आपको ज्ञात ही है कि न्यायालय के साथ-साथ, पुलिस और लोक अभियोजक आपराधिक न्याय प्रशासन के आधार स्तंभ हैं। पुलिस किसी मामले में तथ्यान्वेषण करती है और लोक अभियोजक अपनी प्रभावी पैरवी से अभियुक्त को दण्डित करवाने हेतु प्रयास करते हैं। सामान्य अपराधों का परीक्षण मजिस्ट्रेट न्यायालयों द्वारा होता है और गंभीर (जिन्हें जघन्य अपराध कहा जाता है) अपराधों का परीक्षण सामान्यतया सत्र न्यायालयों द्वारा किया जाता है।
मजिस्ट्रेट न्यायालयों में तो पैरवी हेतु अभियोजन सञ्चालन के लिए पूर्णकालिक स्थायी सहायक लोक अभियोजक नियुक्त होते हैं किन्तु सत्र न्यायालयों में अभियोजन के सञ्चालन के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 24 के अंतर्गत मात्र अंशकालिक और अस्थायी लोक अभियोजक नियुक्त किये जाते हैं। इन लोक अभियोजकों को नाम मात्र का पारिश्रमिक देकर उन्हें अपनी आजीविका के लिए अन्य साधनों से गुजारा करने के लिए खुला छोड़ दिया जाता है। वर्तमान में लोक अभियोजकों को लगभग सात हजार रुपये मासिक पारिश्रमिक दिया जा रहा है जबकि निचले न्यायालयों में सहायक लोक अभियोजकों को पूर्ण वेतन लगभग तीस हजार रुपये दिया जा रहा है। यह भी एक विरोधाभाषी तथ्य है कि सामान्य अपराधों के लिए निचले न्यायालयों में स्थायी सहायक लोक अभियोजक नियुक्त हैं जबकि ऊपरी न्यायालयों में संगीन अपराधों के परीक्षण और अपील की पैरवी को अल्पवेतनभोगी अस्थायी लोक अभियोजकों के भरोसे छोड़ दिया गया है। यह स्थिति आपराधिक न्याय प्रशासन का उपहास करती है और अपराधों की रोकथाम, व अपराधियों को दण्डित करने के प्रति सरकार की संजीदगी की जनता के सामने एक गलत तस्वीर पेश करती है । न्याय प्रशासन की पवित्रता के लिए न्यायपालिका की स्वतन्त्रता एवं न्यायाधीशों का निर्भय, एवं उनकी नौकरी का स्थायित्व होना आवश्यक है। ठीक इसी प्रकार न्यायप्रशासन के अहम स्तंभ लोक अभियोजक की सेवा की अनिश्चितता से देश वास्तव में कुप्रभावित हो रहा है। वैसे भी वर्तमान में लोक अभियोजक इतने अल्प पारिश्रमिक के लिए पैरवी में न तो कोई रूचि लेते हैं और न ही न्यायालयों द्वारा सामान्यतया अभियुक्तों को दण्डित किया जाता है। राजस्थान के एक जिले के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2005 में दोषसिद्धि का मामले दर्ज होने से मात्र 1.5त्न का अनुपात है। यह तथ्य भी उक्त दुखद स्थिति की पुष्टि करता है। लोक अभियोजक भी अपनी आजीविका के लिए अनैतिक साधनों पर आश्रित रहते हैं। यह तो स्पष्ट है ही कि भारतीय न्यायालयों से दण्डित होने की बहुत कम संभावनाएं हैं किन्तु फिर भी अभियुक्त के लिए अभियोजन पूर्व की यातनाओं से मुक्ति पाना एक बड़ा कार्य है। भारत के राष्ट्रीय पुलिस आयोग का भी कहना है कि देश में 60त्न गिरफ्तारियां अनावश्यक होती है जिन पर जेलों का 43.2त्न खर्चा होता है।
माननीय सुप्रीम कोर्ट भी जोगिन्दर कुमार के मामले में कह चुका है कि जघन्य अपराध के अतिरिक्त गिरफ्तारी को टाला जाना चाहिए और मजिस्ट्रेटों पर यह दायित्व डाला गया है कि वे इन निर्देशों की अनुपालना सुनिश्चित करें। किन्तु मजिस्ट्रेटों के निष्क्रिय सहयोग से स्वार्थवश पुलिस अनावश्यक गिरफ्तारियां करती रहती है और वकील न तो इनका विरोध करते और न ही मजिस्ट्रेट से इन अनुचित गिरफ्तारियों में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 59 के अंतर्गत बिना जमानत रिहाई की मांग करते हैं। उलटे इन अनावश्यक गिरफ्तारियों में भी जमानत से इन्कार कर गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेटों और न्यायाधीशों द्वारा जेल भेज दिया जाता है। चूँकि न्यायालयों द्वारा दोषियों के दण्डित होने की संभावनाएं अत्यंत क्षीण हैं अत: लोक अभियोजकों की भूमिका प्रमुखत: (अग्रिम एवं पश्चातवर्ती) जमानत तक ही सीमित हो जाती है। प्रचलित परम्परानुसार एक गिरफ्तार व्यक्ति की जमानत (चाहे उसकी गिरफ्तारी अनावश्यक या अवैध ही क्यों न हो) के लिए भी लोक अभियोजक के निष्क्रिय सहयोग की आवश्यकता है अर्थात जमानत आसानी से हो जाये इसके लिए आवश्यक है कि लोक अभियोजक की ओर से जमानत का विरोध नहीं हो। वकील समुदाय में आम चर्चा होती रहती है कि वकील को बोलने के लिए जनता से फीस मिलती है जबकि सरकारी वकील को चुप रहने के लिए जनता फीस (नजराना) देती है।
इस प्रसंग में मैंने पूर्व में दिनांक 18.02.12 को गृह मंत्रालय, भारत सरकार के माध्यम से आपकी सरकार को भी एक निवेदन भेजा था। किन्तु दुर्भाग्यवश राजकीय वादकरण, विधि एवं विधिक कार्य विभाग के पत्रांक प.8(12) राज/वाद/09 दिनांक 14.09.12 द्वारा, सम्बंधित मंत्री के अनुमोदन बिना ही, एक सशक्त निवेदन को अस्वीकार कर दिया गया कि पुराने समय से चली आ रही उक्त सफल व्यवस्था में कोई बदलाव किया जाना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। जबकि उक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए माननीय भारतीय विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट संख्या 197 दिनांक 31.07.2006 (संलग्न) में भी लोक अभियोजकों की वर्तमान नियुक्ति प्रणाली में परिवर्तन की सिफारिश की है। मैं यह भी निवेदन करना अपना कर्तव्य समझता हूँ कि उक्त प्रकरण में, नीतिगत मामला होने के कारण, निर्णय लेने का अधिकार मात्र मंत्री महोदय को है जोकि जनप्रतिनिधि होने के कारण जनता के प्रति जवाबदेह है। इस प्रकार पत्रोतर देने वाले अधिकारी ने अपनी अधिकार सीमा का गंभीर अतिक्रमण किया है। अतेव आपसे नम्र निवेदन है कि विधि आयोग की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए ऊपरी न्यायालयों में लोक अभियोजक और सरकारी वकीलों के लिए स्थायी नियुक्ति हेतु उपयुक्त नियमों का निर्माण कर आपराधिक न्यायप्रशासन को मजबूती प्रदान करें।
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