नए संसद में स्थापित सेंगोल क्यों है अनमोल
प्रो. संजीव कुमार शर्मा
महाभारत में महर्षि व्यास ने राजधर्म की भारतीय अवधारणा को विस्तार से प्रस्तुत किया है। शरशैया पर लेटे हुए पितामह भीष्म युधिष्ठिर को भावी सम्राट के रूप में राजविद्या सिखाते हैं। इस क्रम में राजसत्ता के विविध आयामों पर ज्ञान दिया गया है, जो आदिपर्व में वर्णित है। इसके अतिरिक्त शासन-प्रशासन की प्रक्रिया के अनेक पक्षों पर महाभारत के विभिन्न पर्वों में विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। महाभारत से पूर्व वाल्मीकि रामायण भी राजधर्म के विषय में अनेक सिद्धांतों और नियमों का उल्लेख करती है। इन दोनों महाकाव्यों को भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का परिचायक और प्रस्तोता माना जाता है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने प्रसिद्ध मौलाना आजाद स्मृति व्याख्यान में कहा था कि रामायण और महाभारत के बिना संपूर्ण भारत के साहित्य, कला, संगीत, स्थापत्य, आदि की कल्पना असंभव है।
वेदों में वर्णित राजधर्म
समस्त विश्व की आद्य रचना वेद भी राज्य की संचालन व्यवस्था का सम्यक निर्देशन करते हैं। सामान्य रूप से भारत में राजनीतिक व्यवस्था को राजधर्म के रूप में प्रतिपादित किया गया है। वेद में राज्य के विभिन्न तंत्रात्मक स्वरूपों के वर्णन के साथ राजनीतिक और प्रशासनिक अंगों और उनसे की जा रही सामाजिक अपेक्षाओं को रेखांकित किया गया है। सभा, समिति, विदथ आदि वैदिक राजनीतिक संस्थाएं ही हैं, जो राजा केंद्रित व्यवस्था को निरंतर लोकतांत्रिक आकार देती हैं। इसीलिए वैदिक ऋषि प्रायः राष्ट्र की रक्षा, स्थिरता एवं उसके वैभव और योगक्षेम की प्रार्थना करते हुए दिखाई देते हैं।
महाभारत काल तक संभवतः राजनीति की संपूर्ण प्रक्रिया को दंडनीति भी कहा जाने लगा। वैसे दंडनीति अपराध के लिए दंड निर्धारण की नीति नहीं है। भारतीय ज्ञान परंपरा ने सामान्य रूप से विद्याओं को जिन चार भागों में विभाजित किया, उनमें से एक दंड है। शास्त्र की उक्ति है- विद्याः चतस्राः- आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता, दंडनीति। मनुष्य जीवन की समस्त क्रियाविधि इन चार विद्याओं से संबद्ध है। इनमें दंड अंतिम क्रम पर होते हुए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। व्यास कहते हैं कि लोक में किसी भी प्रकार से व्याप्त मोह को समाप्त करने, समाज में व्यवस्था निर्माण, धर्म व अर्थ के संरक्षण के लिए शासकों द्वारा जो मर्यादा लोकहित में स्थापित की गई है, उसकी संज्ञा दंड है। यानी दंड की स्थापना लोकहित में की गई व्यवस्था है।
हरेक समाज अपनी संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, लोक, शास्त्र, रुचि और प्रसन्नता को गीत, संगीत, उत्सव, प्रतीक, देव, तीर्थ, आदि के माध्यम से जीवित रखता है। सभी मानव सभ्यताएं अपने प्रतीकों पर गर्व करती हैं। प्रतीकों के माध्यम से समाज को अपने अतीत से जुड़े रहने की सुखद अनुभूति होती है और साथ ही अपने भविष्य से साक्षात्कार की शक्ति प्राप्त होती है।
भारत की सहस्रों वर्षों की सामाजिक, राजनीतिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक परंपरा में कई प्रतीक हैं। दुर्योग से औपनिवेशिक दासता के कारण इनसे आत्मिक संबद्धता विचलित हुई और हमारी आत्म-विस्मृति और आत्मग्लानि ने हमें अपने पौराणिक सांस्कृतिक गौरव से विमुख कर दिया। परंतु लगभग पिछले एक दशक से देश में वैविध्यपूर्ण पुरातन संस्कृति और सभ्यत के प्रतीकों के प्रति सम्मान का भाव जगा है। यह भी याद रहे कि अमृतकाल में भारत के लिए यह दुनिया को दिशा देने का भी समय है।
इसीलिए स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद निर्मित भारत की अपनी रचना संसद भवन के उद्घाटन के समय सरकार द्वारा पारंपरिक सेंगोल की स्थापना का निर्णय निश्चय ही ऐतिहासिक है। भारतीय परंपरा में शपथ ग्रहण के समय शासक राजा के रूप में कहता था कि अदण्ड्योऽस्मि। अब मैं अदंड्य हूं। मुझे कोई दंडित नहीं कर सकता है। तभी उसे राजपुरोहित कुशा के प्रहार से सूचित करता था कि धर्म दण्ड्योऽसि। यानी समाज की व्यवस्था राजधर्म के रूप में तुम्हारी मर्यादा का निर्धारण करती रहेगी। यही दंड है। यही दंड सत्ता के हस्तांतरण का प्रतीक है और यह भारत के दक्षिण भाग में भी विद्यमान रही है। चोल साम्राज्य के दौर में राज सत्ता में नीति परायणता का निवेश करने और धर्मपूर्ण-न्यायपूर्ण शासन की समाज की अपेक्षाओं के प्रतीक के रूप में पवित्र दंड सेंगोल राजगुरु द्वारा नए शासक को दिए जाने का प्रावधान था। यह राजदंड सत्ता को विनयी, न्यायप्रिय और धर्मयुक्त बनाने का सार्वजनिक आग्रह भी है। इस प्राचीन भारतीय प्रतीक का नई संसद में लोकसभा अध्यक्ष की आसंदी के साथ स्थापित होना निश्चित रूप से भारत की सनातन, अक्षुण्ण सांस्कृतिक परंपरा की स्थापना का महत्वपूर्ण सोपान सिद्ध होगा। राजनीतिक संस्थाओं में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्पष्ट व्यवस्थाओं वाले राजधर्म आधारित भारतीय समाजों ने ही विश्व के लोकतंत्र के विचार को जन्म दिया है, यह संदेश भी इससे स्पष्टतः दूर तक जाएगा।
दिशासूचक की भूमिका
ऐसे में यह उचित है कि विश्व का प्राचीनतम और विशालतम लोकतंत्र अपने राजधर्म विषयक, प्रतीकों, संस्थाओं और शब्दावलियों की पुनर्यात्रा करे। तमिल गीत और चोल साम्राज्य की परंपरा से जुड़ा सेंगोल भारतवर्ष की एकात्मता और आध्यात्मिक समग्रता का भी प्रतीक है। इस पवित्र सेंगोल की संसद में स्थापना सभी को सदैव भारत की सांस्कृतिक श्रेष्ठता और शासन की धर्म परायणता का स्मरण कराती रहेगी। यह नूतन भारत का पुरातन भारत से परिचय सूत्र बनेगी। यह भावी नीति-निर्माताओं का दिशासूचक यंत्र बनेगी। यह भारतवर्ष के राजधर्म का संकेतक चिह्न बनेगी। आइए, इस न्यायरक्षक नंदी अंकित धर्मदंड सेंगोल का भारतवर्ष की नई संसद में स्वागत करें।
(लेखक महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी के प्राक्तन कुलपति हैं)