देश का विभाजन और सावरकर , अध्याय 5,नेहरू-शेख संबंध और नेहरूवादी लेखक

आज देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की पुण्यतिथि है। 27 मई 1964 को उनका देहांत हुआ था।
हम सभी जानते हैं कि पंडित जवाहरलाल नेहरू धर्मनिरपेक्षता के दीवाने थे। उन्हें धर्मनिरपेक्षता के नाम पर शेख अब्दुल्लाह से मिलकर महाराजा हरि सिंह को नीचा दिखाने में आनंद की अनुभूति होती थी। पीयूष बबेले ने अपनी पुस्तक ‘नेहरू मिथक और सत्य’ में अपने मित्र शेख अब्दुल्लाह के प्रेम में डूबे नेहरू का बचाव करते हुए लिखा है कि ’15 अगस्त 1947 के पहले के कश्मीर के निजाम का वर्णन सरदार पटेल के सचिव शिवशंकर ने ‘सरदार पटेल के चुने हुए पत्र व्यवहार , खंड-1’ में कुछ इस तरह किया है :- ‘महाराजा हरि सिंह का प्रशासन कार्य कुशल होते हुए भी प्रबुद्ध निरंकुश शासन था, जो महाराजा द्वारा पसंद किए गए प्रसिद्ध और प्रतिभावान लोगों द्वारा चलाया जाता था। राज्य की आबादी के पिछड़े हुए मुस्लिम वर्ग का राज्य की सरकार में कोई हाथ नहीं था।’
यह ऐसे शब्द हैं जिन्हें धर्मनिरपेक्ष नेहरू के प्रशंसक इस प्रकार दिखाने का प्रयास करते हैं कि उस समय महाराजा हरि सिंह एक निरंकुश शासक की भांति शासन चला रहे थे। जिसमें मुसलमानों का कोई योगदान नहीं था। यदि उस समय मुसलमान शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में कश्मीर से महाराजा को भगाने के उद्देश्य से प्रेरित होकर ‘महाराजा ! कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन चला रहे थे तो इसमें उनका कोई दोष नहीं था। क्योंकि ऐसा करके वे ‘मुकम्मल आजादी’ की बात कर रहे थे। जबकि सच यह था कि मुसलमान किसी हिंदू शासक की सत्ता को सहन करने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने उन्हें गैर मुस्लिम का शासन अपने ऊपर एक अत्याचारी के शासन के समान दिखाई देता था। कश्मीर को उन्होंने सैकड़ों वर्ष से अपने शासन के अधीन रखा था। अब जबकि महाराजा रणजीत सिंह जैसे हिंदू हितैषी वीर शासक के कारण वहां पर फिर से हिंदू सत्ता स्थापित हो गई थी तो इसे वहां का मुस्लिम सहन नहीं कर सकता था। इसीलिए वह ‘महाराजा! कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन चला रहा था। मुसलमानों की इस भावना को शेख अब्दुल्ला ने समझा था ,इसलिए इस भावना की पतवार चढ़कर वह अपनी सत्ता प्राप्ति की नैया पार करने के लिए मुसलमानों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहा था।
इस सत्य को ओझल कर नेहरूवादी लेखकों ने तथ्यों को दूसरी रंगत देने का प्रयास किया है और वे बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि उस समय महाराजा हरि सिंह का प्रशासन एक निरंकुश शासन के रूप में मुस्लिमों पर अत्याचार कर रहा था, इसलिए वहां महाराजा हरिसिंह के विरुद्ध वातावरण बन रहा था। देश विरोधी शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में जिस प्रकार वहां आंदोलन उठ रहा था उसे फ्रैंक मॉरिस के माध्यम से पीयूष बबेले इस प्रकार व्यक्त करते हैं ‘1929 में लाहौर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन से पहले अशिक्षित और दबे कुचले कश्मीर के लोग राजनीतिक रूप से बहुत जागरूक नहीं थे। नेहरू की अध्यक्षता में हुए इस अधिवेशन में कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता को अपना लक्ष्य बताया था। यह पहला अवसर था जब कश्मीर में राजनीतिक जागरूकता ने जोर पकड़ा। उसमें 25 साल के बेरोजगार अध्यापक शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में आजादी के आंदोलन का नेतृत्व करना आरंभ किया। 6 फुट 4 इंच लंबे अब्दुल्लाह जल्द ही ‘शेरे कश्मीर’ के नाम से विख्यात हो गए । वह डरते नहीं थे, सीधा और साफ बोलने वाले थे । हालांकि उनके भीतर कहीं गहरी कुटिलता और छल था।’
हिंदू शासक से मुक्ति पाना अंग्रेज लेखक और उसके बाद नेहरूवादी लेखक कश्मीर में राजनीतिक जागरूकता का शुभारंभ मान रहे हैं। इससे पहले जब कश्मीर से हिंदू नाम की चिड़िया को विलुप्त करने के गहरे षड्यंत्र मुस्लिम शासकों के शासन में हुए उस सबको धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भुलाने की चेष्टा की जाती है और यदि उस गंभीर षड्यंत्रात्मक कार्यशैली के विरुद्ध कभी किसी हिंदू ने आंदोलन किया तो उसे राजनीतिक जागरूकता ना कहकर अच्छे भले मुस्लिम शासकों के विरुद्ध हिंदुओं की विरोध की भावना कहकर अपमानित किया जाता है।
अब्दुल्ला यह भली प्रकार जानता था कि कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की नीति से ही वह कश्मीर में अपने आंदोलन को चलाने में सफल हो सकता है। उसे यह भली प्रकार ज्ञात था कि हिंदू को कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की नीति के माध्यम से ही कुचला जा सकता है। यही कारण था कि वह अन्य कई कारणों के चलते नेहरू से निकटता बनाने में सफल हुआ। उपरोक्त पुस्तक के लेखक ने मॉरिस के हवाले से ही आगे लिखा है कि ‘अब्दुल्ला शुरू से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष राजनीति से प्रभावित थे और वह विशेष रूप से नेहरू के करीब आते चले गए। बदले में नेहरू ने भी उनकी राष्ट्रीय सोच की तारीफ की और उसे स्वीकार किया। धीरे-धीरे दोनों करीबी दोस्त हो गए। नेहरू के दृष्टिकोण से प्रभावित होकर अब्दुल्ला ने जून 1939 में ‘जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस’ को अपना नाम बदलकर और ‘जम्मू एंड कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस’ करने के लिए मना लिया। जब अब्दुल्लाह अपने संगठन में धर्म विशेष की जगह राष्ट्रवादी बदलाव कर रहे थे, उनके संगठन का एक छोटा धड़ा चौधरी गुलाम अब्बास के नेतृत्व में अलग हो गया और खुद को मुस्लिम कांफ्रेंस ही कहता रहा। इस धड़े ने बाद में पाकिस्तान की हिमायत की, वहीं शेख अब्दुल्ला की पार्टी कांग्रेस के और करीब आ गई।’
मॉरिस के इस कथन की समीक्षा यदि की जाए तो स्पष्ट होता है कि शेख अब्दुल्ला ने अपने संगठन का नाम चाहे थोड़ा बहुत परिवर्तित कर लिया हो पर उसकी सोच में रंचमात्र भी परिवर्तन नहीं आया था। हिंदू विरोध और भारत विरोध को लेकर उसने अपनी पार्टी का गठन किया था और वह जीवन भर इसी विचारधारा पर काम करता रहा। उसी की विरासत को उसके बेटे फारूक अब्दुल्ला और पोते उमर अब्दुल्ला ने आगे बढ़ाया है। बाद की घटनाओं ने यह बात स्पष्ट कर दी कि इस परिवार की सोच राष्ट्र विरोधी रही और जब-जब भी जम्मू-कश्मीर में इन लोगों की सरकार बनी तब तब उन्होंने केंद्र सरकार का मूर्ख बनाकर अपने राजनीतिक हित साधे। इन लोगों ने पाकिस्तान में न जाकर हिंदुस्तान के साथ रहने का मन बनाया , इसके पीछे कोई ऐसा कारण नहीं था जिससे यह कह जा सके कि यह उनकी राष्ट्रभक्ति थी , अपितु इसके पीछे केवल एक कारण था कि कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिला कर केंद्र से कश्मीर के विकास के नाम पर मोटे मोटे पैकेज लेकर मौजमस्ती की जाए। कश्मीर के भटके हुए नौजवानों को पत्थर पकड़ा कर देश के अर्धसैनिक बलों पर आक्रमण करवाए जाकर उन्हें भुनाया जाए। यह एक बहुत बड़ा खेल था । जिसके पीछे शेख अब्दुल्लाह की सोच थी कि पाकिस्तान को अपना धर्म का भाई बनाकर मूर्ख बनाया जाए और हिंदुस्तान को पाकिस्तान का भय दिखाकर भुनाया जाता रहे।
मुस्लिम कांफ्रेंस का नाम परिवर्तित हो जाने का अभिप्राय यह नहीं था कि उसकी नीतियों में कोई आमूलचूल परिवर्तन आ गया था। शेख अब्दुल्लाह अभी भी मुकम्मल आजादी की बात करता था ।उसे कश्मीर में केवल मुस्लिम हितों की राजनीति करनी थी और उन्हीं के लिए सोचना था। हिंदू उसके लिए एक निरीह प्राणि था। नेहरू जी ने कभी भी अपने मित्र शेख अब्दुल्लाह का हृदय परिवर्तन करने में सफलता प्राप्त नहीं की। वह हृदय से भारत विरोध की बात सोचता रहा और भारत-पाकिस्तान के बीच एक तीसरे देश का सपना देखता रहा। अतः यह कहना कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने समय रहते अपने मित्र शेख अब्दुल्लाह की पार्टी का नाम और नीतियां बदलवाने में सफलता प्राप्त की, दिवास्वप्न देखने के समान है। इतना अवश्य है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू शेख अब्दुल्लाह को जेल में डालने के उपरांत भी उसके प्रति उदार बने रहे। मित्रता निभाने का शौक पंडित जवाहरलाल नेहरू पर इस कदर चढ गया था कि वे एक देशद्रोही बने व्यक्ति को भी दुलार रहे थे। ऐसा कभी नहीं था कि शेख अब्दुल्लाह मुस्लिम होते हुए भी मुस्लिम लीग की तुलना में अपने आप को भारत के अधिक निकट समझने लगे थे। उन्होंने ‘दो निशान, दो प्रधान, दो विधान’ की वकालत करना कभी नहीं छोड़ा। जो लोग यह मानते हैं कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुल्लाह को अपनी नीतियों में परिवर्तन लाने के लिए बाध्य कर दिया था वह देश से सत्य को छुपाते हैं। यदि शेख अब्दुल्लाह की नीतियों में वास्तव में परिवर्तन आ गया था तो उन्हें सामान्य रूप से भारत का निवासी होने पर गर्व करना चाहिए था। तब उन्हें अपने राज्य जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष राज्य का दर्जा देने की वकालत भी नहीं करनी चाहिए थी। कश्मीर के लिए अलग संविधान, अलग झंडा और वहां के राज्यपाल को राष्ट्रपति व मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहलाना अंततः नीतियों में कौन से परिवर्तन का संकेत था? यदि उसकी नीतियों में परिवर्तन आ गया था और हृदय भी परिवर्तित हो गया था तो वह डंके की चोट खड़े होकर कहता कि मेरा राज्य जम्मू-कश्मीर भी भारत के साथ विलय को स्वीकार करता है और कोई भी विशेषाधिकार लिए बिना सभी राज्यों के समान अपने आप को भारत की मुख्य धारा के साथ जोड़ता है।
नेहरू शेख अब्दुल्लाह की मित्रता के विषय में लिखते हुए उपरोक्त लेखक लिखते हैं कि ‘इस दोस्ती का आलम यह था कि 1946 में शेख अब्दुल्ला के राजा के खिलाफ चलाए जा रहे, “कश्मीर छोड़ो आंदोलन’ में भाग लेने के लिए नेहरू कश्मीर पहुंच गए और वहां उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। हालांकि, भारत के दबाव में कुछ घट बाद उन्हें छोड़ दिया गया। यही नहीं, नेहरू जेल में बंद शेख अब्दुल्ला का मुकदमा लड़ने के लिए भी एक वकील की हैसियत से कश्मीर गए।’
इन पंक्तियों में ‘भारत के दबाव’ शब्दों को विशेष रूप से देखने की आवश्यकता है। लेखक स्वयं इस मानसिकता से ग्रसित है कि जैसे जम्मू कश्मीर कोई अलग देश है और भारत अलग देश है। यही वह सोच है जो किसी भी कांग्रेसी की जम्मू कश्मीर के बारे में मानसिकता को स्पष्ट कर देती है।
शेख अब्दुल्ला और जवाहरलाल नेहरू के रिश्ते की एक बानगी रामचंद्र गुहा ने अपनी चचित पुस्तक ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में पेश की है :-
‘शेख अब्दुल्ला की पहली गिरफ्तारी के दो महीने बाद नेहरू ने लिखा था कि वास्तव में शेख की गिरफ्तारी एक ऐसी बात है, जो मुझे बहुत तकलीफ़ पहुंचाती है. धीरे-धीरे महीने साल में बदल गए और उनकी तक़लीफ़ आत्मिक दुख का कारण बनती गई. इस तक़लीफ़ को कम करने का एक तरीक़ा था कि नेहरू ने अपने मित्र के बेटे की पढ़ाई-लिखाई का ध्यान रखना शुरू किया. कुछ विवरणों के मुताबिक उन्होंने इसका खर्चा भी वहन किया. जुलाई, 1955 में अब्दुल्ला के बड़े बेटे फारुख ने नेहरू से मुलाक़ात की जो उस समय जयपुर के मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहे थे. फारुख ने प्रधानमंत्री से कहा कि उसके सहपाठी लगातार उसके पिता को गद्दार कहते रहते हैं. नेहरू ने इसके बाद राजस्थान के एक मंत्री को लिखा कि फारुख के रहने-सहने की उचित व्यवस्था करें और उनके लिए कुछ अच्छे दोस्तों की तलाश करें, ताकि वह किसी तरह की हीन भावना में न पड़े, जैसा कि नेहरू ने खुद लिखा है कि कुछ लोग बड़े बेवकूफ़ाना ढंग से सोचते हैं कि चूंकि शेख अब्दुल्ला के साथ हमारा कुछ मतभेद है इसलिए हमें उनके बेटे और उनके परिवार की तरफ झुकाव नहीं रखना चाहिए, यह बात सिर्फ बकवास ही नहीं है, बल्कि मैं व्यक्तिगत तौर पर ऐसा सोचता हूं. शेख अब्दुल्ला जेल में हैं, इसलिए यह मेरा विशेष दायित्व है कि मुझे उनके बेटे और परिवार का ध्यान रखना चाहिए.”
अपने किसी भी विरोधी से व्यक्तिगत शत्रुता न पालना लोकतंत्र का मूल्य है। नेहरू जी यदि इस प्रकार का आचरण उस समय शेख अब्दुल्ला और उसके बेटे फारूक अब्दुल्ला के प्रति कर रहे थे तो निश्चित रूप से वह एक लोकतांत्रिक मूल्य को अंगीकृत कर उसके अनुसार अपना सदाचरण प्रस्तुत कर रहे थे। लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में इस प्रकार के आचरण की जितनी प्रशंसा की जाए, उतनी कम है। परंतु बहुत ही विनम्रता के साथ यह पूछा जा सकता है कि नेहरू जी यदि इतने ही लोकतांत्रिक थे और उन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति इतना ही प्यार था तो उन्होंने ऐसा ही आचरण क्रांतिकारियों के प्रति क्यों नहीं अपनाया जो किसी कारण से स्वतंत्रता के पश्चात भी जेल काट रहे थे या उससे पहले जेल काटते रहे थे। उन्होंने बलिदानी क्रांतिकारियों के परिजनों के साथ कभी आत्मीयता का प्रदर्शन क्यों नहीं किया, जो किसी समय विशेष पर फांसी पर झूल गए थे और जिनके परिजन अब भूखे मरने की स्थिति में थे? उन्होंने ऐसा ही आचरण जम्मू कश्मीर के बारे में ‘दो विधान, दो प्रधान, दो निशान’ का विरोध करने वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी की माता और अन्य परिजनों के साथ क्यों नहीं किया जो श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान के पश्चात चीखते चिल्लाते रह गए थे।
नेहरू जी कभी देवताओं को दूध नहीं पिला पाए। हां, उन्होंने सांपों को दूध अवश्य पिलाया और इन सांपों ने आगे चलकर केंद्र से बड़े-बड़े पैकेज कश्मीर के गुमराह युवकों के नाम पर मांग कर देश का मूर्ख बनाया। भटके हुए नौजवानों के हाथों में पत्थर देकर हमारी सेना पर पत्थरबाजी करवाई और दूसरे इसी प्रकार के अन्य अनेक ऐसे कार्य किए जिनसे उनके राष्ट्रद्रोही होने के पक्के प्रमाण मिलते हैं।
आगे चलकर उपरोक्त लेखक बड़ी बेतुकी बात कहता है। वे लिखते हैं कि ‘जब हरि सिंह ने भारत में विलय के दस्तावेजों पर दस्तखत किए तो उसे स्वीकृति देने के लिए कश्मीर की जनता की तरफ़ से शेख अब्दुल्ला खड़े थे, अगर शेख अब्दुल्ला की सहमति न होती अर्थात कश्मीर की जनता की सहमति न होती तो हैदराबाद या जूनागढ़ के नवाबों की तरह कश्मीर के राजा की बात भी नहीं मानी जाती और कोई मान भी लेता तो भारत के सर्वोच्च नेता महात्मा गांधी नहीं मानते।’
यहां पर यह बात समझ से परे है कि शेख अब्दुल्ला को कश्मीर की जनता का प्रतिनिधि किसने बना दिया था? दूसरी बात यह है कि जब अन्य रियासतों के राजाओं के हस्ताक्षर करने मात्र से उनकी रियासतों का विलय भारत के साथ हो गया था तो कश्मीर पर यह प्रावधान किसने लागू कर दिया था कि वहां का के राजा का विलय पत्र तभी स्वीकार किया जाएगा जब उस पर शेख अब्दुल्लाह सहमति दे रहा होगा? और यदि शेख अब्दुल्लाह की सहमति इतनी महत्वपूर्ण थी तो फिर आगे चलकर शेख अब्दुल्ला और उसकी पार्टी के लोग या जम्मू कश्मीर के अन्य राजनीतिक दल यह मांग क्यों करते रहे कि वहां जनमत संग्रह करा कर यह निर्णय लिया जाए कि वहां के लोग भारत के साथ जाना चाहते हैं या पाकिस्तान के साथ?
शेख अब्दुल्ला को लेकर जैसी सोच जवाहरलाल नेहरु की थी वैसी ही महात्मा गांधी की भी थी। महात्मा गांधी भी जम्मू कश्मीर की सारी जनता का प्रतिनिधि देशभक्त महाराजा को न मानकर देशद्रोह की स्थिति तक उतर चुके शेख अब्दुल्ला को मानते थे। उक्त लेखाक के अनुसार कश्मीर के भारत में विलय के बाद गांधीजी ने अपने एक प्रार्थना-प्रवचन में कहा था कि मेरी सदा यह राय रही है कि सारे ही राज्यों के सच्चे शासक वहां के लोग हैं। कश्मीर के लोगों को किसी बाहरी या भीतरी दबाव अथवा बल-प्रदर्शन के बिना इस प्रश्न का निर्णय स्वयं करना होगा। पाकिस्तान सरकार कश्मीर को पाकिस्तान में मिलने के लिए दबाती रही है। इसलिए जब महाराजा ने संकट में फंसकर शेख अब्दुल्ला के समर्थन से संघ में शामिल होना चाहा तो भारतीय गवर्नर जनरल इस प्रस्ताव को अस्वीकार नहीं कर सके। यदि महाराजा अकेले ही भारत के साथ मिलना चाहते, तो मैं उसका समर्थन नहीं कर पाता। परंतु यह सही हुआ कि महाराजा और शेख अब्दुल्ला दोनों ने जम्मू और कश्मीर के लोगों की तरफ से बोलते हुए ऐसा चाहा था। शेख अब्दुल्ला इसलिए मैदान में आए, क्योंकि उनका दावा मुसलमानों का ही नहीं, बल्कि सारे कश्मीर के लोगों का प्रतिनिधि होने का है।’
कितना अच्छा होता कि गांधी जी और नेहरू जी उस समय भारत के साथ आत्मीय भाव रखने वाले देशभक्त महाराजा की पीठ थपथपाते और उन्हें इस बात का श्रेय देते कि उनके कारण ही जम्मू कश्मीर रियासत भारत के साथ आ सकी है ? उन्होंने मुस्लिम तुष्टीकरण करते हुए शेख अब्दुल्ला को इस बात का श्रेय दिया कि वह सारे जम्मू कश्मीर की आवाम के प्रतिनिधि हैं और उनके कारण ही जम्मू कश्मीर की रियासत भारत के साथ आ सकी है।

( दिनांक : 27 मई 2023)

डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और ‘भारत को समझो’ अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)

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