सत्य की खोज* *समुन्द्र मंथन कथा*

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Dr D K Garg

पौराणिक कथा : पुराणों में वर्णित एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा है जिसमें देवताओं और दानवों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया था। दुर्वासा ऋषि ने अपना अपमान होने के कारण देवराज इन्द्र को ‘श्री’ (लक्ष्मी) से हीन हो जाने का शाप दे दिया। भगवान विष्णु ने इंद्र को शाप मुक्ति के लिए असुरों के साथ ‘समुद्र मंथन’ के लिए कहा। देवताओं को बलशाली बनाने के लिए अमृत की आवश्यकता थी और वह अमृत समुद्र में था । जिसको प्राप्त करने के लिए सागर मंथन हुआ ।
“समुद्र मन्थन आरम्भ हुआ और इसमें सबसे पहले जल का हलाहल विष निकला। फिर कामधेनु गाय निकली जिसे ऋषियों ने रख लिया। फिर उच्चैःश्रवा घोड़ा निकला जिसे असुरराज बलि ने रख लिया। उसके बाद ऐरावत हाथी निकला जिसे देवराज इन्द्र ने अपना वाहन बना लिया। ऐरावत के पश्चात् कौस्तुभमणि समुद्र से निकली उसे विष्णु भगवान ने रख लिया। फिर कल्पवृक्ष निकला और रम्भा नामक अप्सरा निकली। इन दोनों को देवलोक में रख लिया गया। आगे फिर समु्द्र को मथने से महलक्ष्मी जी निकलीं। महालक्ष्मी जी ने स्वयं ही भगवान विष्णु को वर लिया। उसके बाद कन्या के रूप में वारुणी प्रकट हई जिसे असुरों ने ग्रहण किया। फिर एक के पश्चात एक चन्द्रमा, पारिजात वृक्ष तथा शंख निकले और अन्त में धन्वन्तरि वैद्य अमृत का घट लेकर प्रकट हुये।”
धन्वन्तरि के हाथ से अमृत को असुरों ने छीन लिया और उसके लिये आपस में ही लड़ने लगे। इसलिये देवता निराश खड़े हुये। तब भगवान विष्णु तत्काल मोहिनी रूप धारण कर आपस में लड़ते असुरों के पास जा पहुँचे। उस विश्वमोहिनी रूप को देखकर असुरों तथा देवताओं की तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मज्ञानी, कामदेव को भस्म कर देने वाले, भगवान शंकर और असुर भी मोहित होकर अपना सारा झगड़ा भूल कर उसी सुन्दरी की ओर कामासक्त(मोहित) होकर एकटक देखने लगे।
भगवान की इस चाल को स्वरभानु नामक दानव समझ गया। वह देवता का रूप बना कर देवताओं में जाकर बैठ गया और प्राप्त अमृत को मुख में डाल लिया। जब अमृत उसके कण्ठ में पहुँच गया तब चन्द्रमा तथा सूर्य ने पुकार कर कहा कि ये स्वरभानु दानव है। यह सुनकर भगवान विष्णु ने तत्काल अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर गर्दन से अलग कर दिया। अमृत के प्रभाव से उसके सिर और धड़ राहु और केतु नाम के दो ग्रह बन कर अन्तरिक्ष में स्थापित हो गये। वे ही बैर भाव के कारण सूर्य और चन्द्रमा का ग्रहण कराते हैं।
इस तरह देवताओं को अमृत पिलाकर भगवान विष्णु वहाँ से लोप(गायब) हो गये। उनके लोप होते ही असुरों की मदहोशी समाप्त हो गई। वे अत्यन्त क्रोधित हो देवताओं पर प्रहार करने लगे। भयंकर देवासुर संग्राम आरम्भ हो गया, जिसमें देवराज इन्द्र ने असुरराज बलि को परास्त कर अपना इन्द्रलोक वापस ले लिया।
कथा की वास्तविकता का विश्लेषण :

समुद्र मंथन यह एक मुहावरा है ,अलंकारिक भाषा है जिसके भावार्थ को ध्यान से समझना चाहिए। कुछ विधर्मी लोगों ने तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया। किसी को राक्षस बना दिया तो किसी को देवता , किसी पक्षी तो किसी को बंदर और वास्तविक संदेश विलुप्त हो गए।
ये कथा एक तरह से परी कथा लगती है जैसे पुराने जमाने में दादी नानी कहानिया सुनाकर मनोरंजन के साथ साथ गूढ़ संदेश भी दिया करती थी।

ये कथा वास्तविक नही है ,और बताएं कि पूरे विश्व में ऐसी घटनाये भारत में ही क्यों हुई है और यदि मान भी ले तो इस घटना का उल्लेख किसी अन्य देश में क्यों नहीं है क्योंकि समुंद्र कितना बड़ा है,इसकी गहराई और इसमें जल की मात्रा अकल्पनीय है।
आज के आधुनिक विज्ञानं के युग में ऐसी पुरातन कथायो में छिपे संदेश को समझने की जरूरत है ।क्योंकि समुंद्र मंथन कथा में छिपे हुए सन्देश द्वारा कथा लेखक ने बहुत अच्छा सन्देश दिया है। ध्यान दे:
१.समुद्र मंथन को एक ऐतिहासिक तथ्य की भांति नहीं बल्कि पौराणिक कथा समझिए। यह घटना किसी एक खास दिन नहीं घटी थी, बल्कि प्रतिदिन हम सबके जीवन में घटती है।हमारा हृदय ही भावनाओं का वह सागर है जिसमें सद्भावनाओं का अमृत और दुर्भावनाओं का विष घुला हुआ है। हर व्यक्ति को मंथन करके विचारो में आये जहर को अलग करना होता है।हमारे भीतर प्रकृति ने प्रेम भावना के संग घृणा भी दी है। क्रोध है तो करुणा भी है। मित्रता और शत्रुता दोनों मौजूद हैं।जिस व्यक्ति ने जहर को हटा दिया और अमृत को बचा लिया उसका जीवन स्वर्ग हो जाता है।
२ समुद्र मंथन का यह मतलब नहीं होता है कि समुद्र को मथा गया हो । हमारा मष्तिष्क समुंद्र की भांति विशाल है जिसमे करोडो कंप्यूटर समा जायेंगे। जिसमे निर्णय लेने की असीम छमता है।जिसका उपयोग करके हम देव और दुरूपयोग से हमें दानव बनते देर नहीं लगेगी। मानव में अनेको दोष जैसे काम, क्रोध ,लोभ,अहंकार ,प्रमाद ,किसी को खतम करने की साजिश करना आदि इसी दिमाक उपज है और इसके विपरीत इसी मस्तिष्क में सत्य बोलना ,छमा ,अस्तेय ,प्रेम करना ,उचित निर्णय लेना , वैज्ञानिक खोज करना आदि भी है।
इस अलोक में हमारे मष्तिस्क की तुलना एक समुन्द्र से की जा सकती है जिसका मंथन हम दिन रात , यहां तक कि निंद्रा में भी करते रहते है और विचारो के मंथन की इस श्रंखला में हीरे भी मिलते है और विष भी निकलता है। ये आप पर निर्भर करता है कि आर्य बनोगे या दुर्जन।
3 जब कुछ विद्वान लोग सभा /मंत्रणा करते है तो ये एक प्रकार से समुन्द्र मंथन होता है। इसका सीधा-सा अर्थ होता है कि कोई ऐसी समस्या जिसके समाधान के लिए काफी विशिष्ट लोग विचार विमर्श हेतु एकत्रित हो ,ये भी समुंद्र मंथन है।

  1. मांदर पर्वत से समुद्र को मथने की बात कही गई है, जो अतिशयोक्ति अलंकार की भाषा है , फिर मांदर पर्वत को मथनी के तरह चलाने के लिए सांप को मांदर पर्वत के चारों तरफ से लपेटा हुआ बताया गया है।
    दुनिआ के किसी भी भूगोल में ,इतिहास में मांदर पर्वत का आता पता तक नहीं है। ये सिर्फ एक काल्पनिक पर्वत है।
    5.सृष्टि के आरम्भ से ही दो वर्ण के लोग हैं।एक आर्य और दूसरे अनार्य। इसका शाब्दिक अर्थ है की सृष्टि के आरम्भ से ही पर्वत जैसी समस्याएं आती रहती है,हर समस्या के पीछे भीतरघात वाले सर्प हुए है जिनका मूल उद्देश स्वार्थ लिप्सा है। आर्य -अच्छे लोग और अनार्य -दुर्जन प्रवृति की मानसिकता के लोग रहे है।

6.शिव ने विष पीकर गले में रोक लिया का भावार्थ है की जिसने जिसने अपने क्रोध को नियंत्रण में करके अपनी मर्यादा का पलायन किया और अमृत की खोज में अनवरत लगा रहा वह शिव बन गया यानि कल्याणकारी हो गया, अमर हो गया। आज के युग में विज्ञानं ने यु ही तरक्की नहीं की ,मंगल यान भेज दिया, मोबाइल फ़ोन बना दिया ,वायुयान बनाये और हमारे सभी कार्यकलापों विज्ञानं मदद करता है इसके लिए वैज्ञानिक का समुन्द्र मंथन ही तो है। जिसके द्वारा अमृत निकाला गया और विष को पी लिया।
7.कथानक में एक सच्चा व्यंग्य भी है जिसमे नवयौवना सुंदरी की तरफ आकर्षण की बात कही है की सुंदरी के आते ही सब झगड़ा भूलकर उधर देखने लगते हैं।और ये प्रवृति मृत्यु और बरबादी का कारण भी बन सकती है।
ये संक्षेप में वर्णन किया है।

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