‘रेवड़ी संस्कृति’ और देश के राजनीतिक दल

देश में बढ़ती ‘रेवड़ी संस्कृति’ लोकतंत्र पर सीधा हमला है। जिन लोगों को इसका तात्कालिक लाभ मिल रहा है, वह हमारी बातों से चाहे सहमत ना हों, पर सच यही है कि ‘ रेवड़ी संस्कृति’ लोक कल्याणकारी राज्य की मान्यता को आघात पहुंचाती है। ‘रेवड़ी संस्कृति’ में देखने में तो ऐसा लगता है कि जैसे यह कमजोर तबकों को ऊंचा उठाने का सरकार का एक सराहनीय प्रयास है, पर सच यह होता है कि यह देश की श्रम शक्ति को क्षीण करने का राजनीतिक दलों द्वारा अपनाया जाने वाला एक सस्ता और देशघाती उपाय है। प्रत्येक राजनीतिक दल अपना वोट बैंक मजबूत करने के लिए ‘मुफ्त की रेवड़ियां’ बांटने के नाम पर देश के मतदाताओं को लोभ और लालच देता है, जिसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं माना जा सकता। देश के राजनीतिक दलों के द्वारा लोकतंत्र में मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करना अलग चीज है और उन्हें रिश्वत देना अलग चीज है। इन दोनों के अंतर को देश के सर्वोच्च न्यायालय को भी निश्चित रूप से स्पष्ट करना चाहिए।
प्रधानमंत्री श्री मोदी ने जुलाई 2022 में इस ओर संकेत करते हुए कहा था कि ‘देश के राजनीतिक दल लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या करके देश के मतदाताओं को ‘मुफ्त की रेवड़ियों’ के माध्यम से अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं।’ यद्यपि इस दौड़ में भाजपा भी पीछे नहीं है ,परंतु इसके उपरांत भी देश के जागरूक नागरिकों को इस ओर ध्यान देना चाहिए।
भाजपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्रों में देश के मतदाताओं को लुभाने के लिए ऐसे कई वायदे किए हैं जो ‘मुफ्त की रेवड़ियों’ के अंतर्गत ही आते हैं। मातृत्व देखभाल या वृद्धावस्था पेंशन , युवा उद्यमी और महिलाओं को कर में छूट, ब्याज मुक्त ऋण जैसी कुछ घोषणाएं इसी श्रेणी की हैं जो भाजपा अपने चुनावी घोषणा पत्र में 1999 से ही स्थान देती रही है। ऐसे में कहा जा सकता है कि सभी राजनीतिक दल हमाम में नंगे हैं। इन्हें केवल वोट चाहिए। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जब से देश के मजदूरों को मुफ्त अनाज या राशन मिलने लगा है तब से किसान को फसल की रोपाई, निराई ,गुड़ाई या कटाई के लिए मजदूर मिलना मुश्किल हो गया है । मजदूर न मिलने पर वह मशीन से अनाज निकासी का काम कर रहा है और भूसे को खेत में ही छोड़ रहा है। इससे चारे की समस्या पशुपालकों के समक्ष खड़ी हो रही है। चारा महंगा हो जाने से पशुपालक दुधारू पशुओं को पालना छोड़ रहे हैं। उसका परिणाम यह आ रहा है कि देश में शुद्ध दूध मिलना कठिन से कठिन होता जा रहा है। होना तो यह चाहिए कि मजदूर की श्रम शक्ति में सुधार हो, पर यहां राजनीतिक स्वार्थों के चलते इसका उल्टा हो गया है। उन लोगों की श्रम शक्ति बुरी तरह प्रभावित हुई है।
मैं कुछ वर्ष पहले राजस्थान के सीमावर्ती जिले झालावाड़ में एक गौ रक्षा सम्मेलन में भाषण देने के लिए गया था। वहां पर 3 जिलों की सीमा मिलती है। वहां तीन चार गांवों के बीच में एक स्कूल था। जिसके अध्यापक का नाम ओमप्रकाश था। स्कूल में मात्र 8 या 10 बच्चे बैठे थे। मैंने अध्यापक ओमप्रकाश से पूछा कि इतने कम बच्चे होने का कारण क्या है ? तब उन्होंने मुझे बताया कि यहां के लोग मजदूरी करने के लिए दूसरे प्रदेशों में चले जाते हैं। साथ में वे अपने बच्चों को भी ले जाते हैं। बड़ा बच्चा यदि 5 – 6 वर्ष का है तो वह छोटे बच्चों को संभालने का काम करता है। इस प्रकार माता पिता बच्चों को स्कूल में प्रवेश दिलाने में असमर्थ हो जाते हैं। यदि बच्चों को स्कूल भेज देंगे तो पति – पत्नी में से किसी एक को उनकी देखभाल के लिए रुकना पड़ेगा और जब तक दोनों मजदूरी करके ना लाएं तब तक परिवार का पोषण नहीं हो सकता।
अब जबकि मुफ्त का राशन पूरे देश में दिया जा रहा है तो इसे ऐसी महिलाओं के लिए एक अनुकूल अवसर ही कहा जाएगा, जिनके बच्चे स्कूल का मुंह नहीं देख पाते। ऐसे में होना यह चाहिए था कि गरीब लोगों को अपनी महिलाओं को घर पर छोड़ कर बच्चों को शिक्षित कराने की ओर ध्यान देना चाहिए था और वे स्वयं कमाई के लिए दूसरे जिलों या प्रदेशों में जाते। पर यहां भी इसका उल्टा हो गया है। लोगों को निकम्मा होने की आदत पड़ गई है। वे मुफ्त का राशन खा रहे हैं और महिलाओं को ही काम पर जाना पड़ रहा है। इतना ही नहीं देश के गरीब तबके में महिलाओं पर घरेलू हिंसा भी बढ़ी है। क्योंकि पुरुष घर में रहकर दारू पीते हैं या जुआ खेलते हैं। महिलाओं के द्वारा ऐसा ना करने के लिए कहने पर उनकी पिटाई होती है। देश में यद्यपि महिला आयोग है, पर वहां भी ऐसी महिलाएं बैठी हैं जो दूर देहात में जाकर काम करना नहीं चाहती। इस प्रकार देश की अधिकांश महिलाएं ऐसी हैं, जिनकी सुध ना तो पुलिस लेती है और ना ही महिला आयोग लेता है। हमारे देश की पुलिस की कार्यशैली हम सब जानते हैं। वहां पर कमजोर को केस दर्ज कराने की भी अनुमति नहीं होती। उसके साथ बदतमीजी से व्यवहार किया जाता है और प्रयास किया जाता है कि वह थाने की सीमा से बाहर निकल जाए।
कभी भाजपा की ही सरकार में वित्त मंत्री रहे यशवंत सिन्हा ने प्रधानमंत्री मोदी द्वारा मुफ्त की रेवड़ियों का प्रश्न उठाने पर कहा था कि “मुफ्त रेवड़ियों का मुद्दा एक ऐसी सरकार के प्रधानमंत्री ने उठाया है जो खुद मुफ्त रेवड़ियाँ बांटने में बड़ी शेख़ी बघारते हैं।” निश्चित रूप से प्रधानमंत्री मोदी को भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में अपनी उन तथाकथित योजनाओं की भी समीक्षा करनी चाहिए जो इसी प्रकार की मुफ्त की रेवड़ियों के अंतर्गत आ सकती हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए कि वे स्वयं तो मतदाताओं को लुभाने का काम करें और विपक्षी दलों से अपेक्षा करें कि वे ऐसा नहीं करेंगे। इससे भी बढ़कर ईमानदारी की बात यह होगी कि केंद्र की मोदी सरकार स्वयं पहल करते हुए मुफ्त की रेवड़ियां बांटने के बिंदु पर कानून बनाए। चुनाव सुधार समय की आवश्यकता है।
मुफ्त की घोषणाओं को करते-करते हम कितनी दूर निकल चुके हैं ? – इसका आकलन करने की आवश्यकता है। ऐसा नहीं होना चाहिए कि देश के करदाताओं से मिले धन को राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्रों को पूरा करने में लगा दें । देश का प्रत्येक करदाता राजनीतिक दलों की घोषणाओं को पूरा करने के लिए कर अदा नहीं करता है, बल्कि वह देश के विकास में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए कर अदा करता है।
इतना ही नहीं, देश के करदाताओं से कर देश के विकास कार्यों के लिए ही लिया भी जाता है । फिर राजनीतिक दलों को यह अधिकार किसने दे दिया कि वे देश के करदाताओं से एकत्र हुए राजस्व को अपने ढंग से खर्च कर डालें। जहां तक चुनावी घोषणा पत्रों की बात है तो यह राजनीतिक दलों के सिद्धांतों, मान्यताओं और देश को विकास की दिशा में आगे बढ़ाने का एक संकल्प पत्र होता है। चुनावी घोषणा पत्र के माध्यम से लोगों को नजरबंदी के खेल में फंसाकर अपने राजनीतिक हित साधने की अनुमति किसी भी राजनीतिक दल को नहीं दी जा सकती।

डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और ‘भारत को समझो’ अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है।)

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