सृष्टि की उत्पत्ति का प्रकरण हर मनुष्य के लिए कौतूहल और जिज्ञासा का विषय सृष्टि के प्रारंभ से ही रहा है। इसके लिए कोई भी ऐसा प्रामाणिक साक्ष्य वेदों के अतिरिक्त संसार में प्राप्त होना असंभव है, जिससे इस जिज्ञासा की पूर्ण तृप्ति हो सके। वेद तो है ही सब सत्य विद्याओं की पुस्तक। अत: मनुष्य को जब भी कोई शंका हो तो वेदों की शरण में जाना चाहिए। सृष्टि की उत्पत्ति ब्रह्मा के द्वारा जिस समय की गई वही सृष्टि उत्पत्ति का समय है। इसे भारतीय सांस्कृतिक ग्रंथों के साक्ष्य के आधर पर चैत्र मास में स्वीकार किया गया है।
भारतीय पर्व परंपरा में नवसंवत्सरोत्सव का विशेष महत्व है। ज्योतिष के ‘हिमाद्रि ग्रंथ’ में निम्नलिखित श्लोक आया है-
चैत्र मासे जगद ब्रह्मा संसर्ज प्रथमेअहानि।
शुक्ल पक्षे समग्रंतु, तदा सूर्योदये सति।।
चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय के समय ब्रह्मा ने जगत की रचना की।
लंकानगर्यामुदयाच्च भानोस्त स्यैव वारे प्रथमं बभूव।
मधे: सितादेर्दिन मास वर्ष युगादिकानां युगपत्प्रवृत्ति:।।
भास्कराचार्य कृत ‘सिद्घांत शिरोमणि’ का उपरोक्त श्लोक भी ऐसी ही साक्षी दे रहा है। इसका भावार्थ है-लंका नगरी में सूर्य के उदय होने पर उसी के वार अर्थात् आदित्य रविवार में चैत्र मास शुक्ल पक्ष के प्रारंभ में दिन मास वर्ष युग आदि एक साथ प्रारंभ हुए। इसीलिए आर्यों के सृष्टि संवत, वैवस्वतादि संवंतरारंभ, सतयुगादि युगारंभ, विक्रमी संवत, कलिसंवत:, चैत्रशुदि प्रतिपदा से प्रारंभ होते हैं। चैत्र के मास में ही वसंत ऋतु में सर्वत्र पुष्प खिले होते हैं। इन पुष्पों का खिलना नवसंवत्सरारंभ की मानो सूचना है।
पुष्पों का खिलना सृष्टि के महायज्ञ के प्रारंभ होने का संदेशवाहक है। बच्चे का उत्पन्न होना भी तो एक पुष्प का खिलना ही है। पुष्प आया है, खिला है, महका है, तो नववर्ष, अथवा नवसंवत्सर नई पीढ़ी का प्रारंभ भी हो गया। नई पीढ़ी नया संदेश लाती है-नया शिशु भी अपनी बंद मुट्ठी में नया संदेश ही लाता है।
पुष्प की सुगंध् बच्चे का यश है, उसका खिलना मानो उसकी कीर्ति है। बच्चा, पुष्प, चैत्र और नव संवत्सर का कुछ-कुछ ऐसा ही मेल है। हिंदू नव वर्ष का यह पर्व चैत्र शुदि प्रतिपदा अर्थात् मेष संक्राति के दिवस हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। अंग्रेजी मासों में इसकी स्थिति अप्रैल माह में है। वैज्ञानिक आधर पर यह पर्व ऐसे समय पर आता है जब मानव मन स्वयं ही हर्षित और उल्लसित होता है और वह नवीनता एवं नूतनता का हर्ष विभोर के साथ स्वागत कर कह उठता है-
स्वागत है, स्वागत है नये वर्ष का, समय है उल्लास और हर्ष का,
काल के अनंत पट पर,
युग सरिता के तट पर,
मन्वंतर के घट पर,
नव संदेश देता है नवसंवत्सर,
अपकर्ष का नहीं मानव के उत्कर्ष का।
स्वागत है, स्वागत है नये वर्ष का।
सृष्टि के उपरांत प्रलय और प्रलय के उपरांत सृष्टि का एक अनवरत क्रम काल के अनंत पट पर अनादिकाल से चलता आ रहा है। इसे सूक्ष्मता से समझकर ही हमारे ऋषियों को नवसंवत्सरारम्भ का ज्ञान हुआ होगा। इसी आधार पर नवसंवत्सरारंभ का वर्तमान स्वरूप उभरकर आया। इसे अपने-अपने ढंग से अलग-अलग कहकर पुकारने के लिए सम्प्रदाय वालों ने अपने-अपने अनुयायी पंथ वालों को प्रेरित किया।
पारसी, ईसाई, मुस्लिम आदि के द्वारा इसी परंपरा का अनुकरण किया गया। इन सबमें भी अपने-अपने ढंग से नववर्ष का पर्व मनाया जाता है।
पारसियों में यह पर्व नौरोज, नव वर्ष के नाम से मनाया जाता है, तो अंग्रेजों के यहां न्यू ईयर्स अर्थात नववर्ष के नाम से ही मनाया जाता है। नौरोज और न्यू ईयर यह दोनों शब्द भी संस्कृत के नव वर्ष के ही अपभ्रंश हैं। इन शब्दों से यही सिद्घ होता है कि भारतीय परंपरा को अनुकरण के रूप में बाहरी देशों और उनके निवासियों द्वारा अपनाया गया है। पारसियों मेंयह पर्व सूर्य के मेष राशि में ही प्रवेश करने पर भारतीय परंपरानुसार ही मनाया जाता है। ईसाइर्यों द्वारा अपने यहां जनवरी, फ रवरी के मासों को बहुत समय पश्चात जोड़ा गया है। उनके वर्ष का प्रारंभ भी वास्तव में मार्च से चैत्र ही होता है।
प्रथम अप्रैल से आज भी हर देश में नया बजट वर्ष प्रारंभ होता है। अप्रैल चैत्रमास के लिए अति समीपस्थ मास है। इसी माह से वित्तवर्ष अथवा ‘फाइनेंशियल ईयर’का प्रारंभ होना भारत के विश्वसाम्राज्य के दिवसों में उसी की परंपराओं को शेष संसार के द्वारा अक्षरश: स्वीकार करने का ही प्रमाण है।
ईसाई लोगों के यहां सितंबर को सैप्टेंबर कहते हैं, अक्टूबर को ओक्टोबर, नवंबर को नोवंबर तथा दिसंबर को डिसेमबर कहा जाता है। इन्हें अंग्रेजी में लिखते समय भी संस्कृत के सप्तम, अष्टम, नवम् और दशम का ही रूप हम देखते हैं। इनका यह स्वरूप हमें ‘ग्रेगोरियन कैलेण्डर’ से पूर्व के उस काल का स्मरण कराता है जब सितंबर सातवां, अक्टूबर आठवां और नवंबर दिसंबर क्रमश: नवे व दसवें महीने वर्ष के ईसाईयों में हुआ करते थे। तब अपनी इस परंपरा के प्रारंभ में कहीं अर्थात् जहां से यह त्यौहार मनाने की परंपरा प्रारंभ हुई होगी, ईसाईयों के और भारतीयों के नव वर्ष की तिथि एक साथ ही पड़ती रही होगी। ईसा पूर्व में ही यह काल रहा होगा।
नव वर्ष के अवसर पर प्राचीनकाल में भारतीय लोग नववर्ष के आगमन को इसे अपने लिए एक वर्ष में किए गए कृत्यों के संदर्भ में लेखा जोखा के रूप में लेते थे। यज्ञ हवन किए जाकर सर्व मंगल कामना की जाती थी तथा साथ ही सबकी बुद्घि सन्मार्गगामिनी हो ऐसी प्रार्थना परमपिता परमात्मा से की जाती थी। बसंत पंचमी और होलिका दहन के पश्चात् यह पर्व आता है। होलिका पर्व पर हम अपने दोषों को प्रतीक के रूप में अग्निदाह करते हैं, उन्हें पुराने वर्ष में ही छोड़ देते हैं।
नव वर्ष पर हम विधिवत पुन: स्वयं में नवजीवन का संचार हुआ पाते हैं, जो बसंत में प्राकृतिक रूप में भी हमें अनुभव होता है। इस पावन अवसर पर लोग नव-वर्ष में अपने भीतर ऐसा कोई भी दुर्गुण विकसित न होने देने का संकल्प धारण करते थे जिससे मानवता और प्राणिमात्र का अहित होता हो।
आजकल यह पर्व आधी रात पर पश्चिमी सभ्यता के अनुयायियों द्वारा ईसा वर्ष के परिवर्तन पर मनाया जाता है। इसमें गलत कुछ भी नहीं। उल्लू को सूर्य के प्रकाश में कुछ नहीं दिखाई दिया करता है। रात के गहन अंधकार में मनाई जाने वाली रंगरलियां ऐसी ही भावना लिए होती हैं कि हमारा यह वासनात्मक और नैतिक पतन का प्रतीक दौर समाप्त न होने पाये, अपितु इसका पर्याप्त प्रसार हो।
जब भावनाएं ऐसी हैं तो फ ल भी ऐसा ही होना है। फ लस्वरूप समाज में उल्लुओं की संख्या बढ़ती जा रही है। इन्हें दिन के प्रकाश में कुछ नहीं दीखता। रात्रि के अंधकार की प्रतीक्षा करते हैं कि कब रात्रि हो और हमारा खेल प्रारंभ हो। वैदिक संस्कृति को विस्मृत कर उसके स्थान पर अवैदिक धारणाओं, मान्यताओं और परंपराओं को स्वीकृति प्रदान कर विश्व ने अपना बहुत भारी अहित किया है।
यह दु:खद विषय है कि ये अवैदिक धारणाएं, मान्यताएं और परंपराएं प्रतिवर्ष और भी अधिक प्रचार और प्रसार प्राप्त कर मानवता को अपने शिकंजे में कसती जा रही हैं। प्राचीनकाल में भारतीय लोग नव संवत्सरोत्सव पर प्रात:कालीन उदित होते सूर्य के प्रकाश में यज्ञ हवन करते थे। उगते सूर्य के प्रकाश को अपने जीवन-पथ के लिए मार्गदर्शक स्वीकार कर उसके प्रकाश को हृदयंगम करने का प्रण ले जीवन के रणक्षेत्र में सफ लता की सीढिय़ां चढ़ते जाते थे।
इससे मानवता और प्राणिमात्र का भला होता था। मानवीय मूल्यों का विकास होता था, और मानव का उत्थान होता था। प्रात:कालीन सूर्य का उदयोपरांत उत्थान मानव को जीवन के प्रति उत्थानवाद में ही तो प्रेरित करता है।
भारत में विक्रमी संवत महाराजा विक्रमादित्य के राज्याभिषेक की तिथि है। यही आजकल भारतवर्ष का नव संवत्सरारंभ दिवस भी है। इसे महाराज विक्रमादित्य के अपनी प्रजा के प्रति प्रेम और न्यायपूर्ण व्यवहार के रूप में हमें देखना चाहिए।
उसका प्रेम और न्यायपूर्ण शासन जो पक्षपात रहित था आज के स्वार्थी पद्लोलुप और वोटों की स्वार्थपूर्ण राजनीति करने वाले पदभ्रष्ट और पथभ्रष्ट राजनेताओं को अपने आचरण की समीक्षा करने के रूप में देखना चाहिए। महाराज विक्रमादित्य को किसी उपाधि की आवश्यकता नहीं, उनके सुकर्म उन्हें आज तक सच्चा ‘भारत रत्न’ बनाये हुए हैं।
आज का राजनेता ‘भारत-रत्न’ के सर्वोच्च नागरिक अलंकरण को प्राप्त करके भी भारत रत्न नहीं बन पाता। नववर्ष के आरंभ पर जनसेवा का संकल्प इस प्रकार हमारे राजनेताओं को लेना चाहिए कि वह नि:स्वार्थ देश सेवा व जन सेवा करेंगे।
महाराज विक्रमादित्य के प्रति यह सच्ची श्रद्घांजलि होगी और जिस भावना से उनके नाम पर यह नवसंवत्सरारंभ का कार्य हमारे नीति नियामकों ने उस काल में किया होगा उसके प्रति सही सम्मान का भाव प्रदर्शन भी यही होगा। इसी से नवसंवत्सरारंभ पर्व की सार्थकता सिद्घ हो सकती है।
महीनों का नामकरण: मनुस्मृति अध्याय एक श्लोक-21 देखें-
सर्वेशांतुस नामानि कर्माणि च पृथक पृथक।
वेद शब्देभ्य: एवादौ पृथक संस्थाश्च निर्ममे।।
अर्थात उस परमात्मा ने सृष्टि के आदि में सबके पृथक-पृथक नाम, क्रम और व्यवस्था वेदों के शब्दों को लेकर ही बनाई। सृष्टि के आद्य ऋषियों की वाणी का उनके शब्दों के अनुसार ही वाच्य अर्थ का प्रादुर्भाव होता है। अर्थात् उनके शब्दों को लेकर ही पदार्थों की परंपरा प्रचलित होती है।” तदानुसार मध्श्च माध्वश्च वासंति का वृत” यजुअ.13
मंत्र 25। के अनुसार मधु तथा माधव शब्दों को लेकर बसंत ऋतु के मासों का नामकरण किया गया। यह नामकरण आज के चैत्र और बैसाख मास का होगा।
इसके पश्चात चंद्रमा और सूर्य की गति के आधर पर भी मासों के नाम प्रचलन में आये। जिस पूर्णिमा को जो नक्षत्रा पड़े वह पूर्णिमा उसी नक्षत्रा के नाम पर होगी। जिस पूर्णिमा को चित्र नक्षत्र हो वह पूर्णिमा चैत्री और वह मास चैत्रमास कहलाता है। इसी प्रकार अन्य मासों के विषय में जानना चाहिए।
संक्राति के संक्रमण के आधार पर जो मास गणना की जाती है वह सूर्य की गति के आधार पर होती है। यदि चंद्रमासों का नवसंवत्सरारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को होता है तो सौर संवत्सरारंभ मेष संक्राति के दिन होता है। चंद्रमासों को हिंदू-वैदिक-ज्योतिष के आधर पर मान्यता प्रदान की गई। वैदिक विश्व साम्राज्य के स्वर्णकाल में यह मान्यता एक परंपरा के रूप में विश्व के कोने कोने में प्रसारित हुई। अरब में भी यह परंपरा पहुंच गई। मोहम्मद साहब ने जिस प्रकार भारतीय समाज की अन्य विकृत परंपराओं को मजहबी मोहर लगाकर शुद्घ और पवित्र कर दिया था, उसी प्रकार चांद्रमास गणना की परंपरा को भी उन्होंने यथावत मान्यता प्रदान कर दी। इससे यह परंपरा एक रूढि़ के रूप में इस्लाम में स्थान प्राप्त करने में सफ ल हो गयी। गलती यह हुई कि हिंदू ज्योतिष के अनुसार चांद्रमास गणना को हर तीसरे वर्ष एक माह अतिरिक्त लगाकर सूर्य की गति के साथ उसका समायोजन कर दिया जाता है। किंतु इस्लाम ज्योतिष की सूक्ष्मताओं से चूंकि अनभिज्ञ था इसलिए वह ऐसा नहीं कर पाया। फ लत: इस्लामिक चांद्रमास आगे पीछे की ऋतुओं में सरकते रहते हैं। सम्प्रदायवाद की संकीर्ण सोच के सामने वैज्ञानिक सोच टिक नहीं पाती।
ईसाईयत का दृष्टिकोण इस विषय में इस्लाम की अपेक्षा अधिक खुला हुआ और व्यापक है। उसने विज्ञान की बारीकियों और प्रकृति के नियमों को समझकर अपने आप में संशोधन किए। इसीलिए आज का ग्रेगोरियन कैलेण्डर मान्यता प्राप्त कर सका है। इसके वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने इस कैलेण्डर को आज के संसार में विश्वव्यापी मान्यता प्रदान करा दी है।
हम भारतीयों को चाहिए कि हमें अपने प्रत्येक पर्व और त्यौहार की वैज्ञानिकता के प्रति खुली और पूर्वाग्रह रहित सोच अपनानी चाहिए। कोई कितना ही कहे परंपरा और रूढि़वाद के आधर पर ही कोई पर्व अथवा त्यौहार मनाने के लिए उद्यत नहीं हो जाना चाहिए। अपने पर्व और त्यौहारों के विषय में हमें शेष संसार को भी बताना चाहिए कि इनके पीछे हमारे सांस्कृतिक कर्णधारों का दृष्टिकोण और मंतव्य क्या रहा था? हमें इस बात का खुलासा भी शेष संसार के समक्ष करना चाहिए कि नवसंवत्सरारंभ प्राकृतिक और वैज्ञानिक रूप से चैत्र माह में ही मनाना उचित है।
उसके पीछे के प्राकृतिक और वैज्ञानिक कारणों को भी बताना चाहिए। तभी हमारे पर्व विश्व समाज में मान्यता प्राप्त कर सकते हैं।
नवसंवत्सरारंभ पर हमें नई उर्जा और नवप्रेरणा से भरे उल्लासित हृदय से यज्ञ हवन करने चाहियें और समग्र संसार व प्राणिमात्र के कल्याणार्थ मंत्रों का उच्चारण करना चाहिए। विद्यालयों में बाल सभाओं का आयोजन कर छात्रा-छात्राओं को नवसंवत्सरारंभ के विषय में समुचित जानकारी उपलब्ध करानी चाहिए। मानव मन में जिस समय चैत्र माह में नवीनता और नूतनता का समुद्र हिलोरे मार रहा हो उस समय नव वर्ष का आगमन कितना शुभ प्रतीत होता है, आदि सभी बिंदुओं पर सरल और सरस भाषा में छात्रा-छात्राओं को विस्तार से समझाना चाहिए।
प्रतिभावान छात्रा-छात्राओं को भाषण प्रतियोगिताओं के लिए तत्पर करना चाहिए। यज्ञोपरांत दीन-हीन लोगों को दान दिया जाये, छोटे बच्चों को प्रसाद स्वरूप कुछ न कुछ खाने को दिया जाये।
सुख शांति का असीम भण्डार,
पाय सुखी हो सब संसार,
इनसे भरपूर रहे हर परिवार,
विश्व को संदेश यही भारतवर्ष का।
स्वागत है स्वागत है नववर्ष का।।
ऐसे में हमें अपने हिंदू वैदिक नववर्ष को ही वैदिक रीति से मनाना चाहिए जिसके पीछे पूर्ण वैज्ञानिकता छिपी हुई है। परंतु इस सबके उपरांत भी ईसाई नववर्ष की शुभकामनाएं भी हम अपने पाठकों को इस विश्वास के साथ प्रेशित करते हैं कि वे भारत के नववर्ष की वास्तविकता को समझने का प्रयास करेंगे, और आगे से हिंदू नववर्ष के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करेंगे।
मुख्य संपादक, उगता भारत