मिथिला राज्य की लड़ाई का सच
सच्चिदानंद सच्चू
मिथिला राज्य के झंडाबरदारों को मिथिला राज्य तो चाहिए लेकिन इन्हें मिथिला के अन्य सामाजिक सरोकारों से कोई मतलब नहीं रहता। ये आंदोलनकारी मिथिला राज्य की मांग को लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना देते हैं।
बिहार को काटकर अलग से मिथिला राज्य बनाने की मांग इन दिनों फिर से जोर पकड़ने लगी है। कुछ संगठन व संस्थान द्वारा लगातार मिथिला राज्य के समर्थन में कार्यक्रम किए जा रहे हैं। लोगों को इस आंदोलन से जोड़ने की कोशिशें की जा रही हैं। उन्हें यह बताया जा रहा है कि बिहारी होना उनके लिए अभिशाप है और मैथिल होना उनके लिए गर्व की बात है। इसके बावजूद इस आंदोलन मे व्यापक जन समुदाय की भागीदारी नहीं के बराबर है। तमाम प्रयासों के बावजूद मिथिला राज्य के समर्थक आज तक व्यापक जन समुदाय को यह समझाने में विफल साबित हुए हैं कि मिथिला राज मिथिला क्षेत्र में निवास करने वाले सभी जाति और धर्म के लोगों के लिए होगा। व्यापक जन समुदाय की दृष्टि में मिथिला का मतलब ब्राह्मण राज है। और यही मिथिला राज्य के निर्माण में अब तक का सबसे बड़ा रोड़ा रहा है। कुछ ऐतिहासिक गलतियों को दूर करने की कोशिशें की जा रही हैं लेकिन इसमें सफलता प्राप्त करना अभी बाकी है।
देश में भाषा और भूगोल के आधार पर छोटे-छोटे राज्यों का निर्माण होता रहा है। यह सही भी है। भारत की यही खूबी है कि इसके गुलदस्ते में विविध रंगों के फूल हैं। इतने अनगिनत और खूबसूरत फूल दुनिया के दूसरे गुलदस्ते में नहीं। यहां रंगों और सुगंधों की इतनी विविधता है कि हम अपनी तुलना किसी से कर भी नहीं सकते। इसमें कोई संदेह नहीं कि भविष्य में भी छोटे राज्यों के निर्माण होंगे जो देश की शान में चार चांद लगाएंगे। लेकिन हमें इस बात पर भी गौर करना होगा कि हाल में जिन छोटे राज्यों का निर्माण हुआ है वहां विकास की गति का क्या हाल है? इस सवाल का जवाब खोजने पर पता चलता है कि विकास यात्रा में कई राज्य पहले से अधिक सुस्त हुआ है। या फिर उसकी स्थिति सामान्य बनी हुई है। इस दरम्यान इन राज्यों में कोई बड़ी सांस्कृतिक क्रांति हुई हो, ऐसा भी देखने को नहीं मिलता। ऐसे में इन राज्यों के गठन पर फिर से सोचने की जरूरत है।
मिथिला राज्य निर्माण की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यह अभी कई तरह के अंतर्विरोधों से जूझ रहा है। इस राज्य की मांग के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि इसके साथ आम जनमानस नहीं है। आम जनमानस को यह विश्वास दिलाने में लंबा वक्त लगने वाला है कि मिथिला राज्य मिथिला में निवास करने वाले तमाम लोगों के लिए होगा। दूसरी सबसे बड़ी समस्या जदयू और राजद जैसे क्षेत्रीय दल हैं जो यह कभी नहीं चाहेंगे कि बिहार का बंटवारा हो। भाजपा आध्यात्मिक आधार पर कभी-कभार मिथिला राज्य के समर्थन में बात करती रही है कि लेकिन मिथिला का जो वर्तमान चुनावी गणित है, उसे देखकर वह भी चुप हो जाती है। मिथिला के चुनावी गणित में माय समीकरण का वर्चस्व है। और यह बात सबको पता है कि माय समीकरण बिहार में पारंपरिक रूप से राजद के पक्ष में रहा है। इसके विपरीत मिथिला राज्य के झंडाबरदार लोगों में सवर्ण और खासकर ब्राह्मण हैं। शायद इसीलिए दिल्ली के जंतर-मंतर पर होने वाले आंदोलनों की गूंज भले ही विभिन्न राष्ट्रीय चैनलों तक पहुंच जाए लेकिन इन आंदोलनों की गूंज मिथिला की धरती पर नहीं पहुंच पाती।
मिथिला राज्य के झंडाबरदारों को मिथिला राज्य तो चाहिए लेकिन इन्हें मिथिला के अन्य सामाजिक सरोकारों से कोई मतलब नहीं रहता। ये आंदोलनकारी मिथिला राज्य की मांग को लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना देते हैं। बड़ी-बड़ी बातें करते हैं लेकिन मुझे यह याद नहीं कि इन आंदोलनकारियों ने मिथिला की कालजयी समस्या बाढ़ और पलायन को लेकर कोई छोटा-मोटा भी आंदोलन किया हो। इनमें से कुछ आंदोलनकारी लोगों को यह दिवास्प्न दिखाते हैं कि मिथिला राज्य बन जाने के बाद इन समस्याओं का समाधान हो जाएगा। जबकि बाढ़ और पलायन जैसी समस्याओं का समाधान बगैर केंद्र सरकार की मदद के नहीं हो सकता। रोजगार का सृजन कर राज्य सरकार बहुत हद तक पलायन पर अंकुश लगा सकती है लेकिन बाढ़ की समस्या के समाधान के लिए तो केंद्र सरकार का सहयोग चाहिए ही। क्योंकि मिथिला क्षेत्र की तमाम नदियां नेपाल से निकलकर भारत में आती हैं। बाढ़ नियंत्रण को लेकर इन नदियों पर कुछ भी करने से पहले नेपाल सरकार की अनुमति भी लेनी होगी। किसी विदेशी सरकार से किसी भी तरह की सहमति बनाने का काम राज्य सरकार नहीं कर सकती। इसके लिए केंद्र सरकार को ही पहल करनी होगी। मतलब साफ है कि जो लोग यह कह रहे हैं कि मिथिला राज्य बन जाने के बाद बाढ़ जैसी समस्या का समाधान हो जाएगा, वे सरासर झूठ बोल रहे हैं।
दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि संभावित मिथिला राज्य में जिन जिलों को दर्शाया जा रहा है, उनमें से अधिकतर जिलों के लोग मिथिला राज्य में शामिल नहीं होना चाहते। पूर्वी क्षेत्र के लोग सीमांचल राज्य की मांग कर रहे हैं तो भागलपुर-मुंगेर के लोग अंग प्रदेश बनाना चाहते हैं। ठीक उसी तरह पश्चिम में वैशाली के लोग बज्जिकांचल बनाने की वकालत काफी दिनों से करते आ रहे हैं। मिथिला राज्य के समर्थक चंपारण को मिथिला का अंग मानते हैं तो चंपारण के लोग खुद को बिहारी कहलाना ज्यादा बेहतर समझते हैं। असल में मिथिला राज्य आंदोलन तीन-चार जिलों के कुछ खास जाति के लोग ही कर रहे हैं। ये सभी अतीतजीवी लोग हैं। लेकिन इनका अतीत-गान भी महज कुछ जिलों तक ही सिमटा हुआ है। वे जिन मिथकीय चरित्रों का गौरव गान करते हैं वे भी इन्हीं तीन-चार जिलों के हैं। इनके गौरव-गान का हिस्सा अंग प्रदेश नहीं है। वैशाली का बज्जी संघ, जिसे दुनिया का सबसे पहला गणतांत्रिक देश कहा गया, इनके गौरव-गान का विषय नहीं हैं। ऐसे में जाहिर है कि इन जिलों के लोग मिथिला राज्य के साथ नहीं हैं।
जिन तीन-चार जिलों के मुट्ठी-भर लोग मिथिला राज्य निर्माण की मांग कर रहे हैं, उन जिलों में भी व्यापक सहमति का अभाव है। इन जिलों की गैर ब्राह्मण आबादी मिथिला राज्य को ‘बाभन राज’ कहकर संबोधित करती है। सिर्फ मिथिला ही नहीं, बल्कि संपूर्ण बिहार में लोगों को अब ‘बाभन राज’ से डर लगता है। वे कभी नहीं चाहेंगे कि इस बहाने फिर से ब्राह्मणवाद और सामंतवाद की वापसी हो। इसलिए मिथिला राज्य निर्माण के झंडाबरदारों को पहले इन अंतर्विरोधों से निबटना होगा। इन अंतर्विरोधों से निबटे बगैर मिथिला राज्य आंदोलन कभी धरातल पर उतर नहीं पाएगा। और जब तक कोई भी आंदोलन धरातल पर नहीं उतरता, तब तक उस आंदोलन की सफलता संदिग्ध ही रहती है।
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