भारत के 50 ऋषि वैज्ञानिक अध्याय – 47 सिक्ख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव

सिक्ख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव

जब भारत को विदेशी मुस्लिम शासक अपने अत्याचारों से उत्पीड़ित और त्रस्त कर रहे थे, तब भारत के वैदिक धर्म की पताका को लेकर जन्मे गुरु नानक देव जी ने सामाजिक क्रांति करते हुए भारतीयता को नवजीवन देने का महनीय कार्य किया था। विश्वबंधुत्व और मानवता के पुजारी सिखों के प्रथम गुरु नानक देव जी का जन्म कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के दिन 15 अप्रैल, 1469 को रावी नदी के किनारे स्थित तलवंडी राय भोई गाँव में श्रीमति तृप्ता देवी की पवित्र कोख से और पिता कालूराम पटवारी के घर में हुआ था। इस स्थान को आजकल हम ननकाना साहब के नाम से जानते हैं। जिस समय गुरु नानक देव इस पवित्र भूमि पर विचरण कर रहे थे उस समय यहां लोदी वंश का शासन था। बाबर, हुमायूं और शेरशाह सूरी के साथ-साथ मेवाड़ के महाराणा संग्राम सिंह भी इनके ही समकालीन थे। स्पष्ट है कि वह इस्लामिक आक्रमणकारियों के आतंक पूर्ण काल में हुए थे जब सर्वत्र भारत और भारतीयता के लिए अनेक प्रकार के संकट मुंह बाए खड़े थे। गुरु जी के प्रकटोत्सव को भारत के लोग गुरु पर्व के रूप में मनाते हैं। इस पर्व को प्रकाश पर्व के नाम से भी जाना जाता है।

गुरु नानक परगट भए , काटे शक्ल क्लेश।
मानवता मुखरित हुई, शीश झुकाता देश।।

कम पढ़े लिखे हो कर भी गुरु नानक देव जी का आंतरिक ज्ञान बड़ा प्रबल था। इनका विवाह सोलह वर्ष की अवस्था में सुलखनी देवी के साथ हुआ। इनके श्रीचन्द और श्री लक्ष्मीचन्द नाम के दो पुत्र थे। लोगों को सदज्ञान की ओर ले जाने के लिए नानक जी ने ही गुरु ग्रंथ साहिब की आधारशिला रखी। गुरु नानक देव ने इस सांसारिक जीवन से वर्ष 1539 में करतारपुर, पंजाब में प्राण त्यागे थे। 
  नानक जी के जीवन काल की परिस्थितियों पर यदि विचार किया जाए तो उस समय इस्लाम भारत में अपना तांडव मचा रहा था। हिंदुओं पर चुन-चुन कर हमले किए जा रहे थे। सरकारी सेवाओं में मुसलमानों का वर्चस्व था। हिंदू देश में बहुसंख्यक होने के उपरांत भी उत्पीड़न और अत्याचारों का शिकार था।

भारत के ही लोग अपने वैदिक अतीत से वंचित हो चुके थे। बहुत कम लोग शुद्ध वैदिक और वैज्ञानिक ज्ञान रखते थे। उन परिस्थितियों में वेद धर्म के परिष्कर्त्ता के रूप में नानक जी का पदार्पण हुआ। उन्होंने अपनी भाषा में वैदिक सिद्धांतों को एकत्र करना आरंभ किया। गुरु ग्रंथ साहिब के अंदर उन्होंने अधिक से अधिक ऐसे सिद्धांतों को रखने का कार्य आरंभ किया जो हमारी पुरातन सनातन संस्कृति के प्रतीक थे और उसकी रक्षा करने में सहायक हो सकते थे। नानक जी ने जिस अकाल पुरख की बात की वह वही परमपिता परमेश्वर है जिसे हम ओमकार के नाम से जानते हैं। इसी का अर्थ करते हुए उन्होंने ‘सर्वमहान, सत्य सत्ता’ का सिद्धांत प्रतिपादित किया। हमारे पुरातन सनातन धर्म ग्रंथ सर्वमान्य सत्य सत्ता के ही उपासक रहे हैं।

सत्य सनातन धर्म की रक्षा का लिया भार।
ऋषि मुनियों की वाणी से कीन्हौ बेड़ा पार।।

सिक्ख का शाब्दिक अर्थ – ‘शिष्य’ अर्थात् सिख ईश्वर के शिष्य होता है । शिष्य पवित्र ज्ञान का पिपासु और जिज्ञासु होता है। वह आर्यत्व की साधना में लगा होता है और श्रेष्ठता को प्राप्त कर अपने पूर्वजों के अर्थात गुरुओं के दिए हुए ज्ञान का प्रचारक प्रसारक बनता है। गुरु जी इस बात को भली प्रकार जानते थे कि इस समय जब इस्लाम के मानने वाले लोग मिशनरी भावना से काम कर अपने धर्म का प्रचार प्रसार कर रहे हैं, तब भारतीय धर्म सत्ता के मौलिक तत्वों का चिंतन और प्रसारण करना समय की आवश्यकता है। इसके लिए ही उन्होंने ऐसे समर्पित शिष्यों की परंपरा चलाई जो श्रीराम जी और श्रीकृष्ण जी की संस्कृति को आगे लेकर चलने में सफल हों। गुरु नानक जी भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा संत थे । उन्होंने भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की रक्षा के लिए ही अपने शिष्यों को समर्पित होकर काम करने की शिक्षा दी।
सिखों के इतिहास पर यदि हम विचार करें तो पता चलता है कि गुरु नानक जी की इसी सिख परंपरा का उनके बाद के 9 गुरुओं ने अपने अपने समय में पालन करने का हर संभव प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने मुग़ल सत्ता से टकराने का साहसिक कार्य भी किया और देश में वैदिक हिंदू संस्कृति की रक्षा के लिए अनेक ऐतिहासिक बलिदान दिए। गुरुओं के बलिदानों से पता चलता है कि उन्होंने अपने जीवन को प्रकाश स्तंभ के रूप में ढाल दिया था। उनके इस प्रकाश स्तंभ से उस समय के हिंदू समाज ने असीम ऊर्जा प्राप्त की और उस ऊर्जा का राष्ट्रहित में उपयोग करते हुए विदेशी सत्ताधारियों को अनेक बार धूल चटाने में सफलता प्राप्त की। सिक्खों के अन्य 9 गुरुओं के नाम इस प्रकार हैं: – गुरु अंगद (1504-1552), गुरु अमर दास (1479-1574) , गुरु राम दास (1534-1581) ,गुरु अर्जुन देव (1563-1606) ,गुरु हरगोबिंद (1594-1644) , गुरु हर राय (1630-1661) , गुरु हरकिशन (1656-1664), गुरु तेग बहादुर (1621-1675), गुरु गोबिंद सिंह (1666-1708)।

नवग्रहों के रूप में , नौ गुरुओं की शान।
भारत भक्त सारे रहे, कर दिया जीवनदान।।

गुरु नानक देव जी के जन्म काल अर्थात 14 69 ईसवी से लेकर 1947 तक अर्थात जब तक देश आजाद हुआ तब तक, सिख समाज ने देश की आजादी के लिए और धर्म की रक्षा के लिए अथक प्रयास और संघर्ष किया। इस दीर्घकालिक संघर्ष गाथा में गुरु नानक देव जी का राष्ट्र चिंतन उनके शिष्यों के लिए प्रेरणा स्रोत बना रहा। गुरु नानक देव जी के द्वारा स्थापित की गई गुरु परंपरा में आगे चलकर गुरु गोविंद सिंह जी हुए उन्होंने ही खालसा पंथ की स्थापना 1699 को बैसाखी वाले दिन आनंदपुर साहिब में की थी। इस दिन उन्होंने सर्वप्रथम पाँच प्यारों को अमृत छकाकर खालसा बनाया तथा तत्पश्चात् उन पाँच प्यारों के हाथों से स्वयं भी अमृत छका।
सिख धर्म के तीन कर्त्तव्य बताए गए हैं:- नाम जपना, कीरत करना, वंड छकना। इसके साथ पाँच दोष भी बताए गए हैं – काम, क्रोध ,मोह ,लोभ और अहंकार। यदि इन दोषों पर मानव विजय प्राप्त कर ले तो उसका जीवन सोने से कुंदन बन सकता है। यह कुंदन बना जीवन ही व्यक्ति को मोक्ष की ओर ले जाता है। इस प्रकार गुरु नानक जी मानव जीवन को उन्नत करने के लिए उसी कठोर साधना के समर्थक थे जो कभी वैदिक ऋषि अपने लिए और समाज के लिए निर्धारित किया करते थे। जैसे स्वामी दयानंद जी महाराज ने आर्य समाज को देश के वैदिक हिंदू समाज की प्रत्येक जाति के लिए सर्व सुलभ बनाया था वैसे ही गुरु नानक जी ने भी सिख पंथ को सभी वैदिक धर्मी हिंदुओं के लिए सर्व सुलभ बनाने का प्रशंसनीय कार्य किया। सिक्ख पंथ की सदस्यता लेने से व्यक्ति जाति बंधन से मुक्त होता है। इस प्रकार यह वैदिक ऋषियों के चिंतनादर्श अर्थात वर्ण व्यवस्था में विश्वास रखने वाला पंथ है।

जाति बंधन छोड़ दो ,यही मनुज का धर्म।
देश हित जीवन धरो, यही है उत्तम कर्म।।

गुरु नानक जी ने अपने समय में समाज में व्याप्त अनेक प्रकार की कुरीतियों, पाखंडों और आडंबरों का विरोध किया । उन्होंने सती प्रथा, बलि प्रथा, मूर्ति पूजा, पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियों पर कड़ा प्रहार किया। इसके साथ ही साथ जो लोग उस समय हिंदू धर्म को क्षतिग्रस्त करने के लिए बड़ी संख्या में हिंदुओं का धर्मांतरण कर रहे थे, उसका भी उन्होंने कड़ा विरोध किया। धर्मांतरण का विरोध करने की उनकी प्रवृत्ति से पता चलता है कि वह हिंदू धर्म रक्षक और समाज सुधारक संत थे। उन्होंने समाज में व्याप्त छुआछूत ,अस्पृश्यता अथवा ऊंच-नीच की अमानवीय मानसिक वृत्तियों का भी विरोध किया। वह जानते थे कि यदि हिंदू समाज इस प्रकार की मानसिक वृत्तियों का दास होकर बिखर गया तो वह अपना अस्तित्व नहीं बचा पाएगा और विदेशी सत्ताधारी उसे बड़ी सहजता से अपना शिकार बना लेंगे। यही कारण था कि देश की सामाजिक समरसता और हिंदू समाज की एकता को बनाए रखने के लिए उन्होंने हिंदुओं की एकता पर बल देते हुए इन कुरीतियों का विरोध किया। उन्होंने लंगर जैसी पवित्र परंपरा का शुभारंभ किया। जिसमें ऊंच-नीच ,भेदभाव, छुआछूत के असामाजिक और अमानवीय दृष्टिकोण को छोड़कर लोग एक साथ बैठकर भोजन करते हैं।

पंगत ला संगत सजे, यही लंगर कौ मूल।
एक पिता के पुत्र हैं, संशय ना कोई शूल।।

गुरु नानक जी ने नारी के महत्व को समझाते हुए कहा है कि –“ सौ किऊँ मंदा आखीऐ जिसे जम्मे राजनl“ उस नारी को बुरा किस लिये कहा जा सकता है जिसने बड़े -बड़े राजाओं, महापुरुषों और महान संतों को जन्म दिया है।
इस प्रकार गुरु जी ने नारी को राष्ट्र निर्मात्री के रूप में देखा। वास्तव में उनका यह चिंतन भी वैदिक ऋषियों के चिंतन को पुनर्स्थापित करने वाला चिंतन था।
गुरुजी के 10 उपदेशों में प्रमुख हैं :- ईश्वर एक है। अनेक देवी देवताओं के चक्र में न फंसकर सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करो। जगत का कर्ता परमपिता परमेश्वर निराकार रूप में सब जगत और सब प्राणी मात्र में वर्तमान रहता है। सर्वशक्तिमान ईश्वर की भक्ति करने वालों के भीतर निर्भीकता आ जाती है और वह किसी से भय नहीं मानते। ईमानदारी से परिश्रम और उद्यम करके उदरपूर्ति करना चाहिये। धार्मिक व्यक्तियों के लिए आवश्यक है कि वे बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताएँ। मनुष्य को अच्छा स्वास्थ्य और दीर्घायुष्य प्राप्त करने के लिए सदा प्रसन्न रहना चाहिए, ईश्वर से सदा अपने को क्षमाशीलता मांगना चाहिये। मेहनत और ईमानदारी से कमाई करके उसमें से ज़रूरतमंद को भी कुछ अंश देना चाहिये
। संसार के सभी स्त्री और पुरूष बराबर हैं। भोजन शरीर को जीवित बनाए रखने हेतु आवश्यक है, पर लोभ -लालच व संग्रहवृत्ति बुरी है, अर्थात मनुष्य को अपरिग्रहवादी होना चाहिए।
गुरु जी का परलोक गमन 22 सितंबर 1539 को हुआ।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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