गुरु की टांग
सहदेव समर्पित
*आपने भी गुरु और दो मूर्ख शिष्यों की वह कथा सुनी होगी जब वे दोनों गुरु के पैर दबा रहे थे। दोनों ने एक एक टांग बांट ली। गुरु जी ने एक टांग दूसरी के ऊपर रखी तो दूसरी टांग के मालिक शिष्य की भावनायें भड़क गईं। उसने दूसरी टांग को उठाकर पटक दिया। पहले वाले को यह अपने मौलिक अधिकारों का हनन लगा और उसने पास में रखा हुआ डंडा उठाकर दूसरी टांग पर दे मारा। फिर तो दोनों मूर्ख गुरु की दोनों टांगों को ताबड़तोड़ पीटने लगे और गुरु जी चीखने लगे। किसी तरह दोनों को रोक कर गुरु जी ने कहा- अरे मूर्खो! ये दोनों टांगें मेरी ही हैं, जिनको तुम पीट रहे हो।
*ठीक कुछ ऐसी ही स्थिति आज देश की दिखाई दे रही है। देश में असहमति के गिरते हुए स्तर का खुलकर प्रदर्शन हो रहा है। और इसका शिकार हो रही हैं उन महापुरुषों की मूर्तियाँ, जिनके कार्यों से प्रेरणा लेने के लिये और स्मृतियों को स्थिर करने के लिये कुछ समझदार लोगों ने लगवाया होगा। इससे हानि तो अन्ततः देश के विचार और देश की भावना की ही हो रही है। मूर्ति टूटने से न तो कोई आदमी मरता है और न उसका विचार मरता है। पर यह तो एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिये मूर्तियों को माध्यम बनाया जा रहा है। यह वैसी ही स्थिति है जैसे दो मूर्ख शिष्य अपने गुरु की दोनों टांगों को पीट रहे हों।
*महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा का खण्डन किया। बहुत से लोगों ने इसका अर्थ समझा। मूर्ति पूजा के खण्डन का अर्थ है सर्वव्यापक ईश्वर के स्थान पर उसकी मूर्ति बनाना और उसको ईश्वर समझकर व्यवहार करना। सर्वज्ञ चेतन ईश्वर के स्थान पर जड़ वस्तुओं की पूजा करना। इसके लिए उन्होंने शास्त्रीय प्रमाण और युक्तियाँ दीं। लेकिन वे मूर्तियाँ तोड़ने के पक्षधर नहीं थे। एक स्थान पर उनके श्रद्धालु एक मुस्लिम अधिकारी ने मार्ग के निर्माण में आड़े आने वाली मढ़िया के बारे में कहा- महाराज कहें तो इसको तुड़वा दूँ? उन्होंने कहा- नहीं, मैं इनको तुड़वाने के पक्ष में नहीं हूँ? मैं जड़ पूजा को लोगों के हृदय से निकालना चाहता हूँ। मूर्ति संबंधी स्वामी दयानन्द का सन्दर्भ धार्मिक क्षेत्र से था। यह जड़ पूजा लोगों के हृदय से तो निकली नहीं, बल्कि इसका कथित राजनीति में संक्रमण हो गया। जिसकी मूर्ति का कद जितना बड़ा, वह उतना ही बड़ा महापुरुष! उसकी विद्या, ज्ञान, समर्पण, त्याग और बलिदान का कोई मूल्य नहीं!
*ईश्वर के स्थान पर काल्पनिक मूर्ति की पूजा और किसी व्यक्ति के स्थान पर उसकी मूर्ति की पूजा, इनमें क्या अन्तर है? मूर्तिपूजा के मिस श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ परम्पराओं का घोर विरोध करने वाले विचारक भी घोर मूर्तिपूजक हो गए? लेनिन भी यहाँ खड़ा था, यह देशवासियों को अभी पता चला। लेनिन के प्रभाव में आकर भगतसिंह को नास्तिक बताने वाले एक मित्र बता रहे थे कि वे लोग 35 लाख रूपये की लागत से भगतसिंह की सबसे ऊँची मूर्ति बना रहे हैं।
*आज गुरु की टांग की हालत पहले से ज्यादा खराब है। यह एक बहुत शर्मनाक स्थिति है कि हमने देश के निर्माताओं को मूर्तियों, जातियों, मजहबों में बांट लिया है। बांटना भी कोई बढ़िया बात नहीं है। पर शर्म की बात तो यह है कि दूसरी टांग को पीटना शुरु कर दिया है। यदि देश के देवताओं की मूर्तियाँ बनती हों तो भारतवासियों के हृदय मन्दिर में भगतसिंह का स्थान बहुत ऊँचा है। उन्होंने कहा- भगतसिंह नास्तिक था? फिर भी भगतसिंह का स्थान कमतर नहीं हुआ। उन्होंने कहा- भगतसिंह लेनिनवादी था फिर भी लोग भगतसिंह की पूजा करते हैं। लेकिन जो भगतसिंह वीर सावरकर, चन्द्रशेखर आजाद और बिस्मिल को अपने कार्यों और लेखनी से सर्वदा सम्मान देते रहे, उनको कायर, देशद्रोही कहना, और उनके बलिदान को कमतर आंकना- गुरु की दूसरी टांग को पीटने के समान ही है। जिस आस्तिक देशभक्त लाला लाजपतराय के अपमान को भगतसिंह ने देश का अपमान समझा और उस अपमान का बदला लेने के लिये अपनी जान की बाजी लगाई उन आस्तिक देशभक्तों के बलिदान को कमतर आंकना क्या देशद्रोह से कम है?
*ये दोनों टांगें देश की ही हैं। पहले भी अलग अलग भगवान बने, अलग मूर्तियाँ मन्दिर बने। विघटन हुआ। एक दूसरे के राज्य और मन्दिर टूटते देख लोग तमाशा देखते रहे। देश गुलाम हुआ। आज भी वही स्थितियाँ बनती नजर आ रही हैं। क्षणिक स्वार्थों के कारण केवल दोनों टांगें दिखती हैं पूरा गुरु दिखता ही नहीं। इसी चक्कर में इतिहास बिगाड़ा जा रहा है, परम्परायें बिगाड़ीं जा रही हैं, इस देश की असल संस्कृति की तस्वीर बिगाड़ी जा रही है। हमारे आदर्शों पर लांछन लगाये जा रहे हैं। यह देश राम और कृष्ण का देश है, इस बात के सबूत मांगे जा रहे हैं। और सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि विश्व गुरु भारत माता चिल्ला भी नहीं पा रही है कि
अरे मूर्खो! ये दोनों टांगंे मेरी ही हैं।