भारत की स्वाधीनता के लिए अनेकों ने निष्ठुरता से अपने रक्त की अंतिम बूंद तक बहा दी और मां भारती के भाल पर स्वाधीनता का मुकुट रखने की लालसा लेकर वे इस लोक से विदा हो गए। तथाकथित रूप से देश स्वाधीन हो गया लेकिन सत्ता वे पा गए जिन्होंने चार डग भी नहीं भरे थे। स्वाधीनता के लिए जिन महापुरुषों ने अपने मस्तक बो दिए, उनमें से एक थे रासबिहारी बोस जो १९१५ से जीवन पर्यंत अर्थात २१ जनवरी १९४५, अपने अवसान तक जापान में रहकर स्वाधीनता का युद्ध लड़ते रहे लेकिन उनका दुर्भाग्य कि स्वाधीनता के अमृत काल के इस वर्ष में जापान की भूमि पर उस व्यक्ति की मूर्ति का अनावरण किया गया जिसका अंग्रेजों के विरुद्ध चलाया गया कोई आंदोलन पूर्ण ही नहीं हो सका अर्थात जब भारतवासी आंदोलन को अपने संघर्ष की पराकाष्ठा तक पहुंचा देते थे एवम लगता था कि अब अंग्रेज सरकार धूल धूसरित होना ही चाहती है, तब ही आंदोलन के लिए अपना सब कुछ गवां बैठने वाले आंदोलन कारियों को हतप्रभ करते हुए वे अपना आंदोलन वापस लेकर, उसे जीवन दे दिया करते थे। समूह-७ सम्मेलन में भाग लेने के क्रम में अपनी हिरोशिमा यात्रा के मध्य प्रधानमंत्री मोदी जी ने गांधी जी की प्रतिमा का अनावरण किया लेकिन जो रासबिहारी बोस भारत भूमि के लिए जापान में बैठकर निरंतर संघर्ष करते रहे उनको प्रधानमंत्री जी ने विस्मृत ही कर दिया।
सार्वजनिक जीवन में नींव के पत्थरों को विस्मृत करने का व्यसन लग चुका है। भारत पर सर्वाधिक समय तक शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी अधिकतम अपने कुल पिता नेहरू तक ही अपनी गणेश परिक्रमा करती है। जबकि सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी अपने कुल पिता वाजपेयी जी तक ही सीमित है ।अटल पथ का निर्माण यत्र ,तत्र, सर्वत्र प्राप्त हो सकता है। बहुत हुआ तो पंडित दीनदयाल उपाध्याय की अभ्यर्थना कर ली और कभी कभार डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को स्मरण कर लिया लेकिन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संस्थापक तथा भारतीय जनसंघ के घोषणा पत्र के रचयिता डॉक्टर बलराज मधोक को भाजपा कभी चिमटे से भी छूना उचित नहीं समझती। ऐसी मानसिकता के चलते यदि गृहमंत्री अमित शाह गुजरातियों का गुणगान करते हुए ऋषि दयानंद का उल्लेख छोड़ दें तो आश्चर्य नहीं होता। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष डॉक्टर पट्टाभि सीतारमैया के साक्ष्यानुसार ऋषि दयानंद के ८५% शिष्यों के बलिदान पर सत्ता का यह महल टिका हुआ है जहां अमित शाह जी विराजमान हैं। ऋषि दयानंद वह पहले व्यक्ति हैं जो १८७४ में यह घोषणा करते हैं कि भारत पर कोई विदेशी शासन न करे।
आज स्वनाम धन्य स्वाधीनता सेनानी आदरणीय रासबिहारी बोस का जन्मदिन है। वर्ष १८८६ में आज ही की तिथि को उनका अवतरण हुआ था। भारतीय स्वाधीनता की प्राप्ति के लिए सशस्त्र क्रांति के पथ के एक अन्य राही वीर सावरकर से यह लगभग तीन वर्ष छोटे थे और वीर सावरकर को इस पथ पर अपना आदर्श मानते थे।वे आजीविका के लिए देहरादून के वन विभाग में क्लर्क का कार्य करते थे। शासकीय सेवा में रहते हुए भी आश्चर्यजनक ढंग से अंग्रेजों की आंख में धूल झोंकते हुए वे क्रांति के मार्ग पर निरंतर आगे बढ़ रहे थे। वर्ष १९१२ में अंग्रेज सम्राट जॉर्ज पंचम का दिल्ली दरबार प्रस्तावित था और उसी के अनुक्रम में उस समय के वायसराय हार्डिंग की शोभा यात्रा निकाली जा रही थी जिस पर एक बम फेंका गया था। उस अभियान में दुर्भाग्य से हार्डिंग बच गया था।इस कांड के मुख्य शिल्पी रासबिहारी बोस ही थे तथा वे एक महिला के वेश में उस स्थल पर भी उपस्थित थे। इस घटना के पश्चात वे घटनास्थल से लुप्त हो गए तथा रात ही रात में देहरादून वापस पहुंच गए। अगले दिन इस घटना के विरोध में राज पुरुषों ने एक सभा आयोजित की जिसमें बोस महोदय भी उपस्थित थे और उन्होंने इतना सुंदर अभिनय किया कि अंग्रेज साहब बहादुर इस व्यक्ति की थाह पा ही नहीं सके फलत: बोस महोदय की स्वामी निष्ठा संदेह से परे ही बनी रही। वर्ष १९१५ में लाहौर से सशस्त्र क्रांति का बीड़ा उठाया गया। इस क्रांति के सूत्रधार बोस महाशय ही थे। वे इस क्रांति युद्ध के सेनानायक के रूप में लाहौर स्थित मुख्यालय से संचालन कर रहे थे, तो वही अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में राजा महेंद्र प्रताप के नेतृत्व में एक निर्वासित आजाद हिंद सरकार का गठन भी किया गया जिस के प्रधानमंत्री मौलवी बरकतउल्ला थे। इस क्रांति की सफलता के लिए विदेशों से शस्त्रों का प्रबंध किया गया। पूरे देश में ब्रिटिश सेना के भारतीय वीरों से संपर्क साधा गया। विदेशों से भी क्रांतिवीर इस संघर्ष के लिए भारत में आए। सरदार भगत सिंह के आदर्श सरदार करतार सिंह सराभा इन्हीं में से एक थे जिन्हें इस क्रांति योजना के खुल जाने के कारण फांसी पर चढ़ा दिया गया था। अपने ही साथियों के देशद्रोह के कारण यह योजना असफल हो गई।अब बोस महाशय पर अंग्रेजी सत्ता की गिद्ध दृष्टि ठहर गए लेकिन पंछी पकड़ में आता ही नहीं था। वे डाल डाल तो यह पात पात। उन्हीं दिनों गुरु रविंद्र नाथ ठाकुर को जापान यात्रा पर जाना था। ठोस व्यक्तित्व व कृतित्व के स्वामी बोस महाशय ने इस कार्यक्रम में से अपने लिए मार्ग बनाने का निश्चय किया और वे पासपोर्ट कार्यालय में अधिकारी के सामने जा बैठे। उन्होंने वहां निश्चिंत भाव से अधिकारी को अपना परिचय रविंद्र नाथ ठाकुर के सचिव पी एन ठाकुर के रूप में दिया तथा पासपोर्ट प्राप्त कर लिया । इस प्रकार पक्षी बहेलिया के बिछाए जाल को तार तार करके उसके ही संसाधन पानी के जहाज से जापान की ओर उड़ चला।
जापान में उन्होंने अपने संघर्ष को गति प्रदान की। उन्होंने इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की तथा उसके अंतर्गत एक सेना का गठन किया। यह वे भारतीय सैनिक थे जिन्होंने ब्रिटिश की ओर से जापान के समक्ष आत्मसमर्पण किया था। जापानी सरकार ने इन सैनिकों को रासबिहारी बोस को सौंप दिया। इधर अंग्रेजों को उनके जापान में होने की गंध मिल चुकी थी। अंग्रेजों ने अपने इस शत्रु को पकड़ने के लिए कूटनीतिक प्रभाव का प्रयोग करना शुरू कर दिया। यद्यपि जापानी मानस मूलतः स्वाधीनता प्रेमी होता है लेकिन एक अनजाने व्यक्ति के लिए सरकार का स्वयं को झोंकने का कोई अर्थ नहीं था इसलिए जापानी प्रतिरोध शिथिल होने लगा और यहीं जापानी नागरिकों का स्वदेशी प्रेम सामने आया। जिस परिवार ने बोस महाशय को शरण दे रखी थी, वहां एक १६ वर्ष की कन्या थी। वह बोस महाशय के क्रिया कलापों से परिचित थी। वह जानती थी कि एक विप्लवी के जीवन में कभी सुख प्राप्त नहीं हो सकता और उसके साथ जीवन व्यतीत करना कष्टदायक ही होता है लेकिन जापानी मूल रूप से स्वदेश प्रेमी होते हैं और रासबिहारी बोस भी अपनी देश की स्वाधीनता के लिए संघर्षरत थे इसलिए वे जापानियों के मानसिक स्तर के निकट थे अतः १६ वर्षीय तोषिको ने अपने जीवन को अपने से २४ वर्ष बड़े बोस महाशय के साथ बांध लिया। जापानी नियम के अनुसार यदि कोई जापानी कन्या किसी विदेशी से विवाह रचा लेती थी तो उस व्यक्ति को स्वत: ही जापान की नागरिकता प्राप्त हो जाती थी । इस प्रकार जो तलवार उनके सिर पर लटक रही थी वह हट गई । अपने इस बलिदान से तोषिको ने भारत को अपना ऋणी बना लिया।
रासबिहारी बोस प्राणपण से अपनी भूमिका निभाते रहे। १९४१ में जब उनके पास यह समाचार पहुंचा कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस पूरी अंग्रेजी सत्ता को धता बताते हुए उनके ही प्रकार से भारत से अंतर्ध्यान होकर जर्मनी पहुंच गए तब बोस महाशय को अपने स्वप्न के साकार होने की संभावना प्रदीप्त हो गई। उन्होंने कई संदेश नेताजी को जर्मनी भेजे और उन्हें जापान आने के लिए आमंत्रित किया। १९४३ में नेताजी सुभाष चंद्र बोस जापान पहुंचे और बोस महाशय से उन्होंने भेंट की। एक कार्यक्रम में रासबिहारी बोस ने इंडिपेंडेंस लीग और उसके अंतर्गत चलने वाली सैन्य वाहिनी का नेतृत्व नेताजी को समर्पित कर दिया। विश्व भर के राजनीतिक विश्लेषक विस्तारित नेत्रों से सत्ता के इस स्थानांतरण को देख रहे थे। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई अपने द्वारा निर्मित किसी सत्ता का स्वेच्छापूर्वक त्याग कर उस सत्ता का अंकुश किसी अन्य को कैसे सौंप सकता है लेकिन जो राष्ट्रवाद के नायक होते हैं वह यह कार्य निर्लिप्त भाव से कर देते हैं और रासबिहारी बोस ने यह कार्य सहजता से कर दिखाया। आजाद हिंद सरकार के निर्माण के पश्चात नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने इस सरकार के कोष से बोस महाशय को, जो इस सरकार के मुख्य प्रेरक और प्रमुख सलाहकार भी थे, को कुछ धनराशि प्रतिमाह देने का प्रस्ताव किया जिसे उन्होंने पूरी विनम्रता के साथ अस्वीकार कर दिया कि यह राशि राष्ट्र की स्वाधीनता के निमित्त व्यय होनी चाहिए और जीवन के अंतिम क्षण अर्थात २१ जनवरी १९४५ अपनी मृत्यु पर्यंत तक, स्वयं के द्वारा अर्जित धन से ही जीवन यापन किया। रासबिहारी बोस जैसे महामानव स्वयं में इतिहास होते हैं। वह आज प्रभु की लोकसभा के सम्मानित सदस्य होंगे। उनकी जयंती पर कृतज्ञता पूर्ण श्रद्धांजलि ।
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