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कविता

ढीला दुश्मन हो गया, देख हिंद के रंग।

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पाप पुण्य दो बीज हैं, काया खेत समान।
जैसा बोया वैसा मिले, जाग अरे इंसान।।
जाग अरे इंसान, जगत के बंधन कर ढीले।
जितने फाड़े दिल लोगों के योगपूर्वक सी ले।।
समय निकल जा हाथों से फेर नहीं कुछ होगा।
खड़ा – खड़ा ही रोएगा जब दुनिया देगी धोखा।।

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रब को मैं ना पा सका , समझ रहा था दूर।
हिय की जब खुल गईं पा लिया उसका नूर।।
पा लिया उसका नूर, विषय ना मुझको भाते।
जबसे छोड़ा खेत कपट का , भौरे गीत सुनाते।।
पाक साफ दामन को कर ले जग से चलना होगा।
निकल भ्रम से मनवा प्यारे ,प्रभु से मिलना होगा।।

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देख अडाणी रो रहा, रच गई माया खेल।
समझ में जल्दी आ गया, अर्श-फर्श का मेल।।
अर्श-फर्श का मेल, दुनिया धक्के खा रही।
उल्टे करती कर्म तो फल भी उल्टे पा रही।।
नहीं समझते लोग जब तक ना धक्के खा लें।
चलो अडाणी छोड़ जगत को गीत प्रभु के गा लें।।

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ढीला दुश्मन हो गया, देख हिंद के रंग।
कहां से मोदी आ गया, करता मुझको तंग।।
करता मुझको तंग, पड़े रोटी के लाले।
नहीं दीखते साथ , जितने विषधर पाले।।
बिरादराना भाई मेरे , सारे झूठे निकले।
दे गए दगा मुझको ,सारे बन गए हकले ।।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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