वैदिक सम्पत्ति
गतांक से आगे…
इन मन्त्रों में मनुष्यमात्र के साथ समता का व्यवहार करने का उपदेश किया गया है। इस उपदेश में अच्छी तरह बतला दिया गया है कि समस्त मनुष्यों की सम्पत्ति, विचार और रहनसहन एक समान होना चाहिये, तभी सौ वर्ष तक लोग सुख से जी सकते हैं। समस्त मनुष्यों के साथ इस प्रकार का व्यवहार करने की आज्ञा के बाद वेदों में अच्छी तरह कह दिया गया है कि मनुष्यों के ही साथ नहीं, प्रत्युत प्राणिमात्र के साथ प्रेम, दया और सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए। वेद उपदेश करते हैं कि-
यो वै कशायाः सप्त मधूनि वेद मधुमान् भवति ।
ब्राह्मणश्च राजा च धेनुश्वानड्वाँश्च व्रीहिश्र यवश्व मधु सप्तमम् ।। ( अथर्व० 9/1/22)
द्दते द्दंह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे । मित्रस्य चक्षुवा समीक्षामहे ।। (यजुर्वेद 36/18)
अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्री, धेनु, बैल, धान, यव और मिठाई, ये सात मिठाइयाँ हैं। जो मनुष्य ज्ञान के इन सात मधुत्रों (मिठाइयों) को जानता है, वह मधुमान् अर्थात् मधुर हो जाता है। हे दृष्टिस्वरूप परमात्मन् ! मेरी दृष्टि को द्दढ़ कीजिये, जिससे सब प्राणी मुझे मित्रदृष्टि से देखें। इसी तरह मैं भी सब प्राणियों को मित्रदृष्टि से देखूं धीर हम सब प्राणी परस्पर एक दूसरे को मित्रदृष्टि से देखें । यहाँ तक हमने सामाजिक व्यवहार से सम्बन्ध रखनेवाले मन्त्रों का संग्रह किया । इस संग्रह में अपने कुटुम्ब से लेकर समस्त संसार के मनुष्यों और समस्त प्राणियों तक के साथ प्रेम, दया, समता, सहानुभूति और मित्रता के भावों के दशनिवाले वेदोपदेश ग्रथित हैं। हम नहीं समझते कि समाज से सम्बन्ध रखनेवाले इससे अधिक उदात्त और व्यापक व्यवहार और कहीं संसार में होंगे। परन्तु ये सामाजिक व्यवहार जब तक सदाचार की सुहक भूमिका पर स्थिर न हों, तब तक स्थायी नहीं हो सकते ।
सदाचार
बिना सदाचार के सामाजिक व्यवहार उत्तमता से निभ ही नहीं सकते। सदाचारी मनुष्य ही समाज में सुख से रह सकता है । सत्यता, शुद्धता, चरित्रशीलता और व्रत आदि के विना मनुष्य की समाज में गुजर ही नहीं है। इसीलिए सदाचार से सम्बन्ध रखनेवाले अनेकों उपदेश वेदों में दिये गये हैं। यहाँ हम नमूने के तौर पर थोड़े से मन्त्र उद्धृत करते हैं। ऋग्वेद में लिखा है कि-
सप्त मर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तामा मे कामिदभ्य हुरो गात् ।
आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीळ पथां विसर्गे धरणेषु तस्थौ । (ऋ० 10/5/6)
अर्थात् हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मद्यपान, जुवा, असत्य भाषण और इन पापों के करनेवाले दुष्टों के सहयोग का नाम सप्त मर्यादा है। इनमें से जो एक भी मर्यादा का उल्लङ्घन करता है, अर्थात् एक भी पाप को करता है, वह पापी होता है और जो धैर्य से इन हिंसादि पापों को छोड़ देता है, वह निरसन्देह जीवन का स्तम्भ (आदर्श) होता है ओर मोक्षभागी होता है।
उलूकायातु शुशुलूकयातु जहि श्वयातुमुत कोकयातुम् । सुपर्णयातुमुत गध्रयातु द्दषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र ।। (ऋग्वेद 7/104/22)
अर्थात् गरूड़ के समान मत (घमंड ),गीघ के समान लोभ, कोक (चिड़ा) के समान काम, कुत्ते के समान मत्सर उलूक के समान मोह (मूर्खता) और भेड़िया के समान क्रोध को मार भगाइये। अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मत्सर आदि विकारों को अपने अंतःकरण से हटा दीजिये। इन हिंसा आदि बाह्य और कामादि अन्तर्दुर्वासनाओं के त्याग से ही मनुष्य उत्तम सामाजिक हो सकता है। इन सबमें सत्य की महिमा महान् है।
क्रमशः