भारत में जब एक शूद्र भी ब्राह्मण बन सकता था
रवि शंकर
मनुस्मृति में वर्ण की ही चर्चा है, जाति की नहीं। परंतु मनु में जन्मना जाति का निषेध अवश्य पाया जाता है। उदाहरण के लिए कहा गया है कि अपने गोत्र या कुल की दुहाई देकर भोजन करने वाले को स्वयं का उगलकर खाने वाला माना जाए (मनु 3/109)। इसका सीधा तात्पर्य है कि जो जन्मना ब्राह्मण या ऊँची जाति वाले अपने गोत्र या वंश का हवाला देकर स्वयं को बड़ा कहते हैं और मान-सम्मान की अपेक्षा रखते हैं, उन्हें तिरस्कृत किया जाना चाहिए। इतना ही नहीं, ब्राह्मण वर्ण पा चुकने के बाद उसे बनाए रखने के लिए भी ब्राह्मण को अतिशय परिश्रम करते रहना होता था। ब्राह्मणत्व अथवा द्विजत्व आज की भांति कोई पीएचडी की डिग्री नहीं थी कि एक बार प्राप्त कर ली तो उसके बाद चाहे पढ़ाई से कोई वास्ता न हो, परंतु आजीवन स्वयं को डाक्टर लिखा जा सकता है। मनु कहते हैं कि यदि वेदाध्ययन छोड़ दिया तो ब्राह्मण शूद्र में परिणत हो जाता है। ऐसे ही एक विधान में मनु कहते हैं कि जो ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वेदों का अध्ययन और पालन छोड़कर अन्य विषयों में ही परिश्रम करता है, वह शूद्र बन जाता है और उसकी आने वाली पीढिय़ों को भी वेदों के ज्ञान से वंचित होना पड़ता है।
इसका एक तात्पर्य और भी है कि ब्राह्मणत्व स्थिर नहीं है और यह वंशानुगत तो किसी भी प्रकार से नहीं हो सकती। वर्णों में परिवर्तन न केवल संभव था, बल्कि यह व्यवहार में भी होता ही था। इसलिए मनु ने अंत में व्यवस्था दी कि ब्राह्मण शूद्र बन सकता और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपने वर्ण बदल सकते हैं। यह पूर्णतया व्यक्ति के कर्मों और स्वभाव पर निर्भर करता था कि उसका वर्ण क्या रहेगा। एक अन्य स्थान पर शूद्रों के कर्तव्यों का वर्णन करते हुए मनु कहते हैं कि शरीर और मन से शुद्ध तथा पवित्र रहने वाला, उत्कृष्ट लोगों के सान्निध्य में रहने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला शूद्र भी उत्तम ब्रह्म जन्म और द्विज वर्ण को प्राप्त कर लेता है।
मनुस्मृति में ऐसे अनेक श्लोक मिलते हैं जिनमें कहा गया है कि उच्च वर्ण का व्यक्ति भी यदि श्रेष्ठ कर्म नहीं करता, तो शूद्र बन जाता है। कुछ उदाहरण इस प्रकार है – जो मनुष्य नित्य प्रात: और सांय ईश्वर आराधना नहीं करता उसको शूद्र समझना चाहिए।
जब तक व्यक्ति वेदों की शिक्षाओं में दीक्षित नहीं होता वह शूद्र के ही समान है।
ब्राह्मण वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ठ एवं अति श्रेष्ट व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच-नीचतर व्यक्तिओं का संग छोड़कर अधिक श्रेष्ठ बनता जाता है। इसके विपरीत आचरण से पतित होकर वह शूद्र बन जाता है।
भले ही कोई ब्राह्मण हो, लेकिन अगर वह अभिवादन का शिष्टता से उत्तर देना नहीं जानता तो वह शूद्र (अशिक्षित व्यक्ति) ही है।
जैसे लकड़ी से बना हाथी और चमड़े का बनाया हुआ हरिण सिर्फ़ नाम के लिए ही हाथी और हरिण कहे जाते हैं, वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण मात्र नाम का ही ब्राह्मण होता है।
पढने-पढ़ाने से, चिंतन-मनन करने से, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, सत्यभाषण आदि व्रतों का पालन करने से, परोपकार आदि सत्कर्म करने से, वेद, विज्ञान आदि पढने से, कर्तव्य का पालन करने से, दान करने से और आदर्शों के प्रति समर्पित रहने से मनुष्य का यह शरीर ब्राह्मण किया जाता है।
मनु के इन विधानों तथा निर्देशों से स्पष्ट है कि ब्राह्मण उत्तम कर्म करने वाले विद्वान व्यक्ति को कहते हैं और शूद्र का अर्थ अशिक्षित व्यक्ति है। इसका किसी भी तरह जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। मनुस्मृति के अनुसार देखा जाए तो आज देश में कठिनाई से कुछ ही लोग ब्राह्मण कहे जा सकेंगे। मनु की कसौटी पर ब्राह्मण जाति के अधिकांश लोग वैश्य अथवा शूद्र वर्ण के ही माने जाएंगे।
साथ ही मनु का मानना है कि शूद्र भले ही अशिक्षित हों तब भी उनसे कौशल और उनका विशेष ज्ञान प्राप्त किया जाना चाहिए। वे कहते हैं – अपने से न्यून व्यक्ति से भी विद्या को ग्रहण करना चाहिए और नीच कुल में जन्मी उत्तम स्त्री को भी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए।
आवश्यकता पडऩे पर अब्राह्मण से भी विद्या प्राप्त की जा सकती है और गुरु ने जब तक निर्देश दिया गया हो तब तक वह शिष्यों को पढ़ाने के दायित्व का पालन करें।
आज हम यह चर्चा तो करते हैं कि मनु ने शूद्रों को उपनयन का अधिकार दिया नहीं, परंतु यह चर्चा नहीं करते कि आखिर मनु ने उपनयन करने का अधिकार किसे दिया है। यदि हम मनुस्मृति का अध्ययन करें तो हमें ज्ञात होगा कि आम पुरोहितों को उपनयन कराने का अधिकार है ही नहीं। उपनयन करने का अधिकार केवल वेदवेत्ता आचार्य को ही है। मनु कहते हैं कि वेदों में पारंगत आचार्य द्वारा शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा देने के उपरांत ही उसका वास्तविक मनुष्य जन्म होता है। मनु ने आचार्य की काफी प्रशंसा की है और कहा है कि जन्म देने वाले पिता से ज्ञान देने वाला आचार्य रूप पिता ही अधिक बड़ा और माननीय है, आचार्य द्वारा प्रदान किया गया ज्ञान मुक्ति तक साथ देता हैं, पिताद्वारा प्राप्त शरीर तो इस जन्म के साथ ही नष्ट हो जाता है।
इसके अलावा मनु ने निम्न कुलों में उत्पन्न लोगों को भी भरपूर सम्मान देने का निर्देश दिया है। उन्होंने आज की भाषा में सामाजिक न्याय का भी काफी ध्यान रखा है। किसी व्यक्ति का जन्म यदि ऐसे कुल में हुआ हो, जो समाज में आर्थिक या अन्य दृष्टी से पनप न पाया हो तो उस व्यक्ति को केवल कुल के कारण पिछडऩा न पड़े और वह अपनी प्रगति से वंचित न रह जाए, इसके लिए मनु ने विधान बनाते हुए लिखा है कि अपंग जिसे आज दिव्यांग कहा जाता है, अशिक्षित, बड़ी आयु वाले, रूप और धन से रहित या निचले कुल वाले, इनको आदर तथा अधिकारों से वंचित न करें, क्योंकि यह किसी व्यक्ति की परख के मापदण्ड नहीं हैं।
बहुधा यह कह दिया जाता है कि भले ही मनु ने वर्ण परिवर्तन के ये विधान बनाए हों, परंतु इन पर कभी आचरण नहीं किया गया। कभी किसी का वर्ण परिवर्तन नहीं किया गया। यह सत्य नहीं है। यदि हम भारतीय ऐतिहासिक ग्रंथों को देखें तो हमें बड़ी संख्या में ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनका जन्म किसी और वर्ण में हुआ, परंतु बाद में वे किसी और वर्ण के हो गए। उदाहरण के लिए ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे। परन्तु वेदाध्यायन के द्वारा वे उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की। ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है। इसी प्रकार सत्यकाम जाबाल एक गणिका के पुत्र थे और उनके पिता का पता ही नहीं था, परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।
विष्णु पुराण में वर्णन आता है कि राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुन: इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। आगे उनके वंश में ही पुन: कुछ ब्राह्मण हुए। क्षत्रियकुल में जन्मे शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया। वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण के अनुसार शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए।
इस प्रकार हम पाते हैं कि मनु के विधान केवल सैद्धांतिक नहीं थे, वरन् लंबे समय तक इनका पालन भी होता रहा था।
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