चिकित्सा रसायन के क्षेत्र में भारत के नाम को विश्व स्तर पर सम्मान दिलाने वाले भारत के महान वैज्ञानिक वृंद के बारे में मान्यता है कि उनका जन्म 1000 ईसवी के लगभग हुआ था।
यह वह काल था जब भारत पर महमूद गजनवी के आक्रमण हो रहे थे। इस काल में भारत के वैज्ञानिक नई-नई खोज करके किस प्रकार भारत की वैज्ञानिक परंपरा को आगे बढ़ा रहे थे ?- इस पर भारत का वर्तमान प्रचलित इतिहास मौन है। इतिहास को एकांगी बनाते हुए इतिहासकारों ने केवल महमूद गजनवी के आक्रमण तक सीमित कर दिया है। भारत के विज्ञानवाद की ओर जानबूझकर हमारा ध्यान नहीं दिलाया जाता। इतिहासकारों की भारत के इतिहास के प्रति इसी प्रकार की अत्याचार पूर्ण लेखन शैली के कारण ही वैज्ञानिक वृंद के विषय में हमें बहुत कुछ अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती।
हीरा धरती खोद के, दिया कहीं दबाय।
हृदयहीन लेखक बने, धर्म दियौ बिसराय।।
इसके उपरांत भी इतना तो माना ही जा सकता है कि वृंद
भारत के एक असाधारण प्रतिभा के वैज्ञानिक थे। उन्होंने कीमियागरी के क्षेत्र में नागार्जुन की विचारधारा और परंपरा को आगे बढ़ाने का सराहनीय कार्य किया। उन्होंने भारत में रसायन विज्ञान के विकास को लेकर गंभीरता दिखाई और इस क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। जिस समय भारत के इस महान वैज्ञानिक ने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से संसार का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया था, उस समय इस्लाम के बर्बर आक्रमणकारी महमूद गजनवी के नेतृत्व में दुनिया को भय और आतंक के साथ जीने के लिए बाध्य कर रहे थे। यही स्थिति ईसाइयत की भी थी। उसके शासक भी संसार में अपने मजहबी विस्तार के लिए इस्लाम या अन्य किसी भी मजहब वाले देश के साथ संघर्ष कर रहे थे।
उनका जन्म वैज्ञानिक माधवकर के बाद हुआ माना जाता है। जबकि चक्रपाणि दत्त से वे पहले जनमे थे। वृंद की प्रमुख कृति का नाम है ‘सिद्धयोग’। अपनी इस कृति में इस महान वैज्ञानिक ने चिकित्सा रसायन से संबंधित बहुत ही उपयोगी सामग्री प्रस्तुत की है। इस ग्रंथ को पढ़ने से या भली प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि चिकित्साशास्त्र के इतिहास में वृंद का नाम सदा अमर रहेगा।
मनुष्य रसायन चिकित्सा के माध्यम से किस प्रकार अपने आप को निरोग और स्वस्थ रख सकता है ?- इस संबंध में वृंद ने इस पुस्तक में बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी दी है। मानव स्वास्थ्य की रक्षा को लेकर भारत के ऋषि वैज्ञानिक प्राचीन काल से ही सक्रिय रहे हैं। भारत की इसी प्राचीन परंपरा को आगे बढ़ाते हुए ऋषि वृंद ने इस ग्रंथ की रचना की। मानव शरीर में मिलने वाले विभिन्न रोगों के लिए अनेक प्रकार की औषधियों को इस ग्रंथ में वृंद ने विस्तार से उल्लेखित किया है।
रोग शोक से मुक्त हो, मानव का संसार।
ग्रंथ रचा ऋषि वृंद ने, अद्भुत रचनाकार।।
कई प्रकार की भस्मों को बनाकर मानव स्वास्थ्य के लिए उन्हें उपयोगी बनाने की महत्वपूर्ण जानकारी भी इस ग्रंथ में दी गई है।
नित्य प्रति के जीवन व्यवहार में काम आने वाली विभिन्न औषधियों का उल्लेख कर देने से इस ग्रंथ में चार चांद लग गये हैं। यौगिक तैयार करने की विधि के साथ साथ वृंद ने लोहे की भस्म बनाने का ढंग भी बहुत ही सहजता और सरलता से बताया है। सिर की जूओं को मारने का योग भी इसमें दिया गया है। इस योग को बनाने में पारे का समुचित प्रयोग किया जाता है। इसके विषय में भी वृंद ने महत्वपूर्ण और उपयोगी जानकारी दी है। हम सभी यह भली प्रकार जानते हैं कि भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही औषधियों में पारे और गंधक का प्रयोग होता रहा है। इस बात से वृंद भी परिचित थे। यही कारण था कि उन्होंने भी अपने औषधीय योगों में पारे और गंधक का उपयोग करने का वर्णन किया है। उनके ग्रंथ ‘रसामृत चूर्ण’ के अध्ययन से यह तथ्य और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है।
लोक के उपकार को, बना लिया था ध्येय।
साधक बन जीवन जिया, यही था उनका ज्ञेय।।
वृंद ने अपने से पूर्व हुए मूर्धन्य वैज्ञानिकों चरक, सुश्रुत, नागार्जुन, वाग्भट्ट और माधवकर के विचारों को भी अपने ग्रंथों में उद्धृत किया है । अपने ग्रंथ को प्रमाणिक बनाने के लिए जहां इस प्रकार की सामग्री को लेने की आवश्यकता वृंद ने अनुभव की वहीं अपने से पूर्व के महान चिकित्सा शास्त्रियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उनके विचार को आगे बढ़ाने का सराहनीय कार्य भी किया।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत