आज 21 जून है।
आज के दिन उत्तरी गोलार्ध में पृथ्वी की गति के कारण सूर्य का प्रकाश अधिकतम समय के लिए पृथ्वी पर पड़ेगा ।इसलिए यह उत्तरी गोलार्ध का सबसे बड़ा दिन होगा।
भारतवर्ष के लिए यह सबसे बड़ा एवं महत्वपूर्ण दिन है क्योंकि इसका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योग दिवस के रूप में हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा 2015 में स्थापित किया गया है, जब सारे विश्व के170 से अधिक देशों ने भारतवर्ष के तत्संबंधी प्रस्ताव को संयुक्त राष्ट्र में पारित करके स्वीकार किया था।
वैश्विक स्तर पर संपूर्ण मानवता को भारतवर्ष का यह श्रेष्ठतम एवं महत्वपूर्ण उपहार है।
वास्तव में योग वैदिक धर्म, वैदिक संस्कृति के जीवन दृष्टि का शोध एवं बोध है।
दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि योग संपूर्ण स्वास्थ्य का विज्ञान होने के साथ-साथ ईश्वर से मिलने का भी एक साधन है। योग से मन स्वस्थ होता है। शरीर स्वस्थ होता है । जीवन में आनंद की अनुभूति होती है। इसलिए योग इन सब का आधार है। क्योंकि नित्य प्रति निरंतर योग अभ्यास करने से उपरोक्त गुण स्वत: प्राप्त हो जाते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि योग में विज्ञान और दर्शन दोनों का समन्वय है।
वैदिक चिंतन में मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग और वेदांत दर्शन हैं।
यहां यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि योग किसी प्रकार का कर्मकांड नहीं है। बल्कि योग वैदिक काल में दर्शन के साथ ईश्वर मिलन के लिए तैयार किया गया था। क्योंकि आत्मा और परमात्मा दोनों चेतन है। आत्मा अल्पज्ञ है। आत्मा के पास अनंत आनंद नहीं है। आनंद का स्रोत केवल परमात्मा है। इसलिए आत्मा ईश्वर से योग करना अर्थात जुड़ना चाहती है। जिससे आत्मा को भी अनंत आनंद की प्राप्ति ईश्वर से होती रहे । उदाहरण के लिए मोक्ष में जाकर आत्मा को परमात्मा की चौबीस शक्तियां प्राप्त होती हैं और वह उन शक्तियों से आनंद का अनुभव प्राप्त करता है।
युज धातु से योग शब्द की उत्पत्ति है ।जिसका अर्थ है, मिलना जुलना।
जिस की परिभाषा निम्न प्रकार की गई है
युज्यते असौ योग:
अर्थात जो मिलाता है उसे योग कहते हैं।
योग दर्शन के भाष्य कार महर्षि व्यास ने योग को ‘योगस्समाधि’ अर्थात योग को समाधि बतलाया।
जिसका अर्थ है कि जीवात्मा इस उपलब्ध असंप्रज्ञात समाधि के द्वारा सच्चिदानंद स्वरूप ब्रह्म का साक्षात करें, उससे मिलन करें।
योग को परिभाषित करते हुए कर्म योगी महाराज श्री कृष्ण ने भगवत गीता में “योग: कर्मसु कौशलम” कहकर कर्म में कुशलता और दक्षता को ही योग बताया है।
लेकिन योग मुकुट मणि पतंजलि ऋषि ने योग की परिभाषा “योगश्चित वृत्ति निरोध :” कहा है। अर्थात योग चित्त की वृत्तियों के निरोध कर देने का या रोक देने का नाम है।
साधारण शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि,
हमारे चित में भिन्न भिन्न प्रकार की वृत्तियां दुष्प्रवृत्तियों एवं सद प्रवृतियां )उठा करती हैं उन में से दुष्प्रवृत्तियों को रोक देना चाहिए। इसी का नाम योग है। सद प्रवृत्तियों को चित् से उठाना चाहिए।
क्योंकि चित् की दुष्प्रवृतियां (विकृतियों) से मानव के शरीर की ऊर्जा बहिर्मुखी हो जाती हैं। अर्थात बाहर की तरफ संसार में निकलती है। जबकि मानव की वृत्तियां अंतर्मुखी होनी चाहिए। यह सब योग से संभव है । व्रतियों के अंतर्मुखी होने से विकास का आधार बनता है।
जो नियंत्रित होकर व्यक्ति को मूल चेतना से जोड़ती है। ऐसा बिना मन के नियंत्रण के संभव नहीं हो पाता है। पहले मन अर्थात चित् को नियंत्रित करना जरूरी होता है तभी योग संभव है।
चित्त की वृत्तियां ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण बनती है। योग के कारण ही कोई भी कर्म आसक्ति रहित होकर निष्काम भाव से किए जा सकते हैं अर्थात सत अभ्यास से उच्च मनोदशा को प्राप्त जो मनुष्य अनासक्त भाव से अपने सभी कर्म ईश्वर को समर्पित कर देता है वही योगी है ,क्योंकि ईश्वर को अर्पण करने वाला व्यक्ति दुष्कृत्य नहीं कर सकता, पाप नहीं कर सकता। उसे सांसारिक प्रपंच मे आसक्ति भी नहीं रहती। इस प्रकार ईश्वर को समर्पित कर्मयज्ञ की पावन आहुतियां बन जाती है। समत्व बुद्धि को प्राप्त मानव कर्ताभिमान से मुक्त होकर परम योगी बन जाता है।
जब बहिर्मुखी वृत्तियों बंद होती है तो अंतर्मुखी वृत्ति स्वयमेव अपना काम करने लगती है।
चित् की वृत्तियां राग, द्वेष सुख और दुख आदि के कारण चित् में उठती रहती हैं ।जिनको दूर करना आवश्यक होता है।
इस प्रकार योग आत्मा व परमात्मा का विषय है । योग मानव को स्वानुभूति कराता है।योग मानव के विचारों को एकाग्र कर भौतिक से सूक्ष्म और सूक्ष्म से अति सूक्ष्म की ओर ले जाकर उसको आत्मीय बोध कराता है ।योग का संबंध अंतः करण और बाह्य दोनों से है। योग मानव को ईह लौकिक और पारलौकिक दोनों की यात्रा कराता है। योग शरीर मन और इंद्रियों की क्रिया है। एकमात्र योग ही ऐसी क्रिया है जो मन को वश में करने का मार्ग बताती है। एक आत्मा को योग जन्म से ही प्राप्त है। आसन एवं प्राणायाम जो हम करते हैं वे योग नहीं है। यह तो योग की बहिर्मुखी क्रिया है। इसी बहिर्मुखी क्रिया को लोगों ने योग समझ लिया है ,जबकि इसका ईश्वर मिलन से कोई तात्पर्य नहीं है। बल्कि जो लोग योग के नाम पर व्यायाम और प्राणायाम को योग (अंग्रेजों की नकल करने वाले योगा) कहते हैं ऐसे लोग अविद्या का प्रचार प्रसार करते हैं। अविद्या का प्रचार प्रसार करने वाले लोग पाप के भागी होते हैं। यह अधर्म है ।जो वर्तमान काल में अधिकतर देखा जाता है।
योग तो एक विज्ञान है। योग जीवन जीने की विधि भी है। यौगिक व्यवस्थित नियम को प्रतिपादित करता है। योग अनुशासन को प्रदर्शित करता है। योग मन को उद्देश्य पूर्ण दिशा में चलने का बोध देता रहता है ।योग एक प्रयोग भी है ,क्योंकि यही मनुष्य को प्रकृति के अनुकूल चलने के लिए प्रेरित करता है ।योग विचार गति है। भाव उत्पत्ति है। शब्द की अभिव्यक्ति है। योग में सबका अपना महत्वपूर्ण योगदान है ।यह पूरी तरह शरीर के धर्म का प्रकृति का बोध कराता है।
क्योंकि मानव के शरीर में ही संपूर्ण ब्रह्मांड का वैभव छिपा है। जिस को पहचानने और जानने के लिए योग आवश्यक है। ब्रह्मांड की चेतना और प्रारूप को भी योग के द्वारा ही मनुष्य प्राप्त कर सकता है। आकाश और घटाकाश का भेद मनुष्य योग के द्वारा कर सकता है। ब्रह्म और काया का मनुष्य विमोचन कर पाता है।
योग की उपयोगिता केवल आध्यात्मिक संदर्भ में ही नहीं है ।
इसीलिए तो योग के आठ अंग मनुष्य के दैनिक जीवन में भी उपयोगी है।
योग दर्शन ईश्वर ,जीव और प्रकृति तीनों की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है। इनमें से जीव है जिसके कर्तत्व में सहायता देने के लिए दर्शन की रचना हुई।
हमारे ऋषियों के द्वारा योग की व्यवस्था की गई।
प्राचीन भारत में विज्ञान दर्शन की अनेक उपलब्धियां हमारे आर्ष साहित्य से प्राप्त हो जाएंगी।
यह योग ही है जो केवल विश्व को “कृण्वंतो विश्वमार्यम्” अर्थात श्रेष्ठतम संसार बनाने का, तथा “मनुर्भव”, अर्थात मनुष्य बनाने का सिद्धांत प्रदान करता है।
यह योग ही है जो” सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया” के सिद्धांत को सिखाता है। क्योंकि योग से सबके सुखी होने और निरोग होने की परिकल्पना की गई है। इसमें किसी जाति विशेष अथवा धर्म विशेष अथवा क्षेत्र विशेष के लोगों को विभाजित नहीं किया गया और ना ही किसी प्रकार का भेदभाव किया गया। बल्कि यह समष्टि के लिए है ।संपूर्ण सृष्टि के लिए है।
यही वैदिक संस्कृति की उच्चता एवं श्रेष्ठता है कि वह भेदभाव नहीं करती। बल्कि मनुष्य मात्र के लिए, प्राणी मात्र के कल्याण के लिए कार्य करती एवं शिक्षा देती है।
यम ,नियम, आसन, प्राणायाम ,प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि योग के आठ अंग हैं। अब प्रश्न उठता है कि
योग दर्शन में चित्त की वृत्तियों के निरोध का जो विधान किया गया है वह क्यों किया गया है?
योग के आठ अंग।
जब तक चित एकाग्र रहता है तब तक चित् की वृत्तियांअपने काम में लगी रहती हैं, तथा आत्मा की बहिर्मुखी वृत्ति में ही काम करती रहती हैं। चित् की एकाग्रता से आत्मा की बहिर्मुखी वृत्ति जागृत होती है ,लेकिन जब बहिर्मुखी वृत्ति को भी बंद कर दिया जाता है तब अंतर्मुखी वृत्ति स्वमेव जागृत होकर अपना काम करने लगती है।
अब प्रश्न उठा कि चित् की बहिर्मुखी वृत्तियां कौन-कौन सी हैं जिनको निरोध करना चाहिए।
1 प्रमाण अर्थात प्रत्यक्ष अनुमान और आगम, आप्तोपदेश,
2 विपर्यय अर्थात मिथ्याज्ञान,
3 विकल्प __अर्थात वस्तु शून्य कल्पित नाम ,
4 निद्रा___ अर्थात सोना,
5 स्मृति ___अर्थात पूर्व में सुना गया और देखे गए पदार्थ के स्मरण चित् में आना।
उपरोक्त
पांच बहिर्मुखी वृत्तियोँ चित् की होती हैं।
अब प्रश्न पैदा होता है कि चित् को एकाग्र कैसे किया जा सकता है?
योग दर्शन में इसके लिए निम्न आठ अंगों का विधान किया गया है।
1 यम।
अपने चारों ओर शांति का वातावरण उत्पन्न करना यम है।
यम को भी 5 उपांगों में विभक्त कर सकते हैं। जिनके अपने जीवन में धारण करने से, अपनाने से शांति का वातावरण अपने चारों ओर उत्पन्न होता है। एक मनुष्य को सबसे पहले इसी सीढ़ी पर चलना होता है। प्रभात यह योग की प्रथम सीढ़ी है।
1अहिंसा,2 सत्य ,3अस्तेयं,
4 ब्रह्मचर्य ,5 अपरिग्रह ।
अब इन पांच उपांगो को भी जान लेते हैं।
अहिंसा _मन, वचन और कर्म तीनों से किसी भी प्राणी को कष्ट न देना अहिंसा है।
सत्य _मन, वचन और कर्म तीनों से सत्य में प्रतिष्ठित होना सत्य है।
अस्तेयम
मन वचन और कर्म तीनों से चोरी न करना अस्तेयं है।
ब्रह्मचर्य शरीर में रज -वीर्य की रक्षा करते हुए लोकोपकारक विद्याओं को ग्रहण करना । “मातृवत पर्दारेसु “की भावना में रहना ब्रह्मचर्य है।
अपरिग्रह __धन के संग्रह करने, रखने,खोए जाने तीनों ही अवस्था दुखदाई हैं इसलिए धन की इच्छा न करना अपरिग्रह कहा जाता है।
2 नियम
अपने कर्म फल में दुखी नहीं होना पड़े इसलिए इन निम्नलिखित 5 बातों का भी पालन करना चाहिए जो’ नियम’ के उपांग हैं।
शौच -बाह्य और आंतरिक शुद्धि रखना शौच है। अपने एवं दूसरे के शरीर को मल मूत्र का समझना शौच है।
संतोष -पुरुषार्थ से जो प्राप्त है उससे अधिक की इच्छा ना रखना संतोष है।
तप -शीतोष्ण, सुख-दुख आदि को एक जैसा समझना और नियमित जीवन व्यतीत करना तप कहलाता है।
ईश्वर प्राणिधान या ईश्वर परायणता ___ओंकार का श्रद्धापूर्वक जप करना और वेद उपनिषद आदि उद्देश्य साधक ग्रंथों का निरंतर अध्ययन करना स्वाध्याय है। उपरोक्त के अतिरिक्त
ईश्वर का प्रेम ह्रदय में रखना, उसको ही अत्यंत प्रिय एवं परम गुरु ,राजा, आचार्य एवं न्यायाधीश समझना, अपने समस्त कर्मों का उसके अर्पण करना, सदैव उसी के ध्यान में रहना ही ईश्वर प्राणि धान अर्थात ईश्वर परायणता है।
3 आसन
सुख पूर्वक बैठने को आसन कहते हैं।
4—- प्राणायाम।
प्रकाश अर्थात ज्ञान पर तम अर्थात अंधकार के आवरण को दूर करने की विधि को प्राणायाम कहते हैं।
एक नाक से सांस लेकर दूसरी नाक से निकाल देने का नाम प्राणायाम नहीं है। जो ऐसा कहते हैं अथवा सिखाते हैं वह अविद्या का प्रचार प्रसार करते हैं। आज 21 जून के दिन मात्र इतना ही लोग करेंगे अर्थात योग के वास्तविक अर्थ को जीवन में नहीं उतार पाएंगे, जबकि उतारना चाहिए।
5 प्रत्याहार ।
इंद्रियों का अपने विषय से पृथक हो जाना, रूप, रस, गंध ,शब्द और स्पर्श से पृथक हो जाना प्रत्याहार कहा जाता है। प्रत्याहार आत्मीय शक्ति को एकत्रीकरण करना है ।
प्रत्याहार किसी वस्तु को पीछे हटने के लिए भी कहते हैं। जिसमें इंद्रियां अपने विषयों से पीछे हट जाती हैं ।इसमें चित् के मौलिक पावन स्वरूप का योगी को अनुकरण सा होने लगता है।
6 धारणा ।
चित् को किसी एक केंद्र पर केंद्रित करना जैसे नासिका के अग्रभाग पर या नाभि चक्र पर ध्यान केंद्रित करना जिसमें मन एकाग्र हो जाता है, उसको धारणा कहते हैं।
7 __ध्यान ।
उस धारणा में प्रत्यय अर्थात ज्ञान का एक सा बना रहना ध्यान है ।जिस लक्ष्य पर चित्त एकाग्र हुआ उस एकाग्रता का ज्ञान निरंतर बने रहना ध्यान ,निर्विषय मन अर्थात महामुनि कपिल के अनुसार मन निर्विषय होने का नाम ध्यान है।
8 समाधि ।
ध्यान की अवस्था में ध्याता को ध्यान और ध्येय का ज्ञान रहता है अर्थात जब वह ईश्वर के और अपने विषय में यह जानता होता है कि वह ईश्वर की भक्ति में है।परंतु जब ध्याता का घ्यान अर्थात् नाता केवल ध्येय से ही रह जाए (ध्याता, ध्येय, ध्यान में धाता का अर्थ है ध्यान करने वाला, साधना करने वाला साधक, ध्येय का अर्थ है जिसको ध्याया जाता है अर्थात साध्य या जिसको साधा जाता है वह परमात्मा, तथा ध्यान का अभिप्राय है साधना) जब साधक का संबंध केवल साध्य से ही रह जाए और अपने रूप से शून्य सा हो जाए तब समाधि की अवस्था होती है।
समाधि भी दो प्रकार की होती हैं ।
प्रथम _ सबीज समाधि या संप्रज्ञात समाधि ।
द्वितीय असंप्रज्ञात समाधि या निर्बीज समाधि।
सबीज समाधि में चित्त एकाग्र तो हो जाता है परंतु चित् की वृत्ति निरुद्ध नहीं होती । अर्थात सबीज समाधि में चित्त की वृत्तियों पर पूर्णतया पर रोक नहीं लगाई जाती।उसमें बीज रूप वृत्तियों का बना रहता है। इसका संधि विच्छेद करने के पश्चात अर्थ निम्न प्रकार आता है। पहले ज्ञात शब्द को जान लें।
ज्ञात अर्थात जाना पहचाना हुआ।
इससे पहले संप्र शब्द का अर्थ है संपूर्ण रूप से।
प्रभात अर्थात जिस स्थिति में संपूर्ण रूप से आत्मा को अपने चित्त की वृत्तियों का ज्ञानभाव रहता है
जबकि असंप्रज्ञात समाधि में चित्त की वृत्तियों का संपूर्ण निरोध हो जाता है । चित्र की भर्तियों की जानकारी योगी को नहीं रहती। इसी समाधि की बुद्धि (प्रज्ञा )को ऋतंभरा कहते हैं। ऋतंभरा की अवस्था में विषय _वासना के ज्ञान और ध्यान से ध्याता शून्य रहता है । अर्थात विषय- वासना का और अपने खुद का ध्यान नहीं रहता।तत्पश्चात ऋतंभरा को भी रोक देने पर सब रूप असंप्रज्ञात समाधि की सिद्धि होती है।
धारणा ,ध्यान और समाधि तीनों का जब एकीकरण होता है, तब संयम की स्थिति आती है।
संयम के सिद्ध होने से प्रज्ञा का आलोक अर्थात प्रकाश हो जाता है। ऋतंभरा प्रज्ञा से जो संस्कार उत्पन्न होते हैं वह उक्त प्रकार की दृष्टि से निरोधज होते हैं। निरोधज संस्कारों के बार-बार उत्पन्न होने से उनका निरोध करने से जब निरोधज संस्कार भी नष्ट हो जाता है, तब बीज रहित (अर्थात मन के निर्विषय होने या मन में जब किसी भी प्रकार के भाव रूपी बीज का अंकुरण न हो) हो जाने पर निर्बिज समाधि अर्थात असंप्रज्ञात समाधि की प्राप्ति होती है।
यह है संपूर्ण और समग्र आत्मिक सामाजिक ,राष्ट्र की ,सृष्टि की उन्नति की हमारे पूर्वजों की परिकल्पना एवं प्रक्रिया।
इसलिए प्राणायाम, आसन को योग न मानकर उससे आगे समाधि में पहुंचने की हमारी कोशिश होनी चाहिए।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत समाचार पत्र।