गीता प्रेस और गांधीजी का पुराना नाता रहा है
ललित गर्ग
आजादी के अमृतकाल में स्व-संस्कृति, स्व-पहचान एवं स्व-धरातल को सुदृढ़ता देने के अनेक अनूठे उपक्रम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार में हो रहे हैं, उन्हीं में एक है भारत सरकार द्वारा एक करोड़ रुपए का गांधी शांति पुरस्कार सौ साल से सनातन संस्कृति की संवाहक रही गीता प्रेस, गोरखपुर देने की घोषणा। 1800 पुस्तकों की अब तक 92 करोड़ से अधिक प्रतियां प्रकाशित करने वाले गीता प्रेस को इस पुरस्कार के लिये चुना जाना एक सराहनीय एवं सूझबूझभरा उपक्रम है। यह सम्मान मानवता के सामूहिक उत्थान, धर्म-संस्कृति के प्रचार-प्रसार, अहिंसक और अन्य गांधीवादी तरीकों से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की दिशा में उत्कृष्ट योगदान के लिए दिया गया है। लेकिन विडम्बना है कि ऐसे मानवतावादी उपक्रमों को भी राजनीतिक रंग दे दिया जाता है। हर मुद्दे को राजनीतिक रंग देने से राजनीतिक दलों और नेताओं को कितना फायदा या नुकसान होता है यह अलग बात है लेकिन सही बात तो यह है कि ऐसे विवादों का खमियाजा देश को जरूर उठाना पड़ता है।
ऐसा ही ताजा विवादित बयान कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने इस पुरस्कार को लेकर दिया है। रमेश ने कहा कि गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार देना गोडसे और सावरकर को सम्मान देने जैसा है। निश्चित ही यह तो उजालों पर कालिख पोतने के प्रयास है। ऐसे प्रयास अंधेरे सायों से प्यार करने वाले लोग ही कर सकते हैं। ऐसे लोगों की आंखों में किरणें आंज दी जायें तो भी वे यथार्थ को नहीं दे सकते। ऐसे राजनीतिक लोग आकाश में पैबंद लगाना चाहते हैं और सछिद्र नाव पर सवार होकर राजनीतिक सागर की यात्रा करना चाहते हैं। क्योंकि सब जानते हैं कि गीता प्रेस प्रतिदिन सत्तर हजार प्रतियां प्रकाशित कर घर-घर में धर्म-संस्कृति-राष्ट्रीयता का दीप जला रहा है। अपनी किताबों के माध्यम से समाज में संस्कार परोसने व चरित्र निर्माण का काम भी यह संस्था कर रही है। गीता प्रेस के कामकाज को लेकर आज तक कोई विवाद भी पैदा नहीं हुआ। ऐसी संस्था को लेकर जब यह बयान आता है तो यह भी सवाल उठता है कि क्या जयराम रमेश के इस बयान का कांग्रेस पार्टी समर्थन करती है? यह सवाल इसलिए भी क्योंकि जयराम रमेश कांग्रेस के जिम्मेदार नेता हैं और केन्द्र में मंत्री भी रह चुके हैं।
इस तरह के उद्देश्यहीन, उच्छृंखल एवं विध्वंसात्मक बयान सामाजिक समरसता एवं राष्ट्रीय एकता को कमजोर तो करते ही हैं, धर्म, आस्था और संस्कारों को बढ़ावा देने वाली संस्थाओं को हतोत्साहित भी करते हैं। वैसे भी हर धर्म व उससे जुड़ी संस्थाओं को अपने कामकाज के प्रचार-प्रसार का पूरा हक है। गीता प्रेस के बारे में देश के तमाम बड़े नेताओं और धर्मगुरुओं की राय सकारात्मक ही रही है। संस्था ने सकारात्मकता की एक ओर मिसाल पेश करते हुए किसी प्रकार का दान स्वीकार न करने के अपने सिद्धांत के तहत एक करोड़ रुपए की पुरस्कार राशि लेने से इंकार कर दिया है। साथ ही सरकार से अनुरोध किया है कि वह इस राशि को कहीं और खर्च करे।
गांव जलाने वाला और जलती आग से बचाने वाला- दोनों एक कैसे हो सकते हैं? गीता प्रेस पर दोषारोपण करने वाले एवं उसकी जिस तरह से अतिश्योक्तिपूर्ण तुलना की गयी है, वह आलोचक ही उच्छृंखलता एवं बुद्धिहीनता को दर्शाता है। गांव जलाने वाले और जलती आग से बचाने वाले को कोई मन्दबुद्धि व्यक्ति भी एक नहीं मान सकता। फिर गीता प्रेस जैसे सांस्कृतिक एवं धार्मिक अभियान के साथ इस विसंगतिपूर्ण आलोचना की बात सोचना ही विध्वंसात्मक सोच है। इस तरह की आलोचना राजनीतिक आग्रह, पूर्वाग्रह एवं दुराग्रह के साथ बुद्धि का दिवालियापन है। हर मामले को राजनीतिक रंग में डुबोने की ताक में रहना राजनेताओं की फितरत-सी बनती जा रही है। लोकतंत्रीय पद्धति में किसी भी विचार, कार्य, निर्णय और जीवनशैली की आलोचना पर प्रतिबंध नहीं है। किन्तु आलोचक का यह कर्तव्य है कि वह पूर्व पक्ष को सही रूप में समझकर ही उसे अपनी आलोचना की छेनी से तराशे। किसी भी तथ्य को गलत रूप में प्रस्तुत कर उसकी आक्षेपात्मक आलोचना करना उचित नहीं है। जिन दलों, लोगों एवं विचारधाराओं का उद्देश्य ही निन्दा करने का हो, उनकी समझ सही कैसे हो? जिसका काम ही किसी अच्छे काम या मन्तव्य को जलील करने का हो, वह सत्य का आईना लेकर क्यों चलेगा?
गीता प्रेस के सौ वर्षों का स्वर्णिम दौर एवं संस्कृति-निर्माण के कार्य कोई कांच का नाजुक घर नहीं है कि आलोचना की बौछार से किरचें-किरचें होकर बिखर जाये। उसने जो संस्कार निर्माण एवं संस्कृति जागरण के सत्य को उजागर किया, वह शताब्दी पहले जितना सत्य था, आज भी उतना ही सत्य है। बल्कि नई परिस्थितियों के साथ उसकी उपयोगिता एवं प्रासंगिकता और अधिक बढ़ गयी है। उसकी दूरगामी निगाहों ने अपने युग के पार देखकर जिस सत्य को पकड़ा था, दुस्साहसी कालचक्र उसे किसी भी कोने से खण्डित नहीं कर पाया। उसने तो देश के घर-घर में धर्म की पताका लहराई है, सतातन सत्यों की एक ठोस जमीन दी है, काश! समग्र दृष्टि से विचार करते हुए तथाकथित राजनीतिक लोग इस सिलसिले का सम्मान कर पाते। राजनेताओं को राजनीतिक दलों की कार्यशैली या उनके कार्यक्रमों को लेकर आपत्ति हो सकती है, पर किसी भी निर्विवाद संस्था को बेवजह विवादों में घसीटना अशोभनीय ही कहा जाएगा। यह सही है कि आज के दौर में राजनीतिक दलों व नेताओं की रणनीति वोट बैंक की चिंता और सुर्खियां बटोरने की आतुरता के इर्द-गिर्द घूमती है। लेकिन राजनेताओं से यह तो अपेक्षा की जाती है कि वे बयान सोच-समझकर दें। बयान देकर फिर वापस ले लेने से भी जो नुकसान होता है उसकी भरपाई आसान नहीं होती। राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे अपने नेताओं के लिये बयानों में संयम बरतने की आचार-संहिता लागू करें।
गीता प्रेस की पत्रिका है कल्याण। कल्याण की लोकप्रियता का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि अब तक इस पत्रिका के कई विशेषांकों (पहले अंक) के पाठकों की मांग पर अनेक संस्करण प्रकाशित करने पड़े। चाहे जैसी स्थितियां आईं, कल्याण अपने लक्ष्य, संकल्प व दायित्वबोध के प्रति पूरी तरह सजग रही। भारत बंटवारे का विरोध किया तो जरूरत पड़ने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू व राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का भी मार्गदर्शन किया। भाईजी हनुमान प्रसाद पोद्दार द्वारा कल्याण के रूप में रोपा गया पौधा आज वटवृक्ष बन चुका है। लोगों का धर्म-संस्कृति के क्षेत्र में मार्गदर्शन कर रहा है। भाईजी व गांधीजी के बीच प्रेमपूर्ण संबंध थे। ‘कल्याण’ का पहला अंक 1926 में प्रकाशित हुआ था, इसमें गांधीजी का लेख भी छपा था। भाईजी यह अंक गांधीजी को भेंट करने गए थे। उन्होंने न सिर्फ कल्याण की प्रशंसा की, बल्कि यह आग्रह भी किया था कि कल्याण या गीता प्रेस से प्रकाशित होने वाली किसी पुस्तक में बाहरी विज्ञापन न प्रकाशित किया जाए, इससे कल्याण व पुस्तकों की शुचिता बनी रहेगी। इसका पालन आज भी गीता प्रेस करता है। कल्याण के विभिन्न अंकों में गांधीजी के लेख छपते रहे। आज भी गांधीजी द्वारा लिखा गया पत्र गीता प्रेस में सुरक्षित रखा गया है। गांधीजी के जीवन पर इस पत्रिका का अनूठा प्रभाव रहा है और उन्हीं के नाम पर दिये जाने वाले पुरस्कार के लिये गीता प्रेस से अधिक उपयुक्त पात्र कोई और हो नहीं सकता, यह बात जयराम रमेश को भलीभांति समझ लेनी चाहिए। सस्ती राजनीतिक वाह-वाही के लिये ऐसे बयानों से जयराम रमेश ने अपनी ही पार्टी एवं उसकी ऐतिहासिक विरासत को आहत किया है।