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इतिहास के पन्नों से

देश विभाजन और सावरकर ? अध्याय 2, एक गांधीवादी के आरोप

अभी पिछले दिनों एक हिमांशु कुमार नामक गांधीवादी का लेख पढ़ा। इन महोदय ने अपने लेख के प्रारंभ में लिखा है कि ‘मोदी ने अब से चौदह अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मरण दिवस घोषित करवा दिया है। ये सोच रहे हैं कि इस बहाने हमें हर साल भारत के विभाजन के लिए जिम्मेदार बता कर मुसलमानों और कांग्रेसियों को गाली देने का मौका मिल जाएगा, लेकिन इस बार भाजपा से गलती हो गई है, क्योंकि सच्चाई अलग है। विभाजन के लिए अगर कोई दोषी है तो आरएसएस और हिन्दू महासभा दोषी हैं। जिन्ना शुरू से एक धर्म निरपेक्ष नेता थे। जिन्ना भगत सिंह के वकील थे, जिन्ना तिलक के वकील थे, सन् 1940 तक जिन्ना ने कभी भारत के बंटवारे की मांग नहीं की थी, जिन्ना को यह मांग करने के लिए मजबूर करने वाले थे हिन्दू महासभा के सावरकर, मुंजे, भाई परमानन्द और गोलवलकर। मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग पहली बार 1940 में की, क्योंकि 1939 में यानी एक साल पहले ही हिन्दू महासभा ने दो कौम दो राष्ट्र का प्रस्ताव कर दिया था, कांग्रेस भी बंटवारे के खिलाफ थी। मौलाना आज़ाद खान अब्दुल गफ्फार खान, गांधी, नेहरु सबके सब बंटवारे के खिलाफ थे, गांधी जी ने तो यहाँ तक प्रस्ताव कर दिया था कि भारत का प्रधान मंत्री जिन्ना को बना दो लेकिन बंटवारा मत करो।’

यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब जबकि इस्लाम की सांप्रदायिकता और देश में आतंकवाद को बढ़ावा देने की उसकी प्रवृत्ति को देखते – देखते आजादी के 75 वर्ष बीत गए हैं, तब भी हमारे देश में हिंदूवादी राष्ट्रवादी लोगों को ही देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार मानने वाले लोग जीवित हैं। इन लोगों की सोच परिवर्तित नहीं हुई है। यद्यपि एक नहीं अनेक उदाहरण इस प्रकार के हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि न केवल भारत में बल्कि संसार के उन सभी देशों में इस्लाम अपनी आतंकवादी सोच के लिए जाना व समझा जाता है, जहां जहां इसे मानने वाले लोगों की अच्छी जनसंख्या रहती है। जिन हिंदूवादी राष्ट्रवादी नेताओं का नाम इस लेखक ने ऊपर लिया है उन सभी का दोष केवल एक था कि वे राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में संलिप्त लोगों की मानसिकता को उजागर करने का कार्य कर रहे थे और न केवल उजागर करने का कार्य कर रहे थे बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उन्हें उचित प्रतिक्रिया देने से भी नहीं चूकते थे। कहने का अभिप्राय है कि सुरक्षात्मक दृष्टिकोण अपनाकर राष्ट्रहित में वीरोचित काम करना भी राष्ट्रवादी लोगों के लिए इस देश में इन लेखक महोदय जैसे लोगों ने दूभर कर दिया है।
सबसे पहली बात तो यह है कि जिस जिन्नाह का इन गांधीवादी लेखक महोदय ने बचाव किया है उस जिन्नाह का परिवार यदि मुसलमान बना तो निश्चित रूप से इसके पीछे उसके परिवार या उसके पूर्वजों की हिंदू विरोधी मानसिकता ही काम कर रही थी। यह एक अलग कहानी है कि वह कैसे हिंदू से मुसलमान बन गए थे ? पर जब मुसलमान बन गए तो उन्होंने वही किया जो एक हिंदू से मुसलमान बना व्यक्ति हिंदू के साथ करता आया है। हम सभी जानते हैं कि कालापहाड़ नाम का एक व्यक्ति ही है जो हिंदू से मुसलमान बनने के बाद आज के बांग्लादेश को बनाने का एकमात्र जिम्मेदार व्यक्ति है। इसी नीति – रणनीति पर काम करने वाले जिन्नाह ने भी देश को बांटने का कार्य किया। इसके साथ – साथ हम यह भी जानते और मानते हैं कि जिन्नाह प्रारम्भ में धर्मनिरपेक्ष अर्थात सेकुलर था और उसे देश के बंटवारे तक जाने की कोई इच्छा नहीं थी, परंतु जैसे-जैसे उस पर इस्लाम का रंग चढ़ा और उसकी राजनीतिक इच्छा शक्ति जागृत हुई तो कालांतर में वह स्वयं देश के बंटवारे की जिद पर अड़ गया था। इसके पीछे वे अनेक कारण थे जो इस्लाम को इस देश को तोड़ने के लिए सदियों से प्रेरित करते आ रहे थे ।
हमें इस भ्रान्त धारणा से बाहर निकलना चाहिए कि मुगलों ने इस देश को जोड़ने का काम किया था, तोड़ने का नहीं। इसके स्थान पर इस सत्य को स्वीकार करना चाहिए कि मुगलों ने इस देश को तोड़ने का कार्य किया, जोड़ने का नहीं। यदि वह हमारे देश में इस्लामिक विचारधारा को नहीं फैलाते तो निश्चित रूप से ना तो आज अफगानिस्तान होता ना पाकिस्तान होता और न बांग्लादेश होता। सावरकर, गोलवलकर ,डॉ मुंजे, भाई परमानंद जैसे लोगों ने इस सत्य को गहराई से समझा। समझकर उन्होंने देश के लोगों को जागृत किया कि मुस्लिम लीग और अंग्रेज मिलकर क्या षड्यंत्र रच रहे हैं ? और किस प्रकार वे देश के विभाजन की ओर बढ़ते जा रहे हैं ? इन लोगों का इस प्रकार भंडाफोड़ करना ही उन तथाकथित गांधीवादियों को आज तक चुभता रहा है जिनका बड़ा नेता अर्थात महात्मा गांधी अंग्रेजों से 1930 तक भी ₹100 प्रति महीने अपने दैनिक खर्चों के लिए प्राप्त कर रहे थे।

सर सैयद अहमद खान के बारे में

अब हम उपरोक्त लेखक को बताने का प्रयास करेंगे कि जिस समय सावरकर 4 वर्ष के ही थे उस समय मुस्लिम नेता क्या कर रहे थे और क्या कह रहे थे? इस संबंध में सबसे पहले हम सर सैयद अहमद खान के बारे में विचार करते हैं। सर सैयद अहमद खान को एक बहुत बड़े इस्लामिक शिक्षाविद के रूप में दिखाया जाता है। उनके बारे में यह भी प्रचार किया जाता है कि वह बहुत बड़े राष्ट्रवादी थे और उनके लिए इस्लाम से पहले देश था । यद्यपि ऐसा नहीं था। उनके बारे में सच्चाई यह है कि उन्होंने जीवन भर इस्लाम के लिए काम किया और इस्लाम को फिर से पुनर्जीवित करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी। उनकी इच्छा थी कि अंग्रेजों के जाने के बाद मुसलमानों को देश का राज्य मिले और मुगलों के शासन की वापसी देश में हो। प्रारंभ से ही गांधीवादी लेखकों को हिंदू से मुसलमान बने लोगों की ‘घर वापसी’ पर तो आपत्ति होती रही है पर मुगलों की ‘शासन वापसी’ उन्हें सदा स्वीकार्य रही है। यहां तक कि गांधीजी स्वयं भी इस बात के समर्थक थे कि यदि इस देश पर मुसलमानों का शासन हो तो कोई बुरी बात नहीं है। वह औरंगजेब जैसे क्रूर बादशाह को भी बहुत ही उदार, दयालु और न्याय कारी मानते थे।
इसके विपरीत सावरकर जी जैसे लोग इस देश पर विदेशियों के प्रत्येक हमले की निंदा करते रहे थे और वे 712 में मोहम्मद बिन कासिम द्वारा किए गए आक्रमण से लेकर अंग्रेजों तक के प्रत्येक विदेशी को विदेशी कहकर संबोधित करते रहे थे। वे तुर्कों और मुगलों को भी इस देश में गुलामी का प्रतीक मानते थे। इसलिए उनकी संस्कृति, उनकी सोच और उनकी राजनीति उनके लिए त्याज्य थी।
वास्तव में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैयद अहमद खान भारत में द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के प्रतिपादक थे। मुस्लिम तुष्टीकरण के राग में लगे गांधीवादी लेखक सावरकर जी पर तो दिराष्ट्रवाद के सिद्धांत का आरोप लगा देते हैं , पर सर सैयद अहमद खान के बारे में कुछ भी बोलने या उन पर शोध करने से वह पीछे हट जाते हैं। सर सैयद अहमद खान जैसे लोगों की प्रत्येक गतिविधि उन्हें राष्ट्रभक्ति में सनी हुई दिखाई देती है। उनके किसी भी राष्ट्र विरोधी वक्तव्य पर चिंतन करना उन्हें रास नहीं आता। तथ्यों की बात करने वाले इन जैसे लोग सत्य के सामने आते ही उससे मुंह फेर कर खड़े हो जाते हैं ।
यदि सर सैयद अहमद खान के विषय में गंभीरता से और सूक्ष्मतापूर्वक अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि उनके विचारों से ही पाकिस्तान का जन्म हुआ । इतिहास के निष्पक्ष समीक्षकों की यह दृढ़ मान्यता है कि पाकिस्तान का जनक यदि जिन्नाह था तो उसका पितामह सर सैयद अहमद खान थे। उनके द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को ही आगे चलकर इक़बाल और जिन्नाह ने विकसित किया जो पाकिस्तान के निर्माण का सैद्धांतिक आधार बना। सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ रमेशचंद्र मजूमदार कहते हैं- “सर सैय्यद अहमद खान ने दो राष्ट्रों के सिद्धांतों का प्रचार किया जो बाद में अलीगढ़ आंदोलन की नींव बना… इसके बाद मुस्लिम अलग राष्ट्र है – इस सिद्धांत को गेंद की तरह इससे ऐसी गति मिलती रही कि उससे पैदा हुई समस्या को पाकिस्तान निर्माण के द्वारा हल किया गया।”

इस्लामिक चिंतन को बढ़ावा दिया

जब सर सैयद अहमद खान के द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत की व्याख्या की जाती है तो पता चलता है कि उनका सारा प्रयास केवल इस बात पर आधारित था कि हिंदुस्तान में फिर से औरंगजेब का शासन लौटे। जी हां, वही शासन जिसमें हिंदुओं को गुलाम बनाकर मूर्तिपूजकों का नाश कर देना अंतिम उद्देश्य होता था। वह सोचते थे कि ऐसा करके वह अल्लाह के सच्चे मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं और इस्लाम की सच्ची खिदमत कर रहे हैं । उनकी सोच थी कि काफिरों का शरीर और माल एक बार फिर से मुसलमानी राज्य के अधीन आ जाए। जहां तक काफिर शब्द की बात है तो काफिर का शाब्दिक अर्थ वैसे तो नास्तिक होता है परंतु इस्लाम में काफिर का अर्थ है जो कुफ्र करे। इस्लाम में विश्वास न रखना कुफ्र है और ऐसा करने वाला काफिर है। स्पष्ट है कि अपने शिक्षा आंदोलन के माध्यम से सर सैयद अहमद खान कुफ्र और काफिर की इसी परिभाषा पर काम करने के लिए लोगों को तैयार कर रहे थे। जब वह इस्लामिक परंपरा, इस्लामिक सोच और इस्लामिक चिंतन को आगे बढ़ाने की बात करते थे तो उसका अर्थ यही होता था कि एक बार फिर कुफ्र और काफिर के आधार पर काम करने वाली हुकूमत स्थापित की जाए।
जिन्नाह के जीवनीकार हेक्टर बोलियो लिखते हैं- “वे अर्थात सर सैयद अहमद खान भारत के पहले मुस्लिम थे , जिन्होंने विभाजन के बारे में बोलने का साहस किया और यह पहचाना कि हिंदू-मुस्लिम एकता असंभव है, उन्हें अलग होना चाहिए। बाद में जिन्ना की इच्छा के अनुसार जो हुआ उसका पितृत्व सर सैयद का है। पाकिस्तान शासन द्वारा प्रकाशित आज़ादी के आंदोलन  के इतिहास में मोइनुल हक कहते हैं- “सच में हिंद पाकिस्तान में मुस्लिम राष्ट्र स्थापित करने वाले संस्थापकों में से थे वे। उनके द्वारा ही डाली गई नींव पर कायदे आज़म ने इमारत बना कर पूरी की।”
सर सैयद अहमद खान की सोच थी कि देश में दारुल इस्लाम और दारुल हरब के आधार पर काम करते हुए आगे बढ़ा जाए।
रामधारी सिंह दिनकर ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के पृष्ठ 258 – 59 पर इस्लाम की इस सोच पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि ‘जहां-जहां इस्लाम के उपासक गए, उन्होंने विरोधी संप्रदाय के सामने तीन रास्ते रखे – या तो कुरान हाथ में लो और इस्लाम कबूल करो या जजिया दो और अधीनता स्वीकार करो। यदि दोनों में से कोई बात पसंद नहीं तो तुम्हारे गले पर गिरने के लिए हमारी तलवार प्रस्तुत है।’

हिंदुस्तान के लिए काम नहीं किया

सर सैयद अहमद खान हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियत के लिए नहीं बल्कि मुसलमान और मुसलमानियत के लिए काम कर रहे थे। डॉ मोहन लाल गुप्ता ने अपनी पुस्तक ‘कैसे बना था पाकिस्तान’ में यह स्पष्ट किया है कि सर सैयद अहमद खान ने 1857 की क्रांति के समय जो कुछ बोला था उससे उनके इसी मत की पुष्टि होती है। उन्होंने कहा था कि ‘जितना अनुभव और जितना विचार किया जाता है सब का निर्णय यही है कि अब भारत के मुसलमानों को भारत की अन्य कौमों से समानता कर पाना असंभव सा लगता है। बंगाली तो अब इतने आगे बढ़ गए हैं कि यदि बंगाल और पंजाब के मुसलमान पंख लगा कर उड़ें तो भी उनको पकड़ नहीं सकते। भारत की हिंदू कौमों ने मैदान में मुसलमानों को बहुत पीछे छोड़ दिया है कि मुसलमान दौड़कर भी उनको पकड़ नहीं सकते।’
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि सर सैयद अहमद खान ने भारत की राजनीति में सांप्रदायिकता का रंग घोला। उन्होंने मुसलमानों के हितों की राजनीति करने के नाम पर उन उपायों का सहारा लिया जो राष्ट्रीय जीवन के मार्ग को अवरुद्ध करने वाले हुए। सर सैयद अहमद मुसलमानों के ऐतिहासिक महत्व का बखान करके हिंदू और मुसलमानों में गहरी खाई उत्पन्न करना चाहते थे । ताकि मुसलमानों को प्रथकतावादी राजनीति के लिए तैयार किया जा सके। सर सैयद ने जिस तरह के विचारों को बढ़ावा दिया उसी का नतीजा था कि अलीगढ़ कॉलेज में जल्दी ही सांप्रदायिक वातावरण तैयार हो गया और वहां से प्रकाशित अलीगढ़ इंस्टिट्यूट गजट शैक्षणिक विषयों पर ध्यान केंद्रित न करके राजनीतिक क्रियाकलापों की खिल्ली उड़ाने और गाली गलौज करने लगा।’

1857 की क्रांति और मुसलमानी नेतृत्व

18 57 की क्रांति के बारे में सर जेम्स आउट्रम ने लिखा था कि ‘यह विद्रोह मुसलमानों के षड़यंत्र का परिणाम था, जो हिंदुओं की शक्ति के बल पर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते थे। वी0ए0 स्मिथ ने इसके संदर्भ में लिखा है कि ‘यह हिंदू शिकायतों की आड़ में मुस्लिम षड़यंत्र था ,जो पुनः मुगल बादशाह के नेतृत्व में मुस्लिम सत्ता स्थापित करना चाहते थे।’
बात स्पष्ट है कि 18 57 की क्रांति के समय यदि कोई मुसलमान उस क्रांति में साथ दे रहा था तो उसका उद्देश्य भारत में फिर से इस्लामिक शासन स्थापित करना था। राष्ट्र की स्वाधीनता से उनका कोई लेना-देना नहीं था।
पाकिस्तानी विश्वविद्यालयों में मान्यता प्राप्त “अ शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ़ पाकिस्तान” के खंड 4 के नौवें अध्याय में मुस्लिम राष्ट्रवाद पाकिस्तान के अस्तित्व में आने की कहानी का आरंभ बिन्दु 1857 के युद्ध में असफलता की प्रतिक्रिया को बताया गया है। मुसलमानों के प्रति ब्रिटिश आक्रोश को कम करने और ब्रिटिश सरकार व मुसलमानों के बीच सहयोग का पुल बनाने के लिए उस क्रांति के पश्चात सर सैयद अहमद खान ने योजनाबद्ध प्रयास आरंभ किया। ब्रिटिश आक्रोश को कम करने के लिए उन्होंने 1858 में “रिसाला अस बाब-ए-बगावत ए हिंद” (भारतीय विद्रोह की कारण मीमांसा) शीर्षक पुस्तिका लिखी, जिसमें उन्होंने प्रमाणित करने की कोशिश की कि इस क्रांति के लिए मुसलामन नहीं, हिंदू जिम्मेदार थे।
अब इन गांधीवादी लेखकों को कौन समझाए कि 1857 की क्रांति के समय मुसलमानों की सोच क्या थी ? उनका अंतिम उद्देश्य क्या था और सर सैयद अहमद खान किस प्रकार भारतीय राष्ट्रवाद की हवा निकालने के काम में लगे हुए थे ?
सर सैय्यद भले ही मुस्लिमों में अंग्रेज़ी शिक्षा के पक्षधर थे , पर मुस्लिम धर्म, इतिहास परंपरा, राज्य और उसके प्रतीकों और भाषा पर उन्हें बहुत अभिमान था। वह मुसलमानों का आधुनिकीकरण करना चाहते थे परंतु अंग्रेजी माध्यम से ऐसा करने की योजना पर कार्य कर रहे थे। यदि उनका भारतीयता अर्थात हिंदुस्तानियत से कोई संबंध होता तो निश्चय ही वे अंग्रेजों को लात मारकर भारत के प्राचीन राष्ट्रीय गौरव के लिए काम करते हुए दिखाई देते हैं। तब वह कहते कि हम भारत के मुसलमान भारत को फिर से विश्व गुरु बनाने के लिए भारत के लोगों के साथ अपनी आत्मिक चेतना के पूर्ण समर्पण को व्यक्त करते हैं और जिन मुस्लिम बादशाहों ने हमारे हिंदू भाइयों के दिलों को चोट पहुंचाई है, उनके लिए प्रायश्चित करते हुए अपने सभी हिंदू भाइयों को यह विश्वास दिलाते हैं कि भविष्य में हम सब मिलकर राष्ट्र के लिए समर्पित होकर काम करेंगे। परंतु उनकी एक स्पीच में कहीं पर भी इस संबंध में एक शब्द भी हमें नहीं मिलता।

हिंदी विरोधी और उर्दू के पक्षधर थे

1867 में अंग्रेज़ सरकार ने हिंदी और देवनागरी के प्रयोग का आदेश जारी किया। सर सैयद इस बात से बहुत बैचेन थे कि अब भारत में इस्लामी राज्य खोने के पश्चात हमारी भाषा भी गई। तब उन्होंने डिफेन्स ऑफ उर्दू सोसायटी की स्थापना की। डॉ इकराम ने कहा है कि आधुनिक मुस्लिम अलगाव का शुभारंभ सर सैय्यद के हिंदी बनाम उर्दू का मुद्दा हाथ में लेने से हुआ। सर सैयद अहमद खान भारत के पहले मुस्लिम नेता थे जिन्होंने हिंदी के स्थान पर उर्दू को स्थापित करने का खुलेआम प्रयास किया। उनके ऐसा करने के पीछे का उद्देश्य यही था कि जब हमको हिंदुस्तान आजाद कराने के बाद यहां की हुकूमत लेनी ही है तो उर्दू को मरने ना दिया जाए और हिंदी को स्थापित न होने दिया जाए।
सर सैयद अहमद खान के इसी प्रयास का परिणाम यह हुआ कि आज तक भी भारतवर्ष में कोई भी मुसलमान हिंदी के पक्ष में काम करता हुआ दिखाई नहीं देता। गांधीवादियों के आदर्श गांधीजी जीवन भर उर्दू के समर्थक रहे। एक बार उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल से भी यह आग्रह किया था कि उन्हें उर्दू सीख लेनी चाहिए। जिससे कि मुसलमानों का दिल जीता जा सके। यह अलग बात है कि उस समय सरदार वल्लभभाई पटेल ने गांधी जी को दो टूक जवाब देते हुए स्पष्ट कर दिया था कि अब जब मेरा यह शरीर 68 वर्ष का हो चुका है तो अब मैं उर्दू सीख कर क्या करूंगा ? पर बापू! मुझे यह तो बताओ कि आपने उर्दू सीखकर कितने मुसलमानों का दिल जीत लिया?

सर सैयद अहमद खान का द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत

सर सैयद को अक्सर उदारवादी और हिंदू मुस्लिम एकता के पक्षधर के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। 1867 से 1887 तक के बीच सर सैय्यद अक्सर कहा करते थे कि हिंदू और मुस्लिम वधू की दो आँखों की तरह हैं। पहले वे हिंदू और मुस्लिमों को दो कौमें बताते थे तो उसका अर्थ होता था दो समाज। परन्तु 1887 से कौम शब्द का उपयोग राष्ट्र के संदर्भ में करने लगे थे। खुलकर द्विराष्ट्रवाद के समर्थन में बोलने लगे थे।
उन्होंने 28 दिसंबर 1887 को लखनऊ में और 14 मार्च 1888 को मेरठ में जो लम्बे लम्बे भाषण दिए, उनमें यह मुद्दा उठाया। वास्तव में 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई और दो वर्षों में ही सर सैय्यद के ध्यान में आया कि कांग्रेस हिंदू और मुसलमानों और सभी के लिए धर्मनिरपेक्ष होने के उपरांत भी बहुसंख्यक हिंदुओं की ही संस्था रहने वाली है। इसके द्वारा हिंदू राजनीतिक तौर पर संगठित होंगे। भविष्य में लोकतांत्रिक व्यवस्था आने पर बहुसंख्यक हिंदुओं को ही लाभ होगा। अपनी इसी सोच के अंतर्गत उन्होंने इसके पश्चात हिंदुओं का खुला विरोध करना आरंभ कर दिया था। इसके बाद जीवन भर में कांग्रेस को हिंदू संस्था के रूप में देखते रहे। इसी सोच को आगे चलकर जिन्ना और इकबाल जैसे नेताओं ने खाद पानी देकर आगे बढ़ाया। इस प्रकार सर सैयद अहमद खान के मन मस्तिष्क से उपजी द्विराष्ट्रवाद की विचारधारा अंत में पाकिस्तान के रूप में फलीभूत हुई।
पाकिस्तान में आज पूर्ण स्पष्टता के साथ पढ़ा जा रहा है कि हिंदुस्तान के भीतर अबसे लगभग 1000 वर्ष पूर्व गजनवी के आक्रमणों के समय ही पाकिस्तान की आधारशिला रख दी गई थी। उसके पश्चात अपना देश लेने के लिए मुसलमानों को 1000 वर्ष तक लड़ाई लड़नी पड़ी। मुसलमानों की इस प्रकार की सोच का इन गांधीवादियों के पास क्या उत्तर है?
क्रमश:

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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