रामेश्वर पांडेय: मुंह में ब्राम्हण और बगल में लाल झंडा* ( ब्राम्हणणवादी पत्रकारिता का बदबूदार उदाहरण थे रामेश्वर पांडेय )

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आचार्य विष्णु हरि सरस्वती

मैंने घोर कम्युनिस्टों का जाति प्रेम साक्षात देखा है, ये किसी कर्मकांडी ब्राम्हण से भी घोर जातिवादी होते हैं। पत्रकारों और लेखकों में जो कम्युनिस्टों के बड़े नाम हैं वे भी घोर जातिवादी होते हैं, यह अलग बात है कि उनका असली चेहरा देखने और समझने की सबमें इच्छा ही नहीं होती है। जातिवादी चेहरे को बेनकाब कर कोई दुश्मनी मोल लेता नहीं। लेकिन मैं रामेश्वर पांडेय का जातिवादी चेहरे उजागर कर जातिवादी ब्राम्हणों के टोलीबाज-यूनियनबाज, गिरोहबाज पत्रकारों से दुश्मनी मोल ले रहा हूं। रामेश्वर पांडेय अपने आप को घोर कम्युनिस्ट ही नहीं बल्कि नक्सली स्थापित करते रहे थे पर नक्सलवाद के खोल में उनका जातिवादी चेहरा छिपा हुआ था। विचार शून्य, संवेदना शून्य इस व्यक्ति को जातिवादी ब्राम्हणों की टोली महान पत्रकार, लेखक और प्रेरणादायी शख्सियत घोषित करने में लगी हुई है।
रामेश्वर पांडेय की अभी-अभी मृत्यु हुई है। मृत्यु एक सत्य है जो आया है वह जायेगा। भगवान का विधि विधान कहता है कि जो जिंदा में बुरा होता है वह मृत्यु के बाद भी बुरा ही होता है। इसीलिए पाप और पुण्य का विधि विधान भी है। लेकिन भडास नाम का एक मीडिया साइट और सोशल मीडिया पर जातिवादी ब्राम्हणों की टोली ने जिस प्रकार से रामेश्वर पांडेय की महिमा गायी है, झूठ का बीजारोपन किया है और जातिवाद तथा ब्राम्हणवाद का उदाहरण सामने लाया है उस पर चिंता करने की जरूरत है, व्याख्या करने की जरूरत है, मीडिया में आने वाली पीढी को यह बताने की जरूरत है कि कैसे मीडिया में ब्राम्हणवाद का खेल खेला जाता है, जाति के आधार पर किसी को कैसे महान पत्रकार बताया जाता है? रामेश्वर पांडेय का सच जानेंगे तो पायेंगे कि उनके मुंह में जाति बसी हुई है यानी कि ब्राम्हणवाद बसा हुआ है और हाथी की दांत की तरह कम्युनिस्ट बसा हुआ है।
रामेश्वर पांडेय का ब्राम्हणवाद मैंने सरेआम देखा है, उनके ब्राम्हणवाद का सरेआम स्रोता रहा हूं। घटना आज के कोई 20 साल पूर्व की है। मैं अपने एक परिचित पत्रकार के निमंत्रण पर उनके घर पर भोजन करने पहुंचा था। सत्य प्रकाश नाम का पत्रकार उस समय दैनिक जागरण में काम करता था। मैं जब सत्य प्रकाश के घर पर पहुंचा तो पता चला कि रामेश्वर पांडेय उनके घर पर विराजमान हैं। दैनिक जागरण में काम करने वाले एक अन्य ओझा ने अचानक यह प्रोग्राम रख दिया था। बेचारा सत्य प्रकाश को मजबूरी में अपने वरिष्ठ ओझा का कहना मानना पडा और उन्हें रामेश्वर पांडेय का स्वागत करना पड़़ा।
दारू और मांस का दौर चल रहा था। दारू जैसे-जैसे रामेश्वर पांडेय के कंठ से नीचे उतरती और मुर्गे की टांग और हड्डिया जैसे-जैसे उनके मुंह में जाती वैसे-वैसे उनका ब्राम्हणवाद जाग जाता, रामेश्वर पांडेय कहते कि मैंने जिंदगी भर ब्राम्हणों का कल्याण किया है, अमर उजाला ही नहीं बल्कि जिन-जिन अखबारों में काम किया उन-उन अखबारों में ब्राम्हणों को भरा, ब्राम्हणों की फौज खडी की, सिर्फ दिखावे के लिए एक-दो अन्य जातियों के लोगों को रखवाया और बाद में निकलवाया भी, अगर जगह नही ंतो फिर अन्य ब्राम्हणों की नियुक्ति भी कैसे कराता? जब दारू की नशा आसमान छूई और मुर्गे के मांस का स्वाद बढ़ा तो फिर उन्होंने अपने ब्राम्हणवाद की नयी-नयी जानकारियां देनी शुरू कर दी। उन्होंने कहना शुरू किया कि कैसे वे पत्रकारिता का उपयोग ब्राम्हणों को अच्छी जगह स्थानांतरण कराने, पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के प्रकोप से बचाने के लिए काम किया। मैं तो हदप्रभ तब हुआ जब वे अखबारों के मालिकों के बारे में अपने ज्ञान का प्रसार करने लगे। रामेश्वर पांडेय ने ज्ञान दिया कि ये साले बनिया बहुत हरामी होते हैं, इन्हें ठीक तरह से हैंडिल करो, इन्हें भाई साहब बोलो फिर ये बनिये आपके गुलाम हो जायेंगे और पंडित जी कहकर आपकी चरणवंदना करेंगे। देश में प्रकाशित होने वाले 95 प्रतिशत बडे अखबार और बडे चैनल बनियों के, बनियों के पैसों पर रामेश्वर पांडेय जैसे ब्राम्हणों की जिंदगी चलती है, परिवार चलता है फिर भी बनियों के प्रति इस प्रकार की इनकी धृणित मानसिकता होती है, फिर आप समझ सकते हैं कि जातिवादी ब्राम्हण किस तरह के अनैतिक और मनुष्यता हीन होते हैं।
ब्राम्हणों की पत्रकारिता की टोली ने प्रचारित किया कि रामेश्वर पांडेय अपने त्रिमूर्ति की अंतिम कड़ी थे। उनकी तिकडी या फिर त्रिमूर्ति क्या थी? रामेश्वर पांडेय, प्रमोद झा और उपेन्द्र मिश्र को त्रिमूर्ति कहा जाता था, तिकडी कहा जाता है। ये तीनों ब्राम्हण हैं। रामेश्वर पांडेय के तिकड़ी में कोई गैर ब्राम्हण नहीं था। इस ब्राम्हणों की तिकड़ी में उपेन्द्र मिश्र थोड़ा अलग थे और क्रांतिकारी जरूर थे, इसीलिए उपेन्द्र मिश्र मेरे मित्र भी थे। उपेन्द्र मिश्र का भी मत रामेश्वर पांडेय के पक्ष में नहीं होता था।
मैंने पत्रकारिता में ब्राम्हणों की तिकड़ी, त्रिमूर्ति ही नहीं देखी है बल्कि पूरी गिरोहबंदी भी देखी है। राष्टीय सहारा में एक हस्तक्षेप डेस्क था, उस डेस्क पर कार्यरत सभी ब्राम्हण थे, जैसे अरूण पांडेय, दिलीप चौबे, विमल झा और कमलेश त्रिपाठी, इन सभी में गजब की कैमिस्टरी थी, अन्य किसी को फटकने का अवसर भी नहीं मिला। जबकि हस्तक्षेप डेस्क पर जातिवादी गिरोहबंदी बनाने वाले अरूण पांडेय, दिलीप चौबे, विमल झा और कमलेश त्रिपाठी इसके पहले किसी नामी अखबारों में काम भी नहीं किये थे।दैनिक जागरण का नेशनल चरित्र देखिये। विष्णु तिवारी के प्रिय टोली में ब्राम्हण है। प्रतीक मिश्र की टोली में ब्राम्हणों का भरमार है, सिर्फ हाथी के दांत की तरह एकाद अन्य हैं, बनिये तो इनके पास टीक ही नहीं सकते है, पिछडे और दलितों की क्या औकात। संघ के स्वयं सेवक माने जाने वाले अच्युतानंद मिश्र जब माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के चांसलर थे तो फिर ब्राम्हण होने के आधार पर कम्युनिस्टों की भी नियुक्ति करायी थी। फिर भी अच्युतानंद मिश्र संघ के विश्वास पात्र बने रहे थे और पत्रकारिता के पूज्यनीय बने रहे।
प्रभाष जोशी सरेआम कहते थे कि मैं ब्राम्हण हूं। प्रभाष जोशी ने सरेआम कहा था कि राहुल गांधी देश का युवराज है और वह भी एक टीवी चैनल बहस के दौरान। प्रभाष जोशी भी राहुल गांधी को ब्राम्हण मानते थे। फिर भी किसी ने प्रभाष जोशी को इसके लिए कोसा नहीं। भारत एक लोकतांत्रिक देश है, राजतंत्र नहीं। प्रभाष जोशी ने लेकर अभयधर दूबे से लेकर ओम थानवी तक जितनी भी नौकरियां दिलवायी उनमें 90 प्रतिशत लोग ब्राम्हण थे। रामशरण जोशी छोटी-छोटी आदिवासी बच्चियों का यौन शोषण करते थे, गुंडे और दलाल छोटी-छोटी बच्चियों को उठा कर लाते थे और रामशरण जोशी उन छोटी-छोटी बच्चियों को अपने हवश का शिकार बना कर यौन इच्छा की पूर्ति करते थे। इस यौन विकृत मानसिकता के व्यक्ति को कांग्रेेस के राज में अर्जुन सिंह ने बाल संरक्षण आयोग का अध्यक्ष भी बना दिया था। ब्राम्हण होने के कारण रामशरण जोशी के इस अपराध पर कहीं कोई हलचल तक नहीं हुई। अगर रामशरण जोशी ब्राम्हण नहीं होते तो फिर वे आईकॉन नहीं बने रहते, न ही बाल संरक्षण आयोग के अध्यक्ष बनते, अर्जुन सिंह की भी छबि धूमिल होती। पर आज कोई ब्राम्हणवादी पत्रकार आदिवासी बच्चियों की इज्जत लूटने वाले घृणित मानसिकता के रामशरण जोशी की आलोचना भी नहीं करता है।
रामेश्वर पांडेय की मृत्यु के बाद उन्हें महान कम्युनिस्ट बताने वाले, महान पत्रकार बताने वाले लोग कौन हैं, उनकी जाति देखेंगे तो खेल समझ में आ जायेगा। 99 प्रतिशत लोग ब्राम्हण है। जैसे निशीथ जोशी, अशोक मिश्र, प्रद्यूमन तिवारी, राजू मिश्र, विजय शंकर पांडेय,अमिताभ अग्निहोत्री आदि। अगर रामेश्वर पांडेय ब्राम्हण नहीं होते तो फिर ये सभी ब्राम्हण पत्रकार रामेश्वर पांडेय जैसे समूहबाज और जातिवाद के बदबूदार उदाहरण को महान बताने की कोशिश नहीं करते।
ब्राम्हणों की टोली कहती है कि रामेश्वर पांडेय अच्छे संपादक और अच्छे पत्रकार थे। पर ये ब्राम्हणों की टोली अपने कथन के प्रति आधार भी नहीं देती है,अच्छे पत्रकार का कोई उदाहरण भी नहीं देती हैं। उनकी कोई कालजयी लेखनी का उल्लेख किसी ने नहीं किया है, समाचार लेखन और संपादकीय लेखन का भी कोई अता-पता नहीं है। अगर वे सर्वश्रेष्ठ पत्रकार थे तो फिर उनकी सर्वश्रेष्ठ लेखनी और संपादकीय लेखन क्या-क्या थे?
मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि रामेश्वर पांडेय अगर ब्राम्हण नहीं होते, उन्होंने ब्राम्हणों को चुन-चुन कर नौकरियां नहीं दिलवायी होती तो फिर उन्हें ब्राम्हण की टोली भी याद नहीं करती। अगर रामेश्वर पांडेय दलित, पिछडे और बनिया होते तो फिर उनकी अंत्येष्टि में शामिल होने वाले भी सीमित होते, सोशल मीडिया पर महान बताने के लिए कोई आगे भी नहीं आता। रामेश्वर पांडेय कम्युनिस्ट भी नहीं थे, सिर्फ अवसरवादी थे। जैसे ही व्यक्ति जातिवाद के खोल में घूस जाता है, अनैतिकता का चादर ओढ़ लेता है वैसे ही वह कम्युनिस्ट होने या फिर मनुष्यता का सहचर होने का अधिकार खो देता है।

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संपर्क :
आचार्य विष्णु हरि सरस्वती
नई दिल्ली

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