देवेंद्र सिंह आर्य चेयरमैन उगता भारत
तप ।
तैत्तिरीय उपनिषद में मंत्र है कि
ऋतं तप: सत्यम तपो दमस्तप: स्वाध्यायस्तप:।
जिस का भावार्थ है कि हमको यथार्थ सद्भाव रखना, सत्य मानना, सत्य बोलना ,सत्य करना, मन को बुराइयों की ओर न जाने देना ,शरीर इंद्रियां और मन से शुभ कामों का करना, वेदादि सत्य शास्त्रों का पढ़ना पढ़ाना, वेद अनुसार आचरण करना आदि उत्तम धर्मयुक्त कार्यों का नाम तप है। धूनी लगाकर सेंकने का नाम तप नहीं है। संसार में ऐसा आपने प्रायः देखा होगा कि तप के नाम पर अकारण ही बहुत से मनुष्य अपने शरीर को अनेक कष्ट देते हैं। ऐसी सभी क्रियाएं न तो तप है, ना धर्म है। अपितु पाप और हिंसा है ।बहकावा और छलावा है।
(आर्य मान्यताएं लेखक श्री कृष्ण चंद्र गर्ग पृष्ठ 35)
तीर्थ।
प्रसंगानुकूल तीर्थ की परिभाषा पर भी दृष्टिपात कर लेते हैं। इसकी परिभाषा भी तब की परिभाषा से कुछ-कुछ मिलती-जुलती है।
जैसे वेद आदि सत्य शास्त्रों का पढ़ना पढ़ाना, धार्मिक विद्वानों का संग,परोपकार, योगाभ्यास, निर्वैर ,निष्कपट ,सत्य मानना, सत्य बोलना ,सत्य करना, माता-पिता आचार्य अतिथि की सेवा करना ,परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना उपासना ,जितेंद्रियता, सुशीलता, ज्ञान विज्ञान आदि शुभ गुण और कर्म ,दुखों से तारने वाले होने से तीर्थ कहाते हैं।
“जना यैस्तरंति तानि तीर्थानि”
अर्थात मनुष्य जिन कर्मों को करने से दुखों से तरे उनका नाम तीर्थ है।
(आर्य मान्यताएं प्रश्न 35 लेखक कृष्ण चंद्र गर्ग)
तीर्थ यदि सदैव से होते तो वेद और ब्राह्मण आदि ऋषिमुनिकृत पुस्तकों में इनका नाम भी होता। यह मूर्ति पूजा ढाई – तीन हजार वर्ष पहले वाममार्गी और जैनियों से चली है ।पहले आर्यावर्त में नहीं थी ।और यह तीर्थ भी नहीं थे ।जब जैनियों ने गिरनार, पालीटाना शिखर ,शत्रुंजय और आबू आदि तीर्थ बनाए उनके अनुकूल अन्य मूर्तिपूजक लोगों ने भी बना लिए। जो कोई इनके आरंभ की परीक्षा करना चाहे वह पंडों की पुरानी से पुरानी बहीऔर तांबे के पत्र आदि देखें तो निश्चय हो जाएगा कि यह सब तीर्थ 500 अथवा 1000 वर्ष से इधर ही बने हैं ।1000 वर्ष से उधर का लेख किसी के पास नहीं निकलता ।जो तीर्थ नाम का महामात्य इत्यादि बातें हैं वह सब झूठ है।
यथार्थ तीर्थ महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में वही लिखे हैं जो श्री कृष्ण चंद्र गर्ग द्वारा आर्य मान्यताएं नामक पुस्तक में दिया है उसके पुनः उद्धृत करने की आवश्यकता नहीं है।
(महर्षि दयानंद कृत सत्यार्थ प्रकाश एकादश समुल्लास)
व्रत।
ओम अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम ।
इदमहमनृतात सत्यमुपैमि ( यजुर्वेद)
भावार्थ हे सत्य धर्म के उपदेशक ,वृत्तो के पालक प्रभु !मैं असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करने का व्रत लेता हूं। आप मुझे ऐसा सामर्थ्य दो कि मेरा व्रत सिद्ध हो,अर्थात मैं अपने व्रत पर पूरा उतरु।
इस प्रकार व्रत करने का वैदिक स्वरूप है। किसी सांसारिक मनोकामना की पूर्ति के लिए विशेष दिन अन्नजल आदि के त्याग का नाम व्रत नहीं है ।पति या पत्नी की प्रसन्नता के लिए उससे सद व्यवहार करने का संकल्प लेना तथा उसे निभाना ही व्रत है। रोगग्रस्त का उचित उपचार करवाना ही व्रत है ।काम, क्रोध ,लोभ ,अहंकार आदि के त्याग का संकल्प लेकर उसका पालन करना व्रत कहलाता है।
(आर्य मान्यताएं पृष्ठ 35 -36 लेखक श्री कृष्ण चंद्र गर्ग)
सार-संक्षिप्त
पांच ज्ञानेंद्रियां पांच कर्मेंद्रियां और एक मन, अर्थात कुल 11 हमारी इंद्रियां कहीं जाती है।
इनमें 10 बाह्य इंद्रियां तथा एक मन अतींद्रिय है।
इन 11 का समुच्चय एकादशी कहा जाता है। हमें अपने इंद्रियों से संकल्प विशेष करना चाहिए। हाथों से किसी का गला नहीं काटू, पैर यदि मेरे उठे तो सही दिशा की तरफ चलें, अगर मैं देखूं आंखों से तो सद्भाव से देखूं, मैं बोलूं तो मेरी वाणी में मधुरता होनी चाहिए, मेरे मन में भी पाप नहीं होना चाहिए। ऐसा संकल्प ही व्रत कहा जाता है। इसलिए ऐसे एकादशी के व्रत को बहुत उज्जवल एवं पवित्र माना जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि अन्न को त्यागना नहीं चाहिए। अन्न या जल को अथवा दोनों को त्यागना एकादशी का व्रत नहीं है। इसलिए एकादशी के व्रत का अभिप्राय है है कि पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां ,11 वां मन ये सभी पवित्र संकल्प से बंधे होने चाहिए। हां यदि अन्न में किसी प्रकार का विषधर है तो अन्न को त्याग देना चाहिए।
इसलिए व्रत नाम तो संकल्प का है। एकादशी का अभिप्राय यह है कि हम मन ,वचन, कर्म से ही अपनी इंद्रियों को संयम में रखें। पांच ज्ञानेंद्रियां पांच कर्मेंद्रियों उनके साथ में लगा हुआ मन है। इसी को इसलिए एकादशी कहते हैं ।यही मन इंद्रियों का प्रतीक माना गया है। क्योंकि बिना मन के इंद्रियों का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता । जैसे मानव के शरीर में जो भी इंद्रियां हैं उसमें मन ही विराजमान रहता है। प्रत्येक इंद्री से जो मनुष्य काम लेता है तो उसमें मन उस इंद्री के साथ रहता है।
एकादशी का पवित्र व्रत धारण करने से जीवन में महानता की ज्योति प्रकट हो जाती है उससे ही जीवन का एक उज्जवल लक्ष्य हमारे सामने आने लगता है।
इसके विपरीत आज का समाज तो अन्न को त्यागने का व्रत स्वीकार करता है। परंतु वास्तव में सनातन और समाज में किसी प्रकार का अंतर्द्वंद नहीं होना चाहिए यह तो सभी के लिए एक ही समान होता है। जो इंद्रियों को संयम में बनाना है संकल्प है। विचारधारा को शोधन करना है।
यह जो अन्न छोड़ने की अथवा जल ग्रहण नहीं करने की रूढी बन गई है, उसको हमें छोड़ना चाहिए। हमें एक समान व्रत के वास्तविक अर्थ को समझते हुए शुभ संकल्प लेने चाहिए। अर्थात अपने अंदर अच्छाइयों को लाना है “दूरितान दुराम”अर्थात जितने भी दुर्व्यवहार और दुर्गुण हैं उनको त्यागना ही व्रत है। अतः स्पष्ट हुआ कि केवल क्षुधा पीड़ित बनना ही व्रत नहीं कहलाया जाता। व्रत नाम तो संकल्प का है। क्षुधा से क्षुधित होना व्रत नहीं है ।व्रत अपने इंद्रियों को विचारशील बनाना है ।इंद्रियों के ऊपर अनुसंधान करना है ।यही व्रत का अभिप्राय है।
इस प्रकार एकादशी का निर्जला व्रत जेष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को नहीं करना चाहिए।
बल्कि ऐसा व्रत तो जीवन पर्यंत धारण करना चाहिए अर्थात शुभ संकल्प जीवन में प्रत्येक क्षण में आवश्यक हैं। अतः पोप, पंडो और पुजारियों के चक्कर में न पड़कर अविद्या से दूर होकर मिथ्या ज्ञान को निकालकर तत्वज्ञान प्राप्त करके तत्वज्ञ बनें।
तथा शुभ संकल्प लेकर अपने जीवन को सफल बनाएं।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।