Categories
मनु की राजव्यवस्था

मनुवादी ताकतें और ब्राह्मण वादी व्यवस्था

देश की राजनीति में ‘ मनुवादी ताकतें ‘ और ‘ ब्राह्मणवादी व्यवस्था ‘ जैसे मुहावरे अक्सर चलते रहते हैं । देश के राजनीतिज्ञों के द्वारा यह मुहावरे अपनी – अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए प्रयोग किए जाते हैं । इनका उद्देश्य इस प्रकार के मुहावरों के माध्यम से अपना राजनीतिक लाभ प्राप्त करना होता है। यद्यपि देश की सामाजिक व्यवस्था में राजनीतिज्ञों के इस प्रकार के आचरण से विद्वेष भाव फैलता है और जातीय ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन मिलता है, परंतु राजनीतिज्ञों को इस बात से कोई लेना – देना नहीं होता । उन्हें तो अपना स्वार्थ सिद्ध करना होता है। लोकतंत्र सर्व संप्रदाय समभाव की नीति से चलता है । समाज के सभी वर्ग,संप्रदाय, समुदाय और समूह उन्नति करें और आर्थिक , सामाजिक और राजनीतिक अवसरों को प्राप्त कर उन्नति के मार्ग पर आरूढ़ हों , यह लोकतंत्र का अंतिम उद्देश्य है।

यदि किसी देश या समाज का कोई वर्ग किसी भी प्रकार से पिछड़ जाता है या अपनी उन्नति के अवसरों से वंचित कर दिया जाता है तो समझ लीजिए कि उस देश या समाज में ‘ जंगलराज ‘ स्थापित हो गया है , जहां एक दूसरे को खाने की अपसंस्कृति होती है । मानव समाज में ‘ जंगलराज ‘ कभी नहीं चल सकता । यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि भारत में तुर्क , मुगल व ब्रिटिश शासक अपने – अपने देश में बर्बर ,लुटेरे या मानवाधिकारों के हन्ता के रूप में जाने जाते रहे हैं , पर भारत में यह मानवाधिकारों के समर्थक के रूप में स्थापित किए गए । जबकि भारत का वह गौरवपूर्ण अतीत इनके छल छद्म और अत्याचारों के नीचे दबाने का प्रयास किया गया जो मानवाधिकारों की प्राचीन काल से स्थापना कर संसार को एक उत्कृष्ट राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था देने के लिए जाना जाता रहा है। इसी व्यवस्था के जनक महर्षि मनु थे । जिनकी मनुस्मृति को भारत के लोगों ने ही नहीं ,अपितु संसार के विद्वानों ने भी आदि धर्मशास्त्र कहकर महिमामंडित किया और उसका पूजन करना अपना सौभाग्य समझा।

डॉक्टर अंबेडकर ने भी यह माना है कि मनु मानव समाज के आदरणीय आदि पुरुष हैं । यह ध्यान देने की बात है कि डॉक्टर अंबेडकर ने महर्षि मनु को द्विज या ब्राह्मणों का आदि पुरुष नहीं कहा है , अपितु उन्होंने मनु को मानव समाज का आदि पुरुष कहा है । इतना ही नहीं , उन्होंने मनु को भारतीयों का आदि पुरुष भी नहीं कहा है , इसके स्थान पर संपूर्ण मानव समाज का आदि पुरुष कहा है । इस पर डॉ आंबेडकर की दृष्टि को समझने की आवश्यकता है । जिस समय महर्षि मनु हुए उस उस समय न् तो जातिवाद था और ना ही जातिवादी व्यवस्था थी । उस समय ‘ मनुवादी ताकतें ‘ और ब्राह्मण ( जातिवादी ) व्यवस्था भी नहीं थी और ना ही ऐसे अधकचरे ज्ञान के आधार पर स्वार्थपूर्ण राजनीति करने वाले राजनीतिक लोग थे , जो अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने के धंधे में लगे रहने को ही अपना सबसे बड़ा कार्य समझते हैं । उस समय धर्मशील , विचारशील ,ज्ञान गाम्भीर्य में उत्कृष्ट ब्रह्मचारी ,वेदज्ञ और मेधाशक्ति सम्पन्न लोगों का समाज में वर्चस्व होता था । ऐसे ही लोग राजनीति के माध्यम से राष्ट्र और मानवता का पोषण किया करते थे। ऐसी व्यवस्था में लगे रहने वाले लोग ही मनुवादी होते हैं , ऐसी व्यवस्था के पोषक लोग ही ब्राह्मण होते हैं और ऐसी व्यवस्था के पोषक लोग भी मनुवादी ताकतें या ब्राह्मणवादी व्यवस्था के व्यवस्थापक होते हैं।

इतने पवित्र कार्य के करने वाले लोगों का देश में गुणगान होना चाहिए था और शास्त्रार्थ के माध्यम से ऐसी राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था का विकास किया जाना चाहिए था जो समाज में चरित्र प्रधान राजनीति को प्रोत्साहित करती , चरित्र प्रधान लोगों को सम्मानित कर आगे बढ़ने का अवसर देती और गुणों को सम्मान देकर गुणी और चरित्रवान लोगों की ब्राह्मणवादी व्यवस्था को स्थापित करती । यदि इस दिशा में सकारात्मक ऊर्जा का व्यय करते हुए राजनीतिक संकल्पशक्ति प्रदर्शित की जाती तो उसके परिणाम देश के लिए निश्चित ही उत्साहजनक होते। परंतु यहां तो पहले दिन से ही विखंडनवाद की नकारात्मक राजनीति को अपनाने का कार्यारंभ हो गया । शासक वर्ग ने भारत और भारतीयता के विरुद्ध कार्य करना अपना उद्देश्य घोषित कर दिया। कम्युनिस्टों ने देश के धर्म , संस्कृति और इतिहास की परिभाषाएं विकृत करनी आरंभ कर दीं । उसी द्वेषपूर्ण मानसिकता की भेंट मनु और मनुस्मृति चढ़ गए । फलस्वरूप इस महान ऋषि को अपशब्द कहने आरंभ किए गए । मनु को इस प्रकार दिखाया गया जैसे वर्तमान में कुछ जातिवादी समूहों के आर्थिक या सामाजिक या राजनीतिक पिछड़ेपन का एक और केवल एक कारण मनु और उनकी मनुस्मृति ही हैं । सचमुच मनु विरोधियों की बुद्धि पर तरस आता है। मैडम एनी बीसेंट ने मनुस्मृति के विषय में लिखा है कि यह ग्रंथ भारतीय और अंग्रेज सभी के लिए समान रूप से उपयोगी है , क्योंकि आज के संपूर्ण दैनिक प्रश्नों के सकारात्मक उत्तरों से यह ग्रंथ परिपूर्ण है ।

वास्तव में मनुस्मृति की आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद जी महाराज ने जिस प्रकार व्याख्या की है , उस पर कार्य आगे बढ़ना अपेक्षित था । जिससे किसी प्रकार की भ्रांति ही नहीं रहती और जो प्रक्षिप्त अंश इस इस धर्मग्रंथ में स्थापित किए गये उन्हें दूर कर इसके वास्तविक स्वरूप को निखार कर समाज के लिए सामने लाया जाता ।अज्ञानी और स्वार्थी लोगों ने जितना बल मनु और मनुस्मृति को कोसने या उसे अपयश का पात्र बनाने में लगाया है , उतना यदि इसे विशुद्ध करने में लगाया जाता तो कहीं अधिक अच्छा रहता ।

‘ जाति प्रथा उन्मूलन ‘ नामक अपनी पुस्तक के पृष्ठ 119 पर डॉक्टर अंबेडकर इसी विचार से सहमत होकर लिखते हैं कि ” मैं यह मानता हूं कि स्वामी दयानंद व कुछ अन्य लोगों ने वर्ण के वैदिक सिद्धांत की जो व्याख्या की है , वह बुद्धिमतापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है । मैं यह व्याख्या नहीं मानता कि जन्म किसी व्यक्ति का समाज में स्थान निश्चित करने का निर्धारक तत्व है। वह केवल योग्यता को मान्यता देता है ।”

मनुष्य का चार वर्णों में वर्गीकरण एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था है। जिसकी काट आज तक न तो कोई साम्यवाद कर पाया है और ना ही कोई समाजवाद कर पाया है । घुमा फिरा कर जितनी भर भी आदर्श राजनीतिक व्यवस्थाएं हैं वे सारी की सारी मनु की आदर्श राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्थाओं के लाभकारी अंशों को चुरा – चुरा कर ही अपने ढंग से उन्हें प्रस्तुत कर रही हैं । इन्हें इस प्रकार की चोरी तो अच्छी लगती है , परंतु किसी भी मूल्य पर इन्हें मनु को प्रकट रूप से अपना गुरु मानना स्वीकार नहीं है ।

जानते हो ऐसा क्यों है ? – ऐसा इसलिए है कि यह लोग भली प्रकार जानते हैं कि यदि हमने मनु को आदर्श महापुरुष के रूप में स्वीकृति और मान्यता प्रदान कर दी तो इससे भारत और भारतीयता जीवित और जागृत हो उठेगी । तब भारत में सामाजिक समरसता स्थापित करने का अपना चिंतन होगा और उस चिंतन के सामने सारा विदेशी चिंतन बौना और फीका सिद्ध हो जाएगा । वास्तव में भारत को मिटाने के षड्यंत्र में लगी शक्तियां ही भारत को भारतीयों को ही समझने से रोकती हैं । वह भारतीयों का ध्यान भारत के मूल से हटाकर बाहरी फलक की ओर ही रखना चाहती है । जिससे कि भारतीयों को लगता रहे कि विकास और उन्नति की मंद सुगंध समीर तो बाहर से आ रही है।

इस प्रकार की सोच से भारत के युवाओं में भटकाव आया है । उन्हें लगने लगा है कि भारत में जितना कुछ भी आज उन्नति और विकास के नाम पर होता हुआ दिखाई दे रहा है , यह सारा चिंतन और इसकी सारी वैज्ञानिक सोच सब कुछ बाहर से आई है । आज की तथाकथित सभ्यता का रंग भी उन्हें बाहर से आता हुआ दिखाई देता है। वह नहीं जानते कि हमारे पूर्वज इससे भी उन्नत ज्ञान विज्ञान रखते थे और उनके पास में अपनी सामाजिक व्यवस्था इतनी उन्नत थी कि उसका लोहा सारा संसार मानता था। युवा वर्ग की अपने ही देश के बारे में और अपने ही अतीत को लेकर बनती जा रही ऐसी सोच को रोका जाना समय की आवश्यकता है।

इस पुस्तक में हमने महर्षि मनु के सदचिन्तन और उन पर लगाए जाने वाले आरोपों से पर्दा हटाने का प्रयास किया है । इसके लिए मुझे राजस्थान के महामहिम राज्यपाल कल्याण सिंह जी के द्वारा प्रेरित किया गया। जब जुलाई 2018 में मैं अपने जेष्ठ भ्राता श्रद्धामेव श्री देवेंद्र सिंह आर्य जी के साथ उनसे अपनी एक पुस्तक ‘विश्व गुरु के रूप में भारत ‘ देने के लिए मिला था। महामहिम को उस समय मैंने महर्षि मनु पर ही स्वलिखित पुस्तक ‘महर्षि मनु और भारत की राज्य व्यवस्था ‘ भी भेंट की थी । उसे देखकर उन्होंने कहा था कि आपको महर्षि मनु के वर्ण व्यवस्था संबंधी विचारों पर भी लिखना चाहिए । जितना पाखंड लोगों ने मनु को बदनाम करने में लगाया या फैलाया है , उसका उचित प्रतिकार किया जाना चाहिए । जिससे कि लोगों के सामने सच को स्थापित किया जा सके। तब हमने उस चुनौती को स्वीकार किया और उसी का परिणाम है कि यह पुस्तक आज आपके हाथों में है। उनकी प्रेरणा को नमन करता हूं ।

पुस्तक के लेखन में डॉ सुरेंद्र कुमार जी की ‘ विशुद्ध मनुस्मृति ‘ डॉक्टर कृष्ण बल्लभ पालीवाल जैसे कई स्वनामधन्य विद्वानों के उद्धरण लिए गए हैं । जिससे कि उनकी इसकी प्रामाणिकता स्थापित हो सके। ऐसे सभी विद्वानों का हृदय से आभार व्यक्त करता हूं। जिनके अमृत मंथन ने मेरे परिश्रम को चार चांद लगाए हैं ।इसके साथ ही मैं प्रकाशक महोदय श्री हिमांशु वर्मा जी का भी आभारी हूं । जिन्होंने इतने कम समय में यह पुस्तक आपके सामने लाने में मेरी भरपूर सहायता की है । पुस्तक के विषय में अपना आशीष देकर प्रख्यात विद्वान और दो बार पदम श्री से सम्मानित हमारे समय की एक महान तपोमूर्ति डॉ श्यामसिंह शशि जी का भी हृदय से आभार व्यक्त करता हूं , जिन्होंने पुस्तक के लिए अपने आशीष वचन देकर मुझे कृतार्थ किया है ।

आशा है कि पुस्तक जिस उद्देश्य से लिखी गई है , उस उद्देश्य को समझकर एक सकारात्मक परिवेश बनाने की दिशा में देश की मेधाशक्ति को सक्रिय करेगी और महर्षि मनु को समझ कर उनके मन्तव्य के अनुसार भारत निर्माण के महान कार्य में जुटेगी । मेरा मानना है कि भारत निर्माण के महान कार्य में जुटने वाली यह मेधाशक्ति ही ब्राह्मणवादी व्यवस्था की प्रतीक है , और जो इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था के हाथ , कान , नाक आदि बनकर समाज के सभी वर्गों को विकास के सभी अवसर उपलब्ध कराना अपना उद्देश्य मानते हों ,वही ब्राह्मणवादी शक्ति हैं । परिभाषा ठीक करो, भाषा ठीक करो , आशा ठीक करो , सब कुछ ठीक हो जाएगा । मनु को समझना होगा। मनु के मंतव्य को समझना होगा। शास्त्रार्थ को पुनर्जीवित करना होगा। षड्यंत्रकारियों के उद्देश्य को समझना होगा और वे अपने उद्देश्य में सफल ना होने पाएं , ऐसी व्यवस्था भी करनी होगी।

मुझे विश्वास है कि मेरे इस सार्थक प्रयास पर मेरे सुबुद्ध पाठकों की सहमति की मुहर अवश्य लगेगी। इत्योमशमः

भवदीय

राकेश कुमार आर्य

99 11 16 9917

Comment:Cancel reply

Exit mobile version