(15 जून को महाकवि पंडित चमूपति का स्वर्गवास हुआ था)
पं॰चमूपति ने प्रथम विश्वयुद्ध के आरम्भ में आर्यसमाज में प्रवेश पाया। अधिक उपयुक्त तो यह होगा कि हम यह कहें कि आर्यसमाज उनमेँ प्रविष्ट हुआ। बहुत छोटी आयु में ही काव्य कला उनमेँ प्रस्फुटित हो गई। 22-24 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते वे देश के विख्यात कवि बन गये। हिन्दी व उर्दू दोनोँ मेँ कविता करते थे।
गद्य लिखने पर भी आपका असाधारण अधिकार था। आप सात भाषाओं के विद्वान थे। चार भाषाओं में पण्डितजी लिखते थे। उनकी ज्ञान प्रसूता लौह लेखनी पर बड़े-बड़े लेखक व सम्पादक मुग्ध थे। मशहूर उर्दू शायर “अल्लमा इकबाल” ने एक बार पण्डितजी से कहा था कि जब मैं आपको पढ़ता हूँ तो मुझे मेरे उस्ताद की याद आती है। तब ‘एम॰ए’ पास अंगुलियोँ पर गिने जाते थे। पर वे किसी लेख को लिखते समय अपने नाम के साथ एम॰ए नहीं लिखते थे। उनका कथन था कि मैं नहीं चाहता लोग इस लेख पढ़े क्योँकि लेखक एम॰ए है। कैसा आत्मविश्वास से भरा वह महामानव था।
आपके साहित्य को 5-10 बार ध्यानपूर्वक पढ़नेवाला कोई भी परिश्रमी युवक उत्तम लेखक बन सकता है। पण्डितजी ने वैदिक धर्म पर उठने वाले आक्षेपोँ के ऐसे उत्तर दिये कि फिर विधर्मियोँ की बोलती बंद हो गई। आपकी कालजयी पुस्तको का विवरण-
1- चौँदहवी का चाँद 2- वैदिक स्वर्ग 3- अनादि तत्त्व 4- रँगीला रसूल (सभी उर्दू)
5- सोमसरोवर 6- जीवन ज्योति 7- योगेश्वर कृष्ण 8- संध्या रहस्य 9- यास्क युग (सभी हिन्दी)
पण्डितजी के काव्य संग्रहो मेँ ‘भारत भक्ति’ उनकी राष्ट्रीय कविताओँ का उत्तम संग्रह है। ‘दयानन्द आनन्द सागर’ ऋषि जीवन पर रचा गया रसभरा काव्य है। ‘ह्रदय की भाषा’ उनकी हिन्दी कविताओँ का अनुपम संग्रह है। Glimpses of Dayananda और Ten commandments उनकी दो प्रसिद्ध अंग्रेजी पुस्तकें हैं। और भी बहुत कुछ लिखा। जो कुछ भी लिखा अति सुन्दर,रोचक, सरस, प्रेरक व विद्वत्तापूर्ण लिखा। चमूपति प्यारे प्रभु की प्यारी देन थे।
गुरूकुल काँगड़ी के Vedic Magazine पर सम्पादक के रूप में नाम तो आचार्य रामदेव का रहता था, पर इस प्रसिद्ध पत्रिका सम्पादन चमूपति ही करते थे। उनके पाठकों में देश के जाने-माने विचारक, नेता व साहित्यकार थे। पत्रकार शिरोमणि महाशय कृष्ण, लाला लाजपतराय, ‘देवता स्वरूप’ भाई परमानन्द स्वामी स्वतन्त्रानन्द, महाशय खुशहालचन्द, डा॰इकबाल, महरूम, ‘सरशार’ कैफी, जैसे उनके प्रशंसक थे।
हुतात्मा रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ के काव्य पर उनकी छाप है। बिस्मिल पण्डितजी के काव्य ‘दयानन्द आनन्द सागर’ पर मुग्ध थे। क्रांतिकारी श्यामलाल उनके ‘सोमसरोवर के दीवाने थे। पण्डितजी की ‘रणचण्डी’ नामक रचना को टहलसिँह नाम का एक क्रान्तिकारी कालकोठरी मेँ गाकर लाहौर के कारागार को गुञ्जा दिया करता था। और क्या कहें ? पण्डितजी एक सच्चे महात्मा और बड़े पवित्रात्मा थे।
नोट- पण्डितजी ने “रंगीला रसूल” नामक किताब मुस्लिम समाज द्वारा श्रीकृष्ण और स्वामीजी का अनादर करते हुए निकाली गई दो पुस्तकों के उत्तर में लिखी थी, इस पुस्तक के सभी तथ्यो को सत्य और प्रमाणिक मानकर तत्कालीन लाहौर हाईकोर्ट ने पुस्तक के प्रकाशक महाशय राजपालजी को बाइज्जत बरी कर दिया था, पर मुस्लिमों ने राजपालजी की नृशंस हत्या कर दी थी। बाद ,में अंग्रेज सरकार ने पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, जो आज तक जारी है।
मैं सभी धर्मप्रेमी बन्धुओँ से कहना चाहूगां कि पण्डितजी की कई पुस्तक अभी भी उपलब्ध है, मँगाकर पढ़े और लाभ उठायेँ।
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