वैदिक सम्पत्ति : गतांक से आगे…
इस प्रकार से गृहस्थ की दशा का वर्णन करके अब गृहस्य के नित्य करने योग्य पंचमहायज्ञों का वर्णन करते हैं। यजुर्वेद में लिखा है कि–
यद् ग्रामे यदरण्ये यत्सभायां यदिन्द्रिये । यदेनश्चकृमा वयमिदं तदवयजामहे ।। (यजुर्वेद 3/45)
अर्थात् ग्राम में, जंगल में और सभा में हमने इन्द्रियों से जो पाप किया है, उसे इस यज्ञ में होम करके दूर फेंकते हैं। इस मन्त्र का मतलब यही है कि गृहस्थ से जो पाँच स्थानों में पाप होता है अथवा युद्धों और हिस्त्र पशुओं की हत्या से जो पाप होता है अथवा ग्राम में, जङ्गल में और सभाओं में जो मन, वाणी और कर्म से बिना किसी इरादे के पाप हो जाता है, वह पंचमहायज्ञों और इष्टापूर्वादि लोकोपकारी कार्यों के करने से दूर हो जाता है, अर्थात् एक प्रकार से नित्य प्रायश्चित हो जाता है। इन पंचमहायज्ञों में सबसे पहिले वेदों का स्वाध्याय और प्राणायामपूर्वक गायत्री का जप है। यही ब्रह्मयज्ञ है। वेद में इस ब्रह्मयज्ञ के करने की ताकीद की गई है । वेद के स्वाध्याय के लिए यजुर्वेद में लिखा है कि-
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः । ब्रह्मराजन्याभ्या शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च । प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः समृध्यतामुप मादो नमतु । (यजुर्वेद 26/2)
अर्थात् जैसे इस कल्याणकारिणी वाणी को मनुष्यों के लिए मैं बोलता हूँ, वैसे ही ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों,स्त्रियों और अनार्यों के लिए आप भी बोलिये और समझिए कि इस प्रकार के विद्यादान से में देवताओं में प्रिय होऊँ, मुझे परोक्ष सुख मिले और सब कामनाएँ पूर्ण हों। यह वेद के स्वाध्याय की महिमा है । पर वेद-स्वाध्याय का मतलब केवल वेदों का रटना ही नहीं है, प्रत्युत उनके अर्थों का जानना है। इसीलिए अथर्ववेद में लिखा है कि-
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः । यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इद् तद् विदुस्ते अभी समासते।। [ अथर्व० 9/10/18 ]
अर्थात् ऋचाएँ परमव्यापक अक्षर में ठहरी हुई हैं, जिसमें वेद के देवता-अर्थ-ठहरे हुए हैं, अतः जो अक्षर और उनके अर्थो को नहीं जानता, वह केवल ऋचाओं से क्या लाभ प्राप्त कर सकता है ? ठीक है, जो अक्षर और ग्रंथों को जानता है, वही अच्छी तरह वेद के तात्पर्य को पहुँचता है, इसलिए वेदों को अर्थसहित ही पढ़ना चाहिये । वेद-विचार के बाद प्राणायामपूर्वक गायत्री का जप करना चाहिये। अथर्ववेद में गायत्री की महिमा इस प्रकार लिखी है कि-
स्तुता मया वरवा वेदमाता प्र चोदयन्तां पावमानी द्विजानाम् । आयुः प्राणं प्रजां पशु कीति द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् ।
मह्यं दस्वा व्रजत ब्रह्मलोकम् ॥
[अथर्ववेद 19/71/1]
अर्थात् द्विजों को प्रेरणा करनेवाली पवित्र वेदमाता गायत्री की मैं स्तुति करता हूँ। यह मुझे आयु, बल, सन्तति, पशु, कीर्ति, धन और ब्रह्मवर्चस्व अर्थात् वेदज्ञान को देकर ब्रह्मलोक को पहुँचावे । यही ब्रह्मयज्ञ है। इसके बाद देवयज्ञ का अनुष्ठान है । देवयज्ञ का तात्पर्य दोनों समय हवन करना है। अथर्ववेद में लिखा है कि-
सायंसाय गृहपतिर्नो अग्निः प्रातः प्रातः सौमनसस्य दाता ।
यसोव सोवर्वसुदान एधि वयं त्वग्धानास्तम्वं पुषेम ।।
प्रातः प्रातर्गृहपतिनों अग्निः सायं सायं सौमनसस्य दाता । वसोवंसोर्वसुदान एधीन्धानास्त्वा शतहिमा ऋधेम ॥ [ प्रथर्व० 19/55/3-4]
अर्थात् शाम का नित्य हवन प्रातःकाल के समय गृहस्य के मन को प्रसन्न करनेवाला होता है और प्रातःका नित्य हवन सायंकाल के समय मन को प्रसन्न करनेवाला होता है, इसलिए गृहस्थ को नित्य दोनों सन्ध्याओं में हवन करना चाहिये । यही देवयज्ञ है। इस देवयज्ञ के पश्चात् पितृयज्ञ का विधान है। यजुर्वेद में लिखा है कि-
ये समाना: संमनसः पितरो यमराज्ये ।
तेषाँल्लोकः स्वधा नमो यज्ञो देवेषु कल्पताम् ॥ [यजु० 19/45 ]
क्षर्थात् यम के राज्य में जो पितर एक समान हैं और समान विचारवाले हैं, उन पितरों को देवताओं के बीच में लोक, स्वधा, नमस्कार और यज्ञ प्राप्त हों । इस पितृयज्ञ के बाद बलि-वैश्र्वदेव का विधान है। उसके लिए यजुर्वेद और अथर्ववेद में लिखा है कि-
यद्दत्तं यत्पदानं यत्पूर्त्त याश्र्व दक्षिणाः । तदग्निर्वश्वकर्मणः स्वर्देवेषु नो दधत् || [यजु॰18/64]
अहरहर्बलिमित्ते हरन्तोऽश्र्वायेव तिष्ठते घासमग्ने (अथर्व० 19/55/7)
अर्थात् जो अभी दिया है और जो इसके पहले दिया है तथा जो आगे दिया है और जो पीछे दिया है, वह सब बलिवैश्वकर्म की अग्नि को प्राप्त हो। जिस प्रकार नित्य घोड़ा घास पाता है, उसी प्रकार प्रतिदिन प्राणियों को उनका भाग अर्थात् बलि देना चाहिये। इसके बाद अतिथियज्ञ है। अतिथियज्ञ के विषय में लिखा है कि-
तद्यस्यैवं विद्वान् व्रात्यो राजोऽतिथिर्गृ हानागच्छेत् ॥1॥
श्रेयांसिमेनमात्मनो मानयेत् तथा क्षत्राय ना वृश्र्वते तथा राष्ट्राय ना वृश्र्वते ॥ 2॥ [अथर्व० 15/10]
तद् यस्यैव विद्वान् व्रात्योऽतिथिर्गृहानागच्छेत॥1॥
स्वयमेनमभ्युदेत्य ब्रूयाद् व्रात्य क्वावात्सीव्रत्यिदकं व्रात्य तर्पयन्तु व्रात्य यथा ते प्रिय तथास्तु व्रात्य यथा ते वशस्तथास्तु व्रात्य यथा ते निकामस्तथास्त्विति ॥2॥ (अथर्व०15/11)
अर्थात् जब विद्वान् और व्रतधारी अतिथि राजा के पर आवे, तो राजा को उचित है कि यह अतिथि को अपने से भी अधिक श्रेष्ठ माने। इससे राजा न तो क्षत्रियकुल में ही दोषी होता है और न राष्ट्र की ही ओर से दोषी होता है। जिसके घर में व्रतशील और विद्वान् अतिथि आ जाय, तो उसे चाहिये कि वह उठकर अतिथि से कहे कि हे व्रात्य!आप कहाँ से आरहे हैं ? आइये, लीजिये यह जल है, आप तृप्त हों और जो आपकी इच्छा हो, वह भी हाजिर किया जाय तथा जो आज्ञा हो, वही किया जाय। यह वैदिक आतिथ्य का नमूना है। इस प्रकार से पंचमहायज्ञों के द्वारा गृहस्थ सबको अन्न-जल पहुँचाता है और इसी प्रकार का गृहस्य पहिले कही हुई आयु, बल,क्रीर्ति, विद्या, प्रजा,धन और मोक्ष आदि इच्छाओं को प्राप्त कर सकता है। परन्तु ये बातें गृहस्य को तभी प्राप्त हो सकती है जब उसका सामाजिक व्यवहर भी उत्तम हो ।
क्रमशः