जगमोहन सिंह राजपूत
कोई भी सभ्य समाज अपने बच्चों के पढऩे और बढऩे में कभी बाधा बनने का विचार भी मन में नहीं ला सकता है। आज हर समाज अपने बच्चों के भविष्य को अपने से बेहतर बनाने के लिए शिक्षा संस्थाएं स्थापित करता है, वहां अध्यापकों की उपस्थिति सुनिश्चित करता है और बच्चों को सही ढंग से बड़े होने तथा आगे बढऩे की दिशा में हर प्रकार का सहयोग करता है। सारा विश्व आज इस प्रयास में लगा है कि कोई भी बालक या बालिका शिक्षा से वंचित न रहे। हर सभ्यता में ज्ञानार्जन की परंपरा विकसित हुई और उसी के द्वारा मनुष्य आगे बढ़ा और सभ्यता के नए पायदानों पर चढ़ा। सभी सभ्यताओं तथा समुदायों ने यह स्वीकार किया कि ज्ञान से पवित्र तथा ज्ञानार्जन से अधिक महत्त्वपूर्ण कुछ भी नहीं हो सकता है।
यह भी सही है कि जब ज्ञानार्जन की परंपरा किसी सभ्यता या समाज में शिथिल हो जाती है तब वह अपनी जड़ों से कट जाता है, उसकी गतिशीलता समाप्त हो जाती है और उसे नष्ट होने में अधिक समय नहीं लगता है। इतिहास में अनेक उदाहरण हैं जब असभ्य आक्रांताओं ने सबसे पहले पुस्तकालयों और शिक्षा संस्थाओं को जलाया। इनमें नालंदा, तक्षशिला के प्रसंग भी शामिल हैं। अंग्रेजों ने भारतीयों को अपनी ज्ञानार्जन परंपरा, इतिहास, ऐतिहासिकता तथा संस्कृति से अलग करने के लिए सबसे पहले यहां की शिक्षा व्यवस्था को नष्ट करना जरूरी समझा, और उसके स्थान पर एक विदेशी व्यवस्था लाकर रोपित कर दी, जो उनके लिए निचली श्रेणी के आज्ञाकारी सेवक तैयार कर सके। भारत आज भी उस थोपी गई व्यवस्था से निजात नहीं पा सका है।
जम्मू-कश्मीर में आज स्कूलों को लेकर जो हो रहा है वह हमारे सभ्य होने पर ही सवाल उठा देता है! शिक्षा संस्थाओं का राजनीतिक आस्थाओं को प्रतिपादित करने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल करना अक्षम्य अपराध ही माना जाएगा। यह तथ्य अब उजागर हो चुका है कि आज विश्व में अनेक संगठन अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं को सिद्ध करने में शिक्षा व्यवस्था का दुरुपयोग बिना किसी हिचक के करते हैं। पाकिस्तान की पाठ्यपुस्तकों में प्रारंभ से ही भारत के बहुसंख्यक समाज के प्रति घृणा पैदा करने वाली विषयवस्तु जान-बूझ कर डाली जाती रही है। उसके परिणाम आज उस देश के सामने ही नहीं, विश्व के सामने भयावह रूप में खड़े हैं। भारत-विरोधी तत्त्वों ने इसी रणनीति को जम्मू-कश्मीर में अपनाया। दीनी तालीम के नाम पर जो निजी स्कूल खोले गए उनमें 1983 के बाद अन्य मजहबों के प्रति दुर्भावना भरने के सोचे-समझे प्रयास किए गए। सरकारी व्यवस्था ने उससे आंख फेर ली। सरकारें अपना कर्तव्य निभाने में पूरी तरह विफल रहीं। जो राष्ट्र-विरोधी ताकतें बाहरी उकसावे तथा संसाधनों के आधार पर अशांति फैला रही थीं, वे अपनी दीर्घकालीन रणनीति के अनुसार स्कूलों में अपना वर्चस्व स्थापित कर चुकी थीं।
इन स्कूलोंं, तथा सरकारी स्कूलों में भी, जान-बूझ कर एक बड़ी साजिश के अनुसार बच्चों को आधुनिकता व वैज्ञानिकता से दूर रखा गया, उन्हें अन्य धर्मों के प्रति घृणा के पाठ ही पढ़ाए गए। उन्हें ‘जन्नत’ की छवियां बांटी गईं, क्योंकि बिना इस सबके ‘फिदायीन’ बनाना संभव नहीं था। मुख्यत: इस सबका ही परिणाम है कि पिछले दशकों में हजारों युवाओं का जीवन नष्ट हो चुका है, हिंसा का खुला खेल खेला जा रहा है और समाधान नजर नहीं आ रहा है। उसके लिए तो सहिष्णुता फैलाने वाली शिक्षा चाहिए, भाईचारा बढ़ाने का माहौल चाहिए और सब धर्मों की सच्चाई तथा उनके प्रति समान आदर-भाव पैदा करने के पारदर्शिता से पूर्ण प्रयास चाहिए। इसके लिए एक दृष्टिकोण परिवर्तन की आवश्यकता हर तरफ महसूस की जा रही है।
किसी भी सभ्य समाज का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए जब अपने ही देश में छोटे-छोटे मासूम बच्चे अपने सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने में लगाए जाते हों, उन्हें पेलेट गन्स के सामने झोंक दिया जाता हो! प्रशासन को रास्ता न दिखाई देता हो! बच्चों से उनका बचपन और भविष्य छीन लेना बर्बरता की चरम सीमा के अंतर्गत ही माना जा सकता है और कोई भी परिवार या समाज इसे स्वीकार नहीं कर सकता है। अपने अद्भुत सौंदर्य तथा सदियों से चले आ रहे सद्भाव के लिए जानी जाती रही कश्मीर घाटी में आज बड़ी संख्या में स्कूल जलाए जा रहे हैं। लगभग चार महीने वहां स्कूल बंद रहे। अलबत्ता कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के बच्चों के लिए स्कूल खुला रखने की अनुमति अलगाववादियों ने दे रखी थी!
स्कूल जलाने वाले कौन हैं? यह सरकार भले ही न जाने, लोग जानते हैं और वे यह भी जानते हैं कि ऐसा करने वाले अपने को इस्लाम का अनुयायी घोषित करते हैं, उस इस्लाम का जिसकी सर्व-स्वीकार्य धार्मिक पुस्तक कुरान शरीफ में सबसे पहले यह कहा गया है कि ज्ञान प्राप्ति के लिए कठिन से कठिन स्थान पर भी जाओ! यानी हर कठिनाई उठा कर भी ज्ञान प्राप्त करना ही चाहिए। जो बच्चों के स्कूल जलाते हैं, वे और कुछ भी हो सकते हैं, इस्लाम के अनुयायी तो किसी प्रकार नहीं माने जा सकते हैं। वे केवल आतंकवादी और असभ्य तथा बर्बर व्यक्तियों की श्रेणी में ही गिने जा सकते हैं।
जो कश्मीर समन्वय तथा सहिष्णुता का पर्याय माना जाता था तथा विभिन्नता की स्वीकार्यता के लिए जिसका उदाहरण दिया जाता था, वह आज कश्मीरी पंडितों को एकमुश्त बेदखल कर शरणार्थी बनाने के लिए तथा अपने ही बच्चों के स्कूल जलाने के लिए चर्चा में है! यह भी कैसा दुर्भाग्य है कि ‘सिविल सोसाइटी’ यानी प्रबुद्ध समाज इस सबको लेकर शांत है, कोई विरोध प्रदर्शन नहीं, कोई वक्तव्य नहीं! ऐसी बेरुखी क्यों? क्या हम दिनकरजी के वे शब्द भूल गए हैं: ‘जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास’! क्या किसी भी देश का सभ्य समाज, सुसंस्कृत लोग और विद्वत वर्ग ऐसी दिल दहलाने वाली स्थितियों में चुप रह सकता है? सरकारी प्रशासन व्यवस्था जब संवेदना के स्तर पर पूरी तरह किंकर्तव्यविमूढ़ तथा जड़ हो जाती है तब बड़े से बड़े अन्याय का ‘सामान्यीकरण’ हो जाता है। यह वह दीमक है जो सब कुछ जड़मूल से नष्ट करने का प्रयास करता है, अत: इसका समूल निराकरण आवश्यक है।
इस समय बड़े से बड़े अन्याय के होने पर भी ऐसा लगता है कि सरकारी तंत्र उससे प्रभावित नहीं होता है, बड़ी बेरुखी से वह कागजों पर खानापूरी करता रहता है। इसका उदाहरण जम्मू-कश्मीर में नौकरशाही द्वारा जारी किए आदेशों से स्पष्ट होता है। जब स्कूल लगातार जलाए जाते रहे तब उच्च न्यायालय ने इस विकट स्थिति का संज्ञान स्वत: लिया और आदेश दिया कि स्कूलों की सुरक्षा के प्रबंध किए जाएं तथा उनके सुचारुरूप से चलने की व्यवस्था की जाए। यह सरकार का उत्तरदायित्व है।
न्यायालय के इस आदेश के क्रियान्वयन के लिए सरकारी तंत्र ने जो आदेश जारी किए हैं वे उसकी संवेदनहीनता के चरम ह्रास के परिचायक हैं। एक आदेश यह है कि जिन स्कूलों में चौकीदार नहीं हैं, वहां स्कूलों के अध्यापकों को चौकीदारी करनी होगी! महिलाओं को भी- कोई भेदभाव नहीं! महिलाओं के लिए एक रियायत यह दी गई है कि यदि वे स्वयं रात में ‘ड्यूटी’ पर न जाना चाहें तो किसी पुरुष संबंधी को अपनी जगह ‘एवजी’ भेजें! प्रभावित क्षेत्र के पंद्रह हजार स्कूलों में से केवल बीस प्रतिशत स्कूलों में एक चौकीदार होता है। और वह चौबीस घंटे तो काम कर नहीं सकता, अत: हर स्कूल में अब अध्यापकों को यह कार्य स्वयं करना होगा। सरकार ने हथियार डाल दिए हैं और वह पुरुषों तथा महिलाओं में कोई भेदभाव नहीं करती है।
शिक्षा पर यह दोतरफा हमला है। कश्मीर घाटी में एक ओर अलगाववादी तथा आतंकवादी स्कूल चलने नहीं दे रहे हैं और उन्हें जला रहे हैं; दूसरी तरफ सरकार अध्यापकों का मनोबल गिरा रही है, उन्हें समाज में अपमानित कर रही है। उनसे वे कार्य करने की अपेक्षा कर रही है जिनमें सुरक्षा तथा प्रशासन के लिए जिम्मेदार व्यवस्था विफल हो गई है। सारे देश में अध्यापकों से हर प्रकार का गैर-शैक्षिक कार्य करवाना सरकारी अधिकारी अपना हक मानते रहे हैं। कोई भी राज्य इसमें अपवाद नहीं है। अब इसमें चौकीदारी को मिलाने का नवाचार किया गया है जो आधिकारिक तौर पर संभवत: पहली बार हो रहा है। बड़ी संभावना है कि अब यह सारे देश में फैल जाए! आज देश में हजारों बच्चों का अपहरण होता है, लाखों बच्चे बाल श्रमिक बनने को मजबूर हैं, कई लाख युवा नकल कर पास होते हैं, प्रतिस्पर्धा परीक्षाओं में सालों-साल धांधली होती है, राज्यों के लोक सेवा आयोग भ्रष्ट आचरण के नए मापदंड स्थापित करते हैं, कितने ही अन्य आयाम गिनाए जा सकते हैं जहां नई पीढ़ी के साथ होते अन्याय से सभी परिचित हैं, मगर प्रभावशाली ढंग से उसके परिष्कार के लिए समाज से सशक्त आवाजें नहीं उठती हैं। आज हम स्कूल जलने तक पहुंच गए हैं, मगर इस आग को बुझाने वाली आग कहां विलुप्त हो गई है? वह आग जिसे कवि दुष्यंत कुमार इन शब्दों में कह गए थे ‘मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।’