आदिवासी समाज के लिए भूमि पुत्र और प्रकृति पूजक संज्ञा उपयुक्त है। सनातन धर्म में जिस संस्कृति की चर्चा की जाती है, वह जनजाति का अभिन्न अंग है। क्योंकि मानव शास्त्रियों के अनुसार भारत में अनेकों जनजातियां प्राचीन समय से ही पाई जाती है। रामायण काल अर्थात त्रेता युग में सबरी और महाभारत काल अर्थात द्वापर युग में एकलव्य भील जनजाति का वर्णन मिलता है। दुर्गम क्षेत्रों , पर्वतों, पहाड़ों, घाटियों, दलदली क्षेत्रों, रेगिस्तानों और समुद्र तटों तथा जंगलों में रहने वाला अनुपम भारत है आदिवासी जनजाति वनवासी समाज।
भारतीय सनातन धर्म, संस्कृति, सभ्यता तथा प्रकृति की पूजा के धारक और संवाहक ये अनुसूचित जनजाति,मूल निवासी, आदिवासी ही हैं जो सुखी, पथरीली, दलदली और बंजर भूमि को अपनी मां मानते हैं और अपने मानव जीवन को धरती माता का प्रसाद मान कर जीवन जीते हैं।
भारत का आदिवासी आधुनिक भौतिक सुख-सुविधाओं की दौड़ से दूर जल – जंगल और जमीन के साथ बंधे अपने पूर्वजों के स्नेह सूत्र की रक्षा में लगा हुआ है।
‘आदिवासी’ संज्ञा आदि और वासी दो शब्द से मिलकर बनी है। जिसका अर्थ है मूलनिवासी। 1871 आदिवासियों को किसी धर्म से नहीं जोड़ा जाता था। लेकिन 1951 की जनगणना में अलग धर्म की बजाय हिंदू धर्म की पहचान से जोड़ा गया । जिसे शेड्यूल ट्राइब कहा जाने लगा। 1931 की जनगणना के अनुसार अनुसूचित जनजाति को वहिष्कृत और आंशिक रूप से वहिष्कृत क्षेत्रों में रहने वाली पिछड़ी जनजाति के रूप में मान्यता दी गई थी। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 और 366 में “ऐसी आदिवासी जाति या आदिवासी समुदाय या आदिवासी जातियों और समुदाय के भाग या उनके समूह के रूप में जिन्हें संविधान के उद्देश्य के लिए शेड्यूल ट्राइब माना गया है।”
भोटिया हिमाचल और उत्तराखंड की प्रमुख जनजाति है। यह छ: समूह में पाई जाती है। शौक, जोहरी,दारमी, तोलछा, मारछा एवं जाड। जौनसारी देहरादून जिले के जौनसार भावर प्रदेश के बीहड़ तथा पर्वतीय भागों में निवास करती है। थारू और बुक्सा उत्तराखंड तथा उत्तर प्रदेश में पाई जाती है। कुकी की उत्पत्ति मंगोल प्रजाति से मानी जाती है । इन लोगों का निवास क्षेत्र पश्चिमी सीमा कर्णफूली और उसकी सहायक नदियों के आस पास है। किन्नौर हिमाचल की महत्वपूर्ण जनजाति है। इन्हें कनोवर नाम से भी जाना जाता है। इनके धार्मिक प्रमुख ‘लामा’ कहलाते हैं। मेघालय में गारो और खासी जनजाति प्रमुख है। गारो लोगों ने मुख्यता ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया है। नागालैंड के नागा अपने शौर्य एवं पराक्रम के लिए विख्यात है। डबरा गुजरात राज्य की एक महत्वपूर्ण जनजाति है। जिसका निवास क्षेत्र सूरत जिले के आसपास है। इनके महत्वपूर्ण देवी देवता भरम देव, हालिया तथा काका है। मीणा, सहारिया और गरासिया राजस्थान और मध्यप्रदेश की प्रमुख जनजाति है। भील जनजाति मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा गुजरात में प्रमुख रूप से पाई जाती है। संथाल या संतान बिहार राज्य की प्रमुख जनजाति है । भारत में गोंड जनजाति के बाद इसकी संख्या दूसरे नंबर पर मानी गई है। बिहार के अतिरिक्त यह पश्चिमी बंगाल व उड़ीसा निवास करती है। बिहार का संथाल परगना जिला इनका मुख्य निवास है। खोंड उड़ीसा का सबसे बड़ा जनजाति समूह है। इन लोगों को ‘कुई’ नाम से भी संबोधित किया जाता है ।इनकी उपजातियां मलियाह खोंड, कुटिया खोंड, डोंगरिया खोंड ,कुई खोंड तथा देशिया खोंड है। गोंड भारत की सर्वाधिक प्रमुख जनजातियों में से एक है। भौगोलिक दृष्टि से यह व्यापक क्षेत्र दक्षिण में गोदावरी तथा उत्तर में विंध्याचल तक फैली हुई है। मराठा आक्रमण से पूर्व गौंड का अपना शासन था । गौंडवाना शासन का अंत 1780 में माना जाता है। मंडला जिला गौंड का प्रमुख केंद्र माना जाता है। ‘हो’ झारखंड और उड़ीसा की महत्वपूर्ण जनजाति है। उरांव जनजाति का प्रमुख निवास स्थान छोटानागपुर क्षेत्र है। कोरकू की दो शाखाएं – राय कोरकू और पथरिया कोरकू है। एक दूसरा वर्गीकरण इन्हें कोरकू, मेवासी, बावरिया, रुमा और बदोया में बांटता है। महाराष्ट्र के कोरकू ‘भोमादय’ कहलाते हैं। बैगा भारत के मध्य में निवास करने वाली जनजाति है। यह मध्य प्रदेश में मंडला बालाघाट और बेतूल जिलों में निवास करती है । भारिया का विस्तार क्षेत्र मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा, सिवनी, मंडला और सरगुजा जिला है। इनका उद्गम स्थान पातालकोट माना जाता है। अबूझ माडिया अथवा हिलमाडिया बस्तर के अबूझमाड़ क्षेत्र में पाई जाने वाली प्रमुख जनजाति है। नीलगिरी की पहाड़ियों में निवास करने वाले आदिवासी आस्ट्रेलोईट प्रजाति की वंशज है। जिसे टोडा जनजाति के नाम से पुकारा जाता है। उराली दक्षिण भारत के केरल राज्य में पाई जाती है। केरल के इदही जिले में सर्वाधिक संख्या में पाए जाते हैं। अंडमान द्वीप समूह की जरावा , ओंगी, सेंटिनल और अण्मानी निग्रेटो तथा निकोबार द्वीपसमूह के निकोबारी और शोम्पीयन मंगोलियाई समूह की है। इनके अलावा भी आजादी के बाद समय-समय पर कई जातियों ने अपने को जनजाति समूह में जोड़ा है। जैसे बंजारा,पारधि आदि।
आदिवासीयों की अनेक ज्वलंत समस्याएं हैं जो इनके सामने कई चुनौतियों और दुविधाएं पैदा कर रही है । एक ओर आदिवासियों के सामने आधुनिक सभ्यता, प्रौद्योगिकी और विकास के आयाम हैं और दूसरी ओर इनकी सांस्कृतिक धरोहर, परंपराएं एवं रीति रिवाज है। किसी जमाने में आदिवासी का जीवन जंगल की उपज पर निर्भर था। औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात जंगलों की कटाई तेजी से हुई। किंतु जमीन जंगल का महत्व आदिवासियों के लिए कम नहीं हुआ। भारत के अधिकांश आदिवासियों की रोजी-रोटी अभी भी परंपरागत तरीकों से जुड़ी हुई है। लेकिन औद्योगिक क्रान्ति और शहरीकरण के चलते भारत की लगभग सभी जनजातियों के परंपरागत कार्य समाप्त होने के कागार पर हैं और इन्हें कई सामाजिक और सांस्कृतिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। विस्थापन आदिवासियों की प्रमुख समस्याएं बन गई है। बांधों का निर्माण और अधिकाधिक कारखानों की स्थापना तथा अन्य विकास कार्यों के लिए जमीन का उपयोग इन्हें अपने प्राकृतिक आवास से बेदखल कर रहा है । अपनी पहचान मिटने का खतरा बना हुआ है। पलायन दुसरी बड़ी विकराल समस्या है। जैसा की विदित है कि आदिवासी दूरदराज और कम वर्षा वाले क्षेत्र तथा रेगिस्तानी भागो में निवास करता है । उसे अपनी जीविका चलाने के लिए मौसमी रोजगार ढूंढने के लिए पलायन करना पड़ रहा है। इस पलायन के बहुत सारे दुष्परिणाम सामने आ रहे है। तीसरी सबसे बड़ी समस्या आदिवासी समाज में नशाखोरी है। यद्यपि प्रकृति से प्राप्त फल फूल से आदिवासी समाज आदि अनादि काल से ही नशा करता आया है। लेकिन अब नशा एक सामाजिक बुराई के रूप में उभर रहा है। बड़े पैमाने पर रीति रिवाज और तीज त्यौहारों तथा शादी ब्याह के समय नशा करने की प्रथा बन गई है। जिससे बहुत ज्यादा धन जन की हानि हो रही है। वनवासी समाज प्रकृति को ही अपने देवी-देवताओं के रूप में पूजता है, लेकिन अशिक्षा, गरीबी, सामाजिक बंदिश और वर्जनाओं के मकड़जाल में उलझ कर कई विसंगतियों का शिकार बनाता जा रहा है। नस्लवाद और धर्म परिवर्तन के कारण आदिवासी समुदाय पर से अन्य भारतीय समाज का भरोसा टुटता जा रहा है। अज्ञानता, शोषण, गरीबी और पिछड़ेपन के कारण वह शिक्षा से पहले से ही वंचित रहा है और अभी भी अच्छी शिक्षा के लाले पड़े है। ईसाई मशीनरी का धर्मांतरण का सिलसिला अंग्रेजों के जमाने से शुरू होकर आज भी अनवरत रूप से चल रहा है।
भारत के आदिवासी की सबसे बड़ी समस्या है धर्म की मान्यता । वर्तमान परिदृश्य में निकोबार लक्ष्य द्वीप, जम्मू कश्मीर का आदिवासी समाज इस्लाम धर्म, उत्तर पूर्वी राज्य क्षेत्र और पहाड़ी लोग ईसाई धर्म, लद्दाख और हिमाचल प्रदेश के बौद्ध तथा मध्य प्रांत, बिहार, उड़ीसा व छत्तीसगढ़ के आदिवासी समुदाय ‘किंतु परंतु’ के साथ हिंदू धर्म के साथ जुड़ा हुआ है। इस परिस्थिति में उनकी एक “सर्वमान्य धार्मिक” पहचान नहीं है। बीच-बीच में कुछ आदिवासी समुदाय अपने आपको किसी भी धर्म का अंग नहीं मानने की घोषणा करते रहते हैं। धार्मिक पहचान नहीं होने के कारण उनका आत्मबल बहुत ही कमजोर है। तकनीकी और आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ा होने के कारण तकनीकी आधारित सरकारी और गैर सरकारी नौकरियों से वंचित है। आदिवासी समाज पारंपरिक सांस्कृतिक पहचान को अपनी धरोहर मारता है। इस कारण से गैर आदिवासी आबादी के साथ आत्मसात करने की समस्या अन्य समुदायों से जोड़ने में बहुत बड़ी बाधा बनी हुई है। आदिवासी समाज के साथ रंग रूप, पहनावा, भाषा और खानपान के कारण ‘हाशियाकरण’ भेदभाव होता है। ‘दीकुओ’ अर्थात बाहरी लोग,भू माफिया और उधोगपति उनका प्रारंभ से शोषण करते आए हैं। ऋणग्रस्तता और स्वास्थ्य की समस्या को नजरअंदाज नहीं किया जा है।
आजादी के समय से राजनीतिक दल आदिवासी समुदाय को अपना वोट बैंक मानते रहे हैं। झारखंड, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल तथा उत्तर पूर्वी राज्य के आदिवासी वामपंथी दलों के प्रभाव में रहे हैं और गाहे-बगाहे अपना मत भी उन्हें देते रहे हैं। दक्षिण भारत, जम्मू कश्मीर, असाम, और बिहार के आदिवासी मतदाताओं का झुकाव प्रायः क्षेत्रीय पार्टियों की ओर रहा हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात और उत्तर प्रदेश के आदिवासी कांग्रेस को मतदान करते रहे हैं।
पिछले एक-दो लोकसभा और राज्यों की विधानसभा के चुनाव में आदिवासी समुदाय ने सब का भरम तोड़ कर निचोड़ दिया है। वर्षों से गैर आदिवासी समाज विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों के लोगों ने आदिवासी पोशाक,रहन सहन,रिती रिवाज और पारंपरिक संस्कृति का जो मजाक उड़ाया उसका जवाब पढ़े-लिखे आदिवासी युवा दे रहे हैं। जब से आदिवासी समुदाय में सामाजिक और राजनीतिक चेतना के साथ सुलभ शिक्षा का प्रादुर्भाव हुआ है। तब से आदिवासी समाज अपना भला-बुरा समझने लगे हैं और राजनीतिक दलों को घाट घाट का पानी पिलाने लगे हैं। पिछले दो दशक से आदिवासी समाज ने यह सिद्ध कर दिया है कि वह किसी भी राजनीतिक दल का बंधुआ मजदूर नहीं है।
आदिवासी समाज का वर्तमान नेतृत्व “एक हाथ दो, दूसरे हाथ लो” की भुमिका में आ गया है। अब राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों को आदिवासी समुदाय के विकास पर गंभीरता से सोच विचार करना होगा। वरना चुनाव परिणाम के दिन हवाइयां फांकते रह जाएंगे।
डॉ बालाराम परमार ‘हॅंसमुख’
“अण्डमान निकोबार द्वीपसमूह का क्षेत्रीय भूगोल एवं जन जातियां ” के लेखक और सामाजिक समरसता क्षेत्र में कार्यरत हैं
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