था और उनको अनेक बार पराजित किया था।
अकबर के कडा मानिकपुर के सूबेदार ख्वाजा अब्दुल मजीद खां ने रानी दुर्गावती के विरुद्ध अकबर को उकसाया था। रानी दुर्गावती बेहद खूबसूरत थीं और यही अकबर की सबसे बड़ी कमजोरी थी। अकबर अन्य राजपूत घरानों की विधवाओं की तरह दुर्गावती को भी रनवासे की शोभा बनाना चाहता था। बताया जाता है कि अकबर ने उन्हें एक सोने का पिंजरा भेजकर कहा था कि रानियों को महल के अंदर ही सीमित रहना चाहिए, लेकिन दुर्गावती ने ऐसा जवाब दिया कि अकबर तिलमिला उठा। लेकिन धन्य है रानी दुर्गावती का पराक्रम कि उसने अकबर के जुल्म के आगे झुकने से इंकार कर स्वतंत्रता और अस्मिता के लिए युद्ध भूमि को चुना और अनेक बार शत्रुओं को पराजित किया। अन्तिम युद्ध के दिन सुबह असफ़ खान ने बड़ी-बड़ी तोपों को तैनात किया था। इस युद्ध के समय दुर्गावती की सैन्य-शक्ति काफी कम हो गयी थी, फिर भी रानी दुर्गावती अपने हाथी सरमन पर सवार होकर लड़ाई के लिए आईं। उनका बेटा वीर नारायण भी इस लड़ाई में शामिल हुआ।
रानी ने मुगल सेना को तीन बार वापस लौटने पर मजबूर किया, किन्तु इस बार वे घायल हो चुकी थीं और एक सुरक्षित जगह पर जा पहुँचीं। इस लड़ाई में उनके बेटे वीर नारायण गंभीरता से घायल हो चुके थे, तब भी रानी ने विचलित न होते हुए अपने सैनिकों से नारायण को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने को कहा, और वे फिर से युद्ध करने लगी। एक बहादुर रानी जो मुगलों की ताकत को जानते हुए एक बार भी युद्ध करने से पीछे नहीं हठी और अंतिम साँस तक दुश्मनों के खिलाफ लड़ाई लडती रहीं। यह युद्ध उन्होंने वीरता एवं साहस से लड़ा, युद्ध के दौरान पहले एक तीर उनकी भुजा में लगा, रानी ने उसे निकाल फेंका। दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया, रानी ने इसे भी निकाला पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी। इसके बाद तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया। अंत समय निकट जानकर रानी ने वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे, पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अतः रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं। यह ऐतिहासिक युद्ध- भारत इतिहास की एक अमरगाथा है। यह युद्ध भूमि जबलपुर के पास है, उस स्थान का नाम बरेला है। मंडला रोड पर स्थित रानी की समाधि बनी है, जहां गोण्ड जनजाति के लोग अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। रानी के ही नाम पर जबलपुर में स्थित एक विश्वविद्यालय का नाम रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय रखा गया है। इसके अलावा पुरे बुंदेलखंड में रानी दुगावती कीर्ति स्तम्भ, रानी दुर्गावती संग्रहालय एवं मेमोरियल और रानी दुगावती अभयारण्य हैं। भारत सरकार ने रानी दुर्गावती को श्रद्धांजलि अर्पित करने हेतु 24 जून सन् 1988 में बलिदान दिवस पर एक डाक टिकिट जारी की।
रानी दुर्गावती की मृत्यु के पश्चात उनका देवर चंद्रशाह शासक बना व उसने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली। सूबेदार बाजबहादुर ने भी रानी दुर्गावती पर बुरी नजर डाली थी लेकिन उसको मुंह की खानी पड़ी। दूसरी बार के युद्ध में दुर्गावती ने उसकी पूरी सेना का सफाया कर दिया और फिर वह कभी पलटकर नहीं आया। वीरांगना महारानी दुर्गावती साक्षात दुर्गा थी। महारानी ने 16 वर्ष तक राज संभाला। इस दौरान उन्होंने अनेक मंदिर, मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाईं। उन्होंने जहां हिंदू धर्म एवं संस्कृति को प्रभावित किया वहीं उन्होंने संस्कृति, समाज और सभ्यता को नया मोड़ दिया है। भारतीय इतिहास में उनके योगदान को कभी भी भूला नहीं जा सकता। इतिहास गवाह है कि रानी दुर्गावती ने अपनी बहादुरी और साहस का प्रयोग कर स्वतंत्र पहचान कायम की।
रानी दुर्गावती ने एक कुशल प्रशासक एवं साम्राज्ञी की छवि निर्मित की। उन्होंने महिलाओं पर हो रहे अत्याचार, शोषण एवं उत्पीड़न के खिलाफ वातावरण बनाया जिससे उनके पराक्रम और शौर्य के चर्चे सर्वत्र सुनाई देते थे। समाज में महिलाओं की स्थिति मध्ययुगीन काल के दौरान बहुत ही त्रासद एवं यौन शोषण की शिकार थी। उस समय भारत के कुछ समुदायों में सती प्रथा, बाल विवाह और विधवा पुनर्विवाह पर रोक, सामाजिक जिंदगी का एक हिस्सा बन गयी थी। भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों की जीत ने परदा प्रथा को भारतीय समाज में ला दिया। राजस्थान के राजपूतों में जौहर की प्रथा थी। भारत के कुछ हिस्सों में देवदासियां या मंदिर की महिलाओं को यौन शोषण का शिकार होना पड़ा था। बहुविवाह की प्रथा हिन्दू क्षत्रिय शासकों में व्यापक रूप से प्रचलित थी। इन सब स्थितियों से महिलाओं को मुक्ति दिलाने में दुर्गावती का महत्वपूर्ण योगदान रहा।