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कविता

नारी पुरुष का मेल है, मधुर प्रेम संगीत।

कुंडलियां

डॉ राकेश कुमार आर्य

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धर्म अकारथ कर रहे ‘धर्म’ के कारण लोग।
दानव पूजे जा रहे, अधरम से कर योग।।
अधरम से कर योग, मजहब मौज मनावे।
खून बहाता मानव का दानव से राज करावे।।
जब तक है ये खेल जगत में नहीं मिलेगा चैन।
समय निकाल भजो प्रभु को भगते क्यों दिन रैन?

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नारी पुरुष का मेल है, मधुर प्रेम संगीत।
संसार का सिरजनहार है भीतर बैठा मीत।।
भीतर बैठा मीत, नजर कभी ना आवे।
हृदय में हृदय बस रहा कोई समझ ना पावे।।
खेल मिचौनी कर रहा व्याकुल जग के लोग।
छोड़ झमेला जग का बंदे कर भगवन से योग।।

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जग नदिया बन बह रहा कैसे पकडूं ठौर?
छोर नजर आता नहीं , दु:खी है मन का मोर।।
दु:खी है मन का मोर, हंस कहीं रुदन मचावे।
दलदल में रथ फंसा , जगत भी हाथ हिलावे।।
कई जन्म के शुभ कर्मों से मानव चोला मिलता है।
धर्म की संगत पाने से कमल मानस का खिलता है।।

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दहेज का दानव दिल बसा , दिल में आया खोट।
दिल ही दानव हो गया, दिल पर करता चोट।।
दिल पर करता चोट , कभी ना कहना माने ।
चाहे रस्ता ठीक बताओ, पर यह उल्टा जाने।।
अपने घर में भी बेटी है पर बहू न बेटी लगती।
क्यों न सीधी चाल जगत की हमको सीधी लगती?

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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