सत्यकेतु विद्यालंकार अपनी पुस्तक ‘राजनीति शास्त्र’ के पृष्ठ 492 पर लिखते हैं-‘भारत में कभी सैकड़ों हजारों छोटे-छोटे राज्य थे। मालव, शिवि, क्षुद्रक, अरहट, आग्नेय आदि राज्य पंजाब में तथा शाक्य, वज्जि, मल्ल, मोरिय, बुलि आदि राज्य उत्तरी बिहार में थे। मगध के सम्राटों ने इन सबको जीतकर अपने अधीन किया। यदि इन सब राज्यों में निवास करने वाले ‘जनों’ को स्वभाग्य (कश्मीर के विषय में वहां की जनता के ‘आत्म निर्णय’ लेने की वकालत करने वाले ध्यान दें) निर्णय करने का अधिकार रहता तो एक शक्तिशाली भारतीय राष्ट्र का विकास कभी संभव न होता।’ विद्यालंकर जी के उक्त उद्घरण से यही सिद्घ होता है कि भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही सुदृढ़ केन्द्रीय सत्ता की स्थापना करने के लिए राजनीतिक प्रयास किये गये और इन्हीं प्रयासों ने इस विशाल भूखण्ड को सदा ही एक राष्ट्र बनाये रखा।
विद्यालंकर जी उसी पुस्तक में आगे लिखते हैं-‘राष्ट्र उस राज्य को कहते हैं जिसके निवासियों में राष्ट्रीयता की भावना विद्यमान हो, और परस्पर एक होने की अनुभूति हो। इस भावना के प्रादुर्भाव में निम्न लिखित तत्व सहायक होते हैं-नस्ल की एकता, भाषा की एकता, धर्म की एकता, भौगोलिक एकता, संस्कृति और ऐतिहासिक परंपरा की एकता और राजनीतिक आकांक्षाओं की एकता।’
हमारी दृष्टि में भी उक्त राष्ट्रीयता संबंधी तत्व भारत के संबंध में अपर्याप्त हैं। हमारा मानना है कि इनके साथ कुछ और भी जोड़ा जाना अपेक्षित है। इनमें सर्व प्रथम है- स्व-संस्कृति-गौरव भावना, दूसरा है-आध्यात्मिक रूप से समृद्घ अपने साहित्य के प्रति असीम अनुराग, तीसरा है-दार्शनिक क्षेत्र में कभी किसी की वैचारिक स्वतंत्रता को प्रतिबंधित न करने की भारत की वैज्ञानिक सोच, चौथा है-विभिन्न संप्रदायों के मध्य अनुकरणीय सामंजस्य स्थापित करने का अनूठा भाव और पांचवा है जो विश्व में केवल और केवल भारत के पास है-स्वराज्य का आत्मप्रेरक और उद्बोधक तत्व।
वेद धर्म की बांसुरी ,आकर दई बजाय।
दुम दबा दुश्मन भागे, गीत सुनौ ना जाए।।
राष्ट्र और सांस्कृतिक वैभव के प्रति ऐसे ही विचारों से ओतप्रोत थे आदि शंकराचार्य। शंकराचार्य अनूठे तत्वदर्शी एवं राष्ट्र निर्माता थे। उन्होंने सारे भारत का पैदल भ्रमण किया और मात्र 32 वर्ष के अपने जीवन काल में ही राष्ट्र के लिए बहुत कुछ कर गये। उन्होंने ही पहली बार यह चिंतन किया था कि देश में राष्ट्रीय भावना को मुखरित और जाग्रत रखने के लिए चार आध्यात्मिक धामों की स्थापना की जाए। इन धामों ने देश में सांस्कृतिक जागरण के अपने दायित्व को तो निभाया ही साथ ही राष्ट्रवाद की भावना को भी बलवती बनाया। जिस काल में आदि शंकराचार्य जन्मे थे उसमें डाक तार की व्यवस्था तो नहीं थी पर इन चारों धामों ने राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बनाए रखने के साथ-साथ सामाजिक समरसता को बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने तत्समय अहिंसा को ही सब कुछ मनाने वाले वाले लोगों की मानसिकता को समझा और उसका बहुत शांत भाव से प्रतिकार करते हुए देश की प्राचीन वैदिक संस्कृति का पुनरुद्धार करने का संकल्प लिया। वैदिक धर्म की रक्षा के लिए आदि शंकराचार्य जी ने अपने विरोधियों के अनेक प्रकार के कुचक्रों को निष्फल किया।
उन्होंने मंदिर संस्कृति को राष्ट्र मंदिर के लघु रूप में परिवर्तित किया । उन्होंने मंदिरों को राष्ट्र चंदन का केंद्र बनाया। राष्ट्र चिंतन के केंद्र बने इन मंदिरों में बैठकर उस समय संस्कृति की रक्षा का संकल्प लिया जाता था और धर्मचिन्तन के माध्यम से मनुष्य को मनुष्यत्व से देवत्व की ओर ले चलने की प्रक्रिया पर गहन चिंतन मंथन होता था।
तीर्थ धाम मंदिर बने, ओज – तेज भरपूर।
विषय व्यसन की गंध से सारे कोसों दूर।।
वेद के संगठन सूक्त के मर्मज्ञ इस ऋषि के पुण्य प्रताप का ही परिणाम था कि चारों धामों ने देश में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। निश्चित रूप से तब भी जबकि इस देश की राष्ट्रीयता को (रियासतों के रूप में) सैकड़ों खण्डों में तोड़ तोड़कर देखने का या स्थापित करने का विदेशी षडयंत्र भी जमकर रचा गया। यदि उन खण्ड-खण्ड राष्ट्रीयताओं के बीच रहकर भी हमारी एक राष्ट्रीयता होने पर किसी को आश्चर्य होता हो तो वह भारत के चारधामों के स्थापित करने के रहस्य को समझ ले, उसे अपने आश्चर्य का उत्तर मिल जाएगा। यदि ऐसा हो तो चारधामों के सृष्टा आदि शंकराचार्य के उच्च वैदिक चिंतन को नमन कर लिया जाए। सचमुच एक पारसमणि से संपर्क स्थापित हो जाएगा।
शंकराचार्य ने जगन्नाथपुरी, उज्जियिनी, द्वारका, कश्मीर, नेपाल, बल्ख, काम्बोज तक की यात्रा की और भारतीय वैदिक धर्म का डिण्डिम् घोष किया। उनके इस स्वरूप की आराधना आगे चलकर नरेन्द्र देव ने की तो वह नरेन्द्र से विवेकानंद हो गया और वैदिक धर्म को पुन: सत्य रूप में स्थापित करने का बीड़ा युवा मूल शंकर (जिसका मूल ही शंकर था) ने उठाया तो वह मूलशंकर से महर्षि दयानंद हो गया। उनके देश भ्रमण के काल में जहां-जहां उसके कदम पड़े वहां-वहां देशभक्ति के रस से सराबोर ऐसी ‘वनस्पतियां’ उगीं कि उनके रस को पी-पीकर अनेकों के जीवन में भारी परिवर्तन आ गया और देश उस अमृत के अमृतत्व के कारण स्वराज्य के लिए सदा संघर्षरत रहा। जब उनके शिष्यों ने पापाचार में फंसकर अवैदिक मार्ग का अनुकरण किया और ‘स्वराज्य’ के दीपक की लौ मद्घम पड़ने लगी तो महर्षि दयानंद ने उस दीपक में वेद के स्वराज्य-चिंतन का ऐसा तेल डाला कि एक दीपक के हजारों लाखों दीपक बनकर जगमगा उठे और ब्रिटिश साम्राज्य को यहां से उखड़ना पड़ा।
जब तेज हो नेता देश का, ओज संभाले भार।
समक्ष शत्रु टिकता नहीं, सुन वीरों की हुंकार।।
आचार्य शंकर ने बौद्घ धर्म के आचार्य मण्डन मिश्र के साथ इतिहास प्रसिद्घ शास्त्रार्थ किया था। शास्त्रार्थ की कठोर शर्तों में से एक शर्त ये भी थी कि इस शास्त्रार्थ में जो भी पराजित होगा वह विजयी के मत को स्वीकारेगा। यदि मण्डन मिश्र हारते हैं तो उन्हें संन्यासी का जीवन ग्रहण करना होगा और यदि शंकर हारे तो गेरूवा वस्त्र छोड़कर गृहस्थ जीवन अपना लेंगे। शर्त स्वीकार कर ली गयी, तो शास्त्रार्थ में निर्णायक की भूमिका मंडन मिश्रा की विदुषी पत्नी उभय भारती को प्रदान की गयी। उन्होंने शास्त्रार्थ की समाप्ति पर निर्णय शंकराचार्य के पक्ष में दिया। फलस्वरूप उनके पति को गेरूवा वस्त्र धारण कर संन्यास में दीक्षित होना पड़ा। इतिहास की ये बड़ी प्यारी घटना है। आध्यात्म के प्रति आस्थावान भारत में ही ये घटना घटित हो सकती थी। इसलिए मर्यादा और आदर्शों की स्थापना करने वाले महापुरूषों का सम्मान इतिहास को करना पड़ेगा।
कृष्ण वल्लभ द्विवेदी आचार्य शंकर के चारधाम संकल्प को यथार्थ में स्थापित करने के पुरूषार्थ पर विचार करते हुए अपनी पुस्तक ‘भारत निर्माता’ में लिखते हैं :-‘उनके इस विराट आयोजन का मुख्य उद्देश्य हमारे छिन्न-भिन्न राष्ट्रीय कलेवर को एक ही सांस्कृतिक सूत्र में गठित करके पुन: इस महादेश को लौकिक स्तर पर भी ऊंचा उठाने का गूढ़ संकल्प मात्र था। इसका स्थूल प्रमाण तो इस ऐतिहासिक तथ्य द्वारा हमें मिल रहा है कि अपने बाद भी देश की जाग्रति के अनुष्ठान को जारी बनाये रखने हेतु जो चार प्रधान धर्म केन्द्र अथवा संन्यासी मठ इस महापुरूष ने स्थापित किये थे, उनके लिए उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिमी अंचलों के धुर सीमान्तवर्ती चार महत्वपूर्ण धामों को ही उसने चुना था। कैसा दूरदर्शी था वह?
भारत में मंदिर संस्कृति चाहे जैसे आयी पर इसके विषय में एक सत्य ये भी है कि ये हमारे लिए उस समय एक आपात धर्म भी था। राजनीति जब खण्ड-खण्ड हो रही थी और एक सार्वभौम केन्द्रीय सत्त्ता को प्रदान करने में सर्वथा असफल होती जा रही थी, उस समय देश के धर्मशील, नीतिनिपुण लोगों ने मंदिरों को राष्ट्र चर्चा और धर्म चर्चा का अच्छा साधन समझा। मंदिर संस्कृति कालांतर में चाहे किसी भी अवस्था में विकृति को प्राप्त हुई परंतु उसका उद्देश्य पवित्र था। जो लोग राजनीतिक खेमों में न जाना उचित मानते थे वो मंदिरों के माध्यम से राष्ट्र चर्चा में सम्मिलित होते थे। अधिकांश मंदिरों को राजकीय संरक्षण प्राप्त होता था। अत: स्पष्ट है कि राजकीय लोगों को भी राष्ट्र चर्चा में सम्मिलित होने का अवसर मिलता था। यही कारण था कि छोटे छोटे राज्यों के स्वामी होकर भी कभी किसी ने स्वतंत्र देश की स्थापना नही की, और ना ही ऐसी मांग की।
राजनीति खंडित हुई , धर्म से हो गई दूर।
कायरता की जंग ने , सीना उसका नूर।।
जैसे लोगों ने मुस्लिम आक्रांताओं से बचकर जंगलों में अपना निवास कर लिया था वैसे ही देश के धार्मिक लोगों ने अपने धर्म के निर्वाह के लिए मंदिरों की संस्कृति का प्रचार प्रसार किया।
जब देश पर विदेशी आक्रमण कर रहे थे तो उसी समय देश में मंदिर संस्कृति का बड़ा ही उच्च स्तरीय प्रसार हो रहा था। इस प्रकार की गौरवमयी झलक की प्रस्तुति करते हुए कृष्णवल्लभ द्विवेदी अपनी उसी पुस्तक में लिखते हैं-‘सर्जन की देशव्यापी लहर के उफान में एक ओर खजुराहो, भुवनेश्वर, उदयपुर, (मध्य प्रदेश) ओसिया, मोढ़ेरा, सिद्घपुर, सोमनाथ और देलवाड़ा (आबू) आदि के ‘नागरशैली’ के महान उत्तरक्षेत्रीय देवालयों की और दूसरी ओर कांचीपुरम, ऐहोल, पट्टदकल, तंजावूर, सोमनाथपुर, हालेविद, बेलूर आदि स्थलों की ‘द्राविड़’ एवं ‘वेसूरशैली’ के दक्षिण भारतीय मंदिरों की भव्य कला सृष्टि हुई थी।भारत के वैदिक धर्म ने प्राचीन काल से ही मानव को भगवदभक्ति और राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाया है। प्राचीन काल में ऋषियों के आश्रमों से ऐसी ही गूंज निकला करती थी। कालांतर में आश्रमों के स्थान पर गुरूकुल आए और उनके पश्चात मंदिर संस्कृति आयी। मंदिर संस्कृति यद्यपि आश्रम संस्कृति की अपेक्षा दुर्बल थी, परंतु वह उसी संस्कृति की उत्तराधिकारिणी थी जिसका उद्देश्य मानव को भगवद्भक्ति और राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाना था।
भारतीय इतिहास लेखकों ने भारत में उस भौतिक राष्ट्रवाद के बीज ढूंढ़ने का प्रयास किया है जैसे उन्हें पश्चिमी जगत के चिंतन में दिखायी देते हैं, जिनमें संकीर्णता और तुच्छता रूपी उग्रता समाविष्ट है। जबकि भारतीय ऋषियों की राष्ट्रभक्ति इससे भिन्न थी। उसमें आध्यात्मिक राष्ट्रवाद था। जिसका उद्देश्य मानवतावाद था और पूरी वसुधा को ही एक परिवार और एक सरकार के नीचे विकास करने की उत्कृष्ट दैवीय संकल्पना थी। इस दैवीय संकल्पना का पवित्र उद्देश्य था कि सब ‘एक’ से जुड़ो और अपने सारे मतभेद भुलाकर एक हो जाओ। पूरी वाटिका में सर्वत्र विचरण करो और आनंद का अनुभव करो।
इस संकल्पना से निर्मित होने वाले भव्य और दिव्य परिवेश के लिए भव्य और दिव्य स्थल की निर्मिती आवश्यक थी और यह भव्य और दिव्य स्थल ही मंदिर कहलाए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत