स्वतंत्रता के पश्चात से भारत में दस अच्छी बातों को 90 बुरी बातों पर विजयी बनाने के लिए प्रोत्साहित करने का बेतुका राग अलापा जा रहा है। इसके लिए ही ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘सर्वधर्म समभाव’ जैसे नारे यहां गढ़े गये हैं। होना तो यह चाहिए था कि इन 90 बुरी बातों को समाप्त करने के लिए चरणबद्घ ढंग से कार्य किया जाता है, जैसे कि-हमारा सबका धर्म एक है।
-हम किसी मानव का रक्त इसलिए नहीं बहाएंगे कि यह ‘काफिर’ अथवा विधर्मी हैं।
-हम किसी पशु को इसलिए नहीं मारेंगे कि उसे एक वर्ग ‘माता’ कहकर पुकारता है।
-हम किसी अबला की अस्मिता इसलिए नहीं लूटेंगे कि वह किसी ‘काफिर’ की पत्नी है, बेटी है या माता है।
ऐसी बातें बहुत हैं। पूर्वोत्तर भारत में आप जायें। आपको ज्ञात होगा कि-
-एक संप्रदाय के लोगों को चुन-चुनकर मारा जा रहा है।
-एक भाषा के लोगों को चुन-चुनकर समाप्त किया जा रहा है।
-कहां गयी वहां मानव की मानवता? उसे किसने डस लिया किसने हड़प लिया?
-‘सर्वधर्म-समभाव’ का नारा लगाने वाले क्या देंगे, इस प्रश्न का उत्तर संभवत: कुछ भी नहीं-क्योंकि उनके पास इस प्रश्न का कोई उत्तर है ही नहीं।
ये छद्म धर्मनिरपेक्षी हमें बता रहे हैं कि ईसाई मिशनरियों से सीखना है तो सीखो-दया, करूणा, उदारता, प्रेम, सहिष्णुता आदि, और उधर ये मिशनरीज इस मीठी छुरी से अर्थात दया, करूणा आदि के पाखण्ड से पूर्वोत्तर को हमसे अलग करने पर तुली हुईं हैं। हम तब भी रट लगाए जा रहे हैं कि ‘सर्वधर्म-समभाव’ के समर्थक हैं और सब धर्मों को एक जैसा मानते हैं, जबकि ईसाई मिशनरीज देश के बहुसंख्यक समाज को मिटाती जा रही हैं। ईसाईयत की दया, करूणा आदि की स्वार्थपूर्ण चार बातों का बढ़-चढक़र प्रचार करेंगे तो कुछ लोगों की दृष्टि में आप ‘राष्ट्रवादी’ हैं-आपके विचार अच्छे हैं, आप आधुनिकतावादी हैं, प्रगतिवादी हैं और यदि आपने इस स्वार्थ की कलई खोलनी आरंभ कर दी तो आप ‘देशद्रोही’ हैं, आपके विचार विघटनवादी हैं, आप रूढि़वादी और परम्परावादी विचारों के हैं, आप प्रगतिशील नहीं हैं।
अत: यहां सच को दबाया जाता है। झूठ को सजाया और संवारा जाता है। उसका महिमामंडन किया जाता है। इस महिमामंडन के समक्ष कीर्तन की मस्ती में गाने वाले ‘गधों’ की यहां कभी कमी नहीं रही है। पूर्व में भी ये ‘गधे’ विद्यमान रहे हैं जब यहां पंडित जी स्वर्ग में बैठे इनके पूर्वजों को लड्डू स्वयं खाकर वहां पहुंचा देने का आश्वासन इन्हें देकर शांत और प्रसन्न कर दिया करते थे, और आज भी बहुत बैठे हैं। जब इन पर शब्दजाल के भार को रखकर इनकी पीठ को थपथपाता हुआ राजनीतिज्ञ इन्हें अपने घाट (वोट) को लेकर चलता है और ”देता है इनको मीठे-मीठे नारे और होते हैं नेताजी की वोटों के वारे के न्यारे।”
कुछ ऐसी ही मानसिकता के वशीभूत होकर ही यह नारा भी हमारे महान राजनीतिज्ञों ने यहां गढ़ लिया है जिससे कि वे हमें ‘सर्वधर्म-समभाव’ का पाठ पढ़ाते हैं। जो भी इन्हें बताएगा कि ‘धर्म’ अनेक नहीं हो सकते, तो वे उसको इसके विपरीत समझाएंगे कि धर्मों के अनेक रूप हैं। इसलिए बोलो-‘ह’ से हिन्दू, ‘म’ से मुसलमान आदि, तब हो जाएगी सबकी बोलती बंद। क्योंकि आज के महान दार्शनिक और विचारक कोई हैं तो ये ‘धर्मनिरपेक्षी’ ही तो हैं। इसलिए इनके कहे को ‘ब्रह्मवाक्य’ मानना ही समझदारी है।
हमारी भारतीय जनता तो वैसे भी ब्रह्मवाक्य का सम्मान युगों-युगों से करती आ रही है इसलिए उसका इसे अच्छा अभ्यास है। जिसके लिए वह धन्यवाद की पात्र है। जहां अंधी आंखों से भी यह दीख रहा है कि हर एक पग पर षडय़ंत्र की नागफनी खड़ी है-वहां भी फूलों की डगर की अनुभूति करना या करवाना मानसिक विक्षिप्तता का स्पष्ट लक्षण है। वहां भी ‘सर्वधर्म-समभाव’ की डुगडुगी बजाना निरी मूर्खता है। लेकिन दुर्भाग्य से भारत में यह डुगडुगी बज रही है। लेख के प्रारंभ में हम कह रहे थे कि किसी संप्रदाय की अच्छी बातों को उस संप्रदाय के रहते हुए उसके इन बातों के अस्तित्व को धर्म नहीं कहा जा सकता।
हमारे ऐसा कहने का कारण है कि व्यक्ति जब तक किसी संप्रदाय का सदस्य स्वयं को मानता रहेगा तब तक उसकी मानवता का पूर्ण विकास संभव नहीं। धर्म का वास्तविक स्वरूप तो मानवता के पूर्ण विकास में ही संभव है। संप्रदाय मानवता के पूर्ण विकास में बाधक तत्व है। उसमें आस्था रखने वाले व्यक्ति में अच्छे गुण सजातीय लोगों के लिए ही हो सकते हैं, अन्यों के लिए नहीं। यहां आकर धर्म पर चादर पड़ गयी अधर्म रूपी संप्रदाय की। परिणाम यह हुआ कि धर्म परास्त हो गया और संप्रदाय जीत गया। इसलिए संप्रदाय से अधिशासित होने वाला भला व्यक्ति भी वास्तविक अर्थों में मानव नहीं कहा जा सकता, हां! उसे ‘साम्प्रदायिक मानव’ अवश्य कहा जा सकता है।
दूसरी ओर धर्म संप्रदाय को आड़े नहीं आने देता। वह मानव के मानस कमल को संप्रदायों की कीचड़ के मध्य भी खिलने और सबसे मिलने के लिए प्रेरित करता रहता है। यह धर्म ही तो था जिसने शिवाजी को अपने उपभोग के लिए लायी गयी मुस्लिम सुंदरी को ससम्मान उसके परिवार में वापस भिजवा दिया था। यह भी तो धर्म ही था जिसने औरंगजेब की पारिवारिक बेटी का पालन हिंदू धर्म में कराया और जब वह विवाह योग्य हुई तो उसे उस हिंदू दम्पति ने ससम्मान उसके परिवार को दे दिया। यह भावना सही और वास्तविक अर्थों में धर्म प्रधान थी। इसमें साम्प्रदायिकता का कोई पुट नहीं था। यह भावना है धर्म समभाव की। इसमें हमारे छद्म धर्मनिरपेक्षी सर्व और लगाते हैं। इसे लगाकर वे दान (संप्रदाय) को मानव (धर्म) होने के प्रमाण पत्र देते प्रतीत होते हैं। यह है उनकी राष्ट्र सेवा जिस पर हमारी आने वाली पीढिय़ां गर्व करेंगी। यह उनका विचार हो सकता है। हमें तो उनका भविष्य ‘जयचंद’ जैसा लगता है।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
मुख्य संपादक, उगता भारत