#डॉविवेकआर्य
1926 में पंजाब में आद धर्म के नाम से अछूत समाज में एक मुहिम चली। इसे चलाने वाले मंगू राम, स्वामी शूद्रानन्द आदि थे। ये सभी दलित समाज से थे। स्वामी शूद्रानन्द का पूर्व नाम शिव चरन था। उनके पिता ने फगवाड़ा से जालंधर आकर जूते बनाने का कारखाना लगाया था। उन्होंने आर्यसमाज द्वारा संचालित आर्य हाई स्कूल में 1914 तक शिक्षा प्राप्त की थी। बाद में आर्यसमाज से अलग हो गये। इनका उद्देश्य दलित समाज को यह सन्देश देना था कि वो हिन्दू धर्म त्याग कर चाहे सिख बने, चाहे मुसलमान और चाहे ईसाई। पर हिन्दू न रहे। सत्य यह है जातिवाद एक अभिशाप है जिसका समाधान धर्म परिवर्तन से नहीं होता। उस काल में संयुक्त पंजाब के दलित स्यालकोट, गुरुदासपुर में ईसाई या सिख बन गये और रावलपिंडी, लाहौर और मुलतान में मुसलमान बन गए। पर इससे जातिवाद की समस्या का समाधान नहीं निकलता था। सिख बनने पर उसे मज़हबी कहा जाने लगा, ईसाई बनने पर मसीही और मुसलमान बनने पर मुसली। अपने आपको उच्च मानने वाले गैर हिन्दू अभी भी उसके साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध नहीं रखते थे। सिखों के हिन्दू समाज का पंथ के रूप में सम्मान था पर जो दलित हिन्दू जैसे रहतियें, रविदासिए, रामगढिये आदि थे उनके साथ उच्च समझने वाले सिखों का व्यवहार भी छुआछूत के समान था। आर्यसमाज ने ऐसी विकट परिस्थिति में अछूतोद्धार का कार्य प्रारम्भ किया। अछूतों के लिए आर्यों ने सार्वजनिक कुएँ खोले तो उनके बच्चों को पढ़ाने के लिए पाठशालाएँ और शिल्प केंद्र। पंडित अमीचंद शर्मा ब्राह्मण परिवार में जन्में थे। आपके ऊपर अछूतोद्धार की प्रेरणा ऐसी हुई कि आपने वाल्मीकि समाज में कार्य करना प्रारम्भ किया। आपने वाल्मीकि प्रकाश के नाम से पुस्तक भी लिखी थीं। इस पुस्तक में वाल्मीकि समाज को उनके प्राचीन गौरव के विषय में परिचित करवाया गया था।
आद धर्म सामाजिक सुधार से अधिक राजनीतिक महत्वाकांक्षा की ओर केंद्रित गया। 1931 की जनगणना में आद धर्म को जनगणना में हिन्दुओं से अलग लिखवाने की कवायद चलाई गई। इसके लिए अछूत समाज में जनसभायें आयोजित की जाने लगी। आर्यों ने इस स्थिति को भांप लिया। उन्हें कई दशक से अछूतोद्धार और विधर्मी बन गए अछूतों को वापिस शुद्ध कर सहधर्मी बनाने का अनुभव था। ऐसी ही एक जनसभा में शूद्रानन्द भावनाओं को भड़काने का कार्य कर रहा था। वो कहता था कि मुसलमान बन जाओ पर हिन्दू न रहो। आर्यों को उनकी सुचना मिली। आर्यसमाज के दीवाने पंडित केदारनाथ दीक्षित (स्वामी विद्यानंद के पिता) और ठाकुर अमर सिंह जी ( महात्मा अमर स्वामी) उस सभा में जा पहुंचे। कुछ देर सभा को देखकर दोनों खड़े हो गये। फिर ऊँची आवाज़ में बोले- ‘मैं बिजनौर का रहने वाला जन्म का ब्राह्मण हूँ, और ये अरनिया जिला बुलंदशहर के रहने वाले राजपुर क्षत्रिय हैं। स्वामी शूद्रानन्द कहते हैं कि हम तुम से घृणा करते हैं। तुम लोगों में से कोई दो गिलास पानी ले आये। पानी आ गया। एक गिलास पंडित जी ने पिया हुए एक अमर सिंह जी ने। दो मिनट में शूद्रानन्द का बना बनाया खेल बिगड़ गया। और हज़ारों लोग मुसलमान बनने से बच गये। पंडित केदारनाथ स्वामी दर्शनानन्द के उपदेशों को सुनकर आर्य बने थे। उस काल में जब अछूत के घर का कोई पानी पीना तक पाप मानता था ,तब आर्यों के उपदेशकों ने जमीनी स्तर कर अछूतोद्धार का कार्य किया था। उनका लक्ष्य राजनीतिक महत्वाकांशा को पूरा करना नहीं था अपितु मानव मात्र के साथ बंधु और सखा के समान व्यवहार करना था। आजकल के दलितोद्धार के नाम से दुकान चलाने वाले क्या शूद्रानन्द के राह पर नहीं चल रहे।