मृत्युंजय ऋषि शरभंग
हमारे देश में प्राचीन काल में ऐसे अनेक ऋषि- मुनि, योगी, महात्मा थे जो मृत्युंजय कहे जाते थे। जब वह देखते थे कि अब उनका यह शरीर काम करने के योग्य नहीं रहा ,तब वह इसे स्वेच्छा से त्याग दिया करते थे। जब भारत के चक्रवर्ती राजाओं की परंपरा समाप्त होने लगी और बाहरी देशों में नए-नए संप्रदाय नई-नई संस्कृतियों को लेकर खड़े होने लगे तो इससे मानवतावादी वैदिक संस्कृति के वैज्ञानिक स्वरूप को भारी हानि हुई। उस समय दूर देशों के लोग हमारे ऋषि मुनियों के इच्छा मृत्यु के कार्यों को देखकर आश्चर्यचकित होकर दांतो तले उंगली दबा लेते थे।
दिव्यता की चेतना में विश्वास करते थे सभी,
राष्ट्र के साधक हमारे पूर्वज होते थे सभी।
दिव्य उनके कर्म थे , चरित्र उनका पूज्य था,
पूज्य के पूजन में, न प्रमाद करते थे कभी।।
भारत में रामायण काल में एक ऐसे ही महान तपस्वी ऋषि थे जिनका नाम शरभंग था। शरभंग उस समय तपोबल में बहुत अधिक ऊंचाई को प्राप्त कर चुके थे। वे संपूर्ण भारतवर्ष में वैदिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार के कार्य में लगे हुए थे। यद्यपि राक्षस प्रवृत्ति के लोग उनके इस प्रकार के परोपकारी कार्य में अनेक प्रकार के विघ्न डालते थे , परंतु इसके उपरांत भी वह शांत-भाव से अपने कार्य में लगे रहते थे। उस समय मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम दंडकारण्य में पधार चुके थे और शरभंग ऋषि ने उनके विषय में बहुत कुछ सुन लिया था। वह श्री रामचंद्र जी के दर्शन कर उन्हें राक्षसों के संहार के लिए प्रेरित करके संसार से जाने का मन बना चुके थे।
जिस समय मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम शरभंग ऋषि के आश्रम में पहुंचे उस समय ऋषि अग्निहोत्र कर रहे थे । श्री राम ने उनके चरण छूकर प्रणाम किया और आशीर्वाद प्राप्त किया। श्रीराम ने उनसे कहा कि मैं इस वन में रहना चाहता हूं। आप मुझे यहां रहने के लिए कोई स्थान बताइए।
श्रीराम के ऐसा कहने पर शरभंग बोले – हे राम ! इस वन में महातेजस्वी और धर्मात्मा सुतीक्ष्ण नामक एक ऋषि रहते हैं। वे आपके कल्याण और आपके स्थान आदि का सब प्रबंध कर देंगे। आप इस मंदाकिनी नदी के किनारे – किनारे ऊपर की ओर जाइए। इस नदी में अनेक बड़े-बड़े फूल छोटी – छोटी नौकाओं की भांति दिखाई देते हैं। उन्हें देखते हुए तुम सुतीक्ष्ण के आश्रम में पहुंच जाओगे।
राम के अनुरोध पर, बोले ऋषि शरभंग।
पास सुतीक्ष्ण जायकै, कर लीजौ सत्संग।।
यह मार्ग वहां जाने का है परंतु थोड़ी देर ठहर जाओ और मुझे देखिए। जब तक मैं इस जीर्ण शरीर को सांप की केंचुली की भांति छोड़ न दूं । ऐसा कहकर महातेजस्वी शरभंग ने अग्नि प्रज्वलित करके मंत्रपूर्वक घृत के द्वारा विशाल यज्ञ किया। फिर वे उस जलती हुई अग्नि में कूद पड़े। उस समय अग्नि ने उन महात्मा शरभंग के रोम, केश , जीर्ण - त्वचा ,हड्डियां और रुधिर सहित मांस को भस्म कर डाला। भाई लक्ष्मण और सीता सहित श्री राम इसे देखकर बहुत विस्मित हुए।
हमारे महान ऋषि इस शरीर को बदलने के लिए जब स्वयं यह देखते थे कि अब यह जीर्ण-शीर्ण हो गया है तो स्वेच्छा से इसे अग्नि के समर्पित कर देते थे। यह आत्महत्या नहीं थी। आत्मोत्सर्ग भी नहीं था, अपितु इन सबसे बढ़कर था। आत्महत्या एक ऐसा कार्य है जिसमें मनुष्य के हृदय में तामसिक वृत्तियां प्रबल हो जाती हैं, तब अज्ञान के अंधकार में ऐसा कार्य संपन्न होता है। जिसे बहुत ही निम्न स्तर का कार्य माना जाता है। जबकि आत्मोत्सर्ग देश भक्ति के वशीभूत होकर भी किया जा सकता है। पर जब आत्मोत्सर्ग की भावना होती है तो वह राजसिक भावना के साथ भी परिलक्षित हो सकती है। ऋषियों के द्वारा अग्नि में अपने आपको भस्म कर लेने की यह क्रिया सात्विक भाव से की जाती थी । अतः यह आत्मोत्सर्ग की और भी उत्कृष्ट भावना थी। यहां उत्सर्ग उत्सव में बदल गया। जिसमें हमारे ऋषि पूर्वजों की मानसिक व्रतियों उनके अधीन होती थीं और वह बहुत शांतभाव से परमपिता परमेश्वर की गोद में बैठकर इस शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर की यात्रा के लिए निकल पड़ते थे ।
ऋषियों की इस परंपरा का प्रभाव भारतवर्ष के जनसाधारण पर भी पड़ा। ऋषियों के देश भारत में ऋषियों की इस प्रणाली को हमारे अनेक क्रांतिकारियों ने भी अपनाया और कितनी ही वीरांगनाओं ने इसी भाव को अपनाकर बड़े शांतमन से जौहर का मार्ग अपनाया।
ऋषियों के इस देश में उत्सव के कई रूप।
देश धर्म पर मर मिटे , भारत के कई भूप।।
यदि ऋषि का शरीर त्यागने का यह कार्य किसी क्रोधावेश में आकर किया जा रहा होता या किसी कष्ट के कारण किया जा रहा होता तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम उन्हें कदापि ऐसा नहीं करने देते। वह अनुनय- विनय करते और उनके कष्ट के निवारण के लिए अपने आपको समर्पित करते। परंतु वे ऋषि के इस कार्य को शांतभाव से देखते रहे तो इसका कारण केवल एक ही था कि उस समय हमारे देश में यह परंपरा प्रचलन में थी, अर्थात जब शरीर जीर्ण – शीर्ण हो जाए तो ऋषि लोग इस मार्ग से अपने शरीर का अंत कर लिया करते थे। यही कारण था कि श्री राम अपने भाई लक्ष्मण और धर्मपत्नी सीता जी के साथ इस घटना को विस्मित भाव से दूर खड़े होकर देखते रहे।
वाल्मीकि कृत रामायण का भाष्य करते हुए स्वामी जगदीश्वरानंद सरस्वती जी महाराज इस घटना के संदर्भ में लिखते हैं कि ‘ऋषि लोग अपने तप के द्वारा मृत्युंजय बन जाया करते थे। जब यह समझते थे कि अब हमारे शरीर जीर्ण हो गए हैं तब वे इच्छानुसार अपना शरीर त्याग दिया करते थे। यह परंपरा पर्याप्त समय तक चलती रही।
जब सिकंदर भारत पर आक्रमण करने के लिए चला तो उसके गुरु ने कहा था कि भारत वर्ष से कोई योगी लाना। बहुत यत्न के पश्चात एक भारतीय योगी उसके साथ जाने के लिए तैयार हुआ। एक दिन प्रातः काल उस योगी ने सिकंदर को आदेश दिया कि चिता तैयार कराओ । मैं अभी अपने शरीर को समाप्त करना चाहता हूं। सिकंदर ने ऐसा न करने के लिए बहुत अनुनय विनय की, परंतु योगी ने कहा कि मेरी अवस्था 80 वर्ष की है। मुझे आज तक कभी ज्वर नहीं आया। आज मुझे ज्वर हो गया है। अतः मेरा शरीर अपवित्र हो गया है। मैं इसे समाप्त करना चाहता हूं और उसने अग्नि में प्रवेश होकर अपने शरीर को भस्म कर दिया।
महर्षि दयानंद भी मृत्युंजय थे। मौत उनके पास आती थी परंतु वे उसे ठोकर मार कर भगा देते थे। दीपावली के दिन उन्होंने अपनी इच्छा से ही देह त्याग किया था।
मृत्युंजय दयानंद ने, किया था जब प्रयाण।
दिन मर्जी से चुन लिया, त्याग दिए थे प्राण।।
हमारे देश को ऋषि और कृषि का देश कहा जाता है। इसका कारण केवल एक है कि हमारे ऋषियों की सात्विक वृत्ति ने इस देश के जनसाधारण को गहराई से प्रभावित किया है। जब देश के लिए बलिदान देने का समय आया तो ऋषियों की स्वीकृति के को अपनाकर हमारे अनेक देशभक्तों ने अपना बलिदान देने में तनिक भी संकोच नहीं किया था।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत