समाज की दिशाहीनता की ओर सरकार ध्यान दें
हमारे यहां और विशेषत: उत्तर प्रदेश में किसी भूमिधर की मृत्यु के उपरांत उसकी विधवा पत्नी को कृषि भूमिधारी में हिस्सा देने की व्यवस्था उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूसुधार अधिनियम में नही रखी गयी थी। 1947 में इस प्रकार की व्यवस्था की गयी कि किसी भूमिधर की मृत्यु के उपरांत उसकी विधवा पत्नी को भी उसकी कृषि भूमि में हिस्सा दिया जाएगा। जब यह अधिनियम 1951 में लागू हुआ तो उस समय हमारे देश की प्राचीन परंपरा समाज में प्रचलित थी जिसके अनुसार किसी स्त्री को उसके पति की संपत्ति में हिस्सा नही मिलता था। ऐसी परंपरा इसलिए थी कि समाज में एक मान्यता थी कि मां का बंटवारा नही किया जाएगा, मां तो सबकी बराबर है। इसलिए मां जिस बेटे के पास चाहे रहे, उसकी सेवा और देखभाल का सभी बेटे समान ध्यान रखेंगे और उसे किसी प्रकार का कष्टï नही होने देंगे। यह मान्यता केवल मान्यता नही थी, इसे भारतीय समाज में एक विधि की मान्यता प्राप्त थी और लोग इस विधि को अपने लिए एक नैतिक व्यवस्था मानकर, स्वभावत: पालन किया करते थे। इसलिए माताओं का सम्मान सुरक्षित रहता था।
यही बात किसी ऐसे पिता की पुत्री पर लागू होती थी, जिसका चाचा ताऊ अन्य परिजनों पर चला जाता था। लोग बाग ऐसी बेटी का विशेष सम्मान करते थे और सम्मान के इस भाव को स्वभावत: मानकर चलते थे।
जब लोगों ने मां का तिरस्कार और ऐसी बेटी का बहिष्कार करना आरंभ कर दिया तो निर्मम समाज (सभ्य समाज नही) की इस असभ्यता को एक सामाजिक विसंगति मानकर इसे दूर करने के लिए कानून बनाया गया और अधिनियम में अपेक्षित संशोधन कर मां और बेटी को भी हिस्सा दिलाने की व्यवस्था की गयी।
तिरस्कार और बहिष्कार का यह खेल हमारी प्रचलित शिक्षा प्रणाली की देन है। नैतिक शिक्षा से विहीन यह शिक्षा प्रणाली ही वर्तमान के निर्मम समाज की निर्माता है। ऐसी परिस्थितियों में हमारी सरकारों को चाहिए कि वो शिक्षा प्रणाली में व्यापक सुधार करें और उसे नैतिक बनाने का प्रयास करें।
आज स्थिति ये है कि शिक्षा की दिशाहीनता के कारण समाज निर्मम होता जा रहा है औरर सरकारें दिन प्रतिदिन नये नये कानून बना देने मात्र से ही अपने कत्र्तव्य की इतिश्री मान रही है। परिणाम स्वरूप न्यायालयों पर वादों का अप्रत्याशित बोझ बढ़ता जा रहा है। क्योंकि नीतिविहीन समाज को आप विधि की नीतिगत और भावनात्मक व्यवस्था से नियंत्रित कर सकते हैं, परंतु आप उसे कानून की निर्ममता से नियंत्रित नही कर सकते। भारत में आज भी धर्म से नियंत्रित है परंतु इंडिया पूर्णत: धर्म विमुख है। सारी अस्त व्यस्तता और मारा मारी इसी इंडिया में ही चल रही है। यदि सारे भारत को हमने इंडिया बना दिया तो वादों की भरमार कितनी होगी यह कल्पनातीत बात है। इसलिए हमें अपने गांवों की प्रचलित व्यवस्था पर विचार करना चाहिए और उसका अनुकरण राष्ट्रीय स्तर पर करना चाहिए। हमारे संविधान ने हमारे सांसदों और विधायकों के लिए जिस शपथ की व्यवस्था की है उसे ये लोग ईश्वर के नाम पर खाते हैं और हजम कर जाते हैं। परंतु हमारे देश का जनसाधारण भगवान की सौगंध खाकर जिस बात को कहता या करता है, उसे पूरी करने का प्राणमय से प्रयास करता है। यह अंतर इंडिया और भारत का ही है। यदि हम भारत के इस जनसाधारण की परंपरा को देश की परंपरा बना दें और लोगों को स्वभावत: वचन का पक्का होने की शिक्षा देनी आरंभ कर दें तो न्यायालयों पर वादों का बढ़ता बोझ कम अवश्य हो सकता है।
हमें स्मरण रखना चाहिए कि भ्रष्ट व्यवस्था से भ्रष्ट व्यवस्था का निर्माण होता है। भारत में व्यवस्था तो अंग्रेजों और उनसे भी पूर्व मुसलमानों के समय से ही भ्रष्ट थी, परंतु तब समाज उतना भ्रष्ट नही था, जितना आज है। आजादी के बाद समाज अधिक भ्रष्ट हुआ क्योंकि आजादी के बाद दिशाविहीन शिक्षा प्रणाली का प्रचलन अधिक हुआ। आज भ्रष्ट समाज से निकलकर जो लोग न्यायाधीश बन रहे हैं वो भी भ्रष्टाचार से विमुख नही हो पा रहे हैं। इसलिए न्यायालयों में भी न्याय और अन्याय का कई बार गुड़ गोबर सा हुआ लगता है। सारी संवैधानिक व्यवस्था तार ताट हो गयी है।
सामाजिक संघर्षों का उद्देश्य क्या है? हमारे समाज में जितने भी आंदोलन होते हैं, उनका उद्देश्य निर्धन वर्ग को लाभ पहुंचाना दिखाया जाता है, जबकि वास्तव में ऐसा होता नही है। आंदोलन चाहे राजनीतिक हों, चाहे सामाजिक सभी का उद्देश्य किन्हीं विशिष्ट लोगों या विशिष्ट वर्ग को लाभ पहुंचाना होता है। यदि ये लोग प्रसन्न हैं तो जनसाधारण के हितों की चिंता फिर किसी को नही होती?
बात आप रसोई गैस की ही लें। एक छोटे से कस्बे में भी लगभग 25 तीस हजार गैस कनेक्शन होते हैं। इसका अभिप्राय है कि गैस की संबंधित एजेंसी पर रोजाना लगभग एक हजार उपभोक्ताओं का दबाव गैस के लिए रहता है। परंतु उसका समाधान नही हो पाता है। कारण होता है जनसाधारण रण के लिए झूठी लड़ाई लडऩे वाले नेताओं और कथित सामाजिक कार्यकर्ताओं का कार्य व्यवहार। एक ही गैस एजेंसी पर ऐसे बहुत से उपभोक्ता (ऊंची पकड़ वाले वाले लोग) पर्याप्त होते हैं, जिन्होंने बीसियों झूठे गैस कनेक्शन बनवा रखे होते हैं। उनसे वह अपना व्यापार करते हैं। गैस की चोरी करके उसकी बिक्री करते हैं। कितने ही नेता अपने कार्यकर्ताओं को उपकृत करने के लिए उन्हें गैस दिलवाते हैं, नगर पालिका के चेयरमैन, वार्ड सदस्य, क्षेत्र के विधायक मंत्री, सांसद, पार्टियों के जिलाध्यक्ष, नगराध्यक्ष, प्रतिष्ठित लोग कथित सामाजिक कार्यकर्ता कितने ही विभागों के अधिकारी, कितने ही ग्राम प्रधान गली मौहल्लों के नेता और किसी भी भावी चुनाव में खड़े होने वाले संभावित प्रत्याशी सभी किसी न किसी रूप में गैस डीलर पर अपना रौब झाड़ते हैं और अपने लोगों के लिए गैस उपलब्ध कराने की प्रत्याशा उससे रखते हैं। जब भी कभी लड़ाई होती है या धरना प्रदर्शन किसी गैस डीलर के विरूद्घ कहीं होते हैं तो उनका सीधा सा अर्थ होता है कि उपरोक्त प्रभावी लोगों में से किसी की उपेक्षा कहीं हो रही है। यदि उसकी उपेक्षा होनी बंद हो जाए तो वह आंदोलन शांत हो जाता है। जनता की लड़ाई लडऩे की सुध हमारे समाज में लोगों को तभी आती है जब कहीं अपने स्वार्थ पूरे नही हो पाते हैं। तब जनता का दुरूपयोग करने के लिए आंदोलन की रूपरेखा बनायी जाती है। यदि हमारे ये कथित प्रभावी लोग अपने पास अधिक गैस कनेक्शन रखना छोड़ दें, अपने लोगों को कमर्शियल गैस के स्थान पर घरेलू गैस का प्रयोग करने के लिए प्रेरित करें साथ ही किसी प्रयोग को प्रोत्साहित करना बंद कर दें, और गरीब से गरीब व्यक्ति को गैस उपलब्ध कराने हेतु, एक निगरानी समिति का गठन कर दें तो सारी समस्या का समाधान हो सकता है। हम राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठें और जनहित के लिए समर्पित हो जायें तो किसी भी गैस डीलर का साहस नही हो सकता कि वह गैस को ब्लैक करे और जन साधारण तक उसे न पहुंचने दें।
लड़ाई टुकड़ों की है। जितने अनुपात में एक गैस डीलर लोगों को टुकड़े डालता चला जाता है, उतने ही लोगों का मुंह बंद हो जाता है। मुंह बंद होते ही जनता के हितों के कथित रक्षकों का जनसेवा का भाव पता नही कहां चला जाता है। हमारे अधिकांश सामाजिक या राजनीतिक संघर्षों या आंदोलनों का उद्देश्य केवल इतना होकर रह गया है कि जो भ्रष्टाचार हो रहा है, उसमें हमें भी सम्मिलित करो। यदि नही करोगे तो तुम्हें खाने नही देंगे। इस सोच के कारण ही राजनीति से सेवाभाव समाप्त होता जा रहा है। हमने जिस राजनीतिक अपसंस्कृति का विकास किया है उसने स्वार्थपूर्ण मनोवृत्ति व निर्मम सामाजिक संरचना को बलवती किया है। हमारा संविधान इस अपसंस्कृति की स्थापना नही करता। हमारा संविधान प्रत्येक प्रकार के न्याय को प्राप्त करना प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार मानता है। संविधान के संबंध में यह भी सत्य है कि यह एक उत्कृष्ट मानवीय समाज की स्थापना की कल्पना तो प्रस्तुत कर सकता है पर उसे बनाएगा तो मानव ही। इस मानव के विषय में यह सत्य है कि ये से पहले दानव है। दूसरे के अधिकारों का हनन करना वह अपना मौलिक अधिकार मानता है। इसीलिए समाज में अपराध, अत्याचार, शोषण और आनाचार बढ़ता है। इस दानव से मानव बनाने के लिए हमें वैदिक व्यवस्था की ओर चलना पड़ेगा। कानून प्रत्येक व्यक्ति को एक मानव मानकर उसके साथ व्यवहार करता है, जबकि वेद प्रतिपादित विधि व्यक्ति को जन्मना जायते शूद्रा: की बात को ध्यान में रखकर मानव को मानव और दानव दोनेां मानती है, इसलिए वह मानव की दानवता का सर्वप्रथम उपचार करती है। विधि और कानून में यही अंतर है कि विधि एक सुसंस्कारित मानव समाज की स्थापना करती है जबकि कानून ऐसा नही कर पाता। यदि हम अपने राजनीतिक और सामाजितक आंदोलनों की रूपरेखा सुसंस्कृत मानवीय समाज की स्थापना के लिए निर्धारित करें तो आंदोलन स्वार्थ प्रेरित न होकर परमार्थ हो जाएंगे। तब हम देखेंगे कि इनके जो परिणाम आएंगे वो निश्चित रूप से हमारी अपेक्षाओं के अनुरूप होंगे। महर्षि दयानंद मानव निर्माण के लिए विधि की अनिवार्यता मानते थे। वह नैतिक शिक्षा के माध्यम से मानव के पशुपन को समाप्त कर उसे समाज के लिए एक उपयोगी अंग बना देना चाहते थे।
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