कंगाली के पचास दिन और देश का विश्वास
निरंजन परिहार
लालू यादव भले ही देश को याद दिला रहे हो कि 31 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए किसी चौराहे का इंतजाम कर लीजिए। लेकिन सवाल न तो किसी चौराहे का है और ना ही प्रधानमंत्री द्वारा गोवा से देश को दिए संदेश में उनके 50 दिन में सब कुछ ठीक हो जाने के वचन का। बल्कि सवाल यह है कि आखिर 30 दिसंबर को नोटबंदी के पचास दिन पूरे होने के बाद देश के सामने आखिर रास्ता होगा क्या। पचास दिन होने को है। नोट अब तक छप ही रहे हैं। बैंक अभी भी नोटों के इंतजार में हैं। एटीएम के बाहर खाली जेब लोगों की लंबी लंबी कतारें लगातार बढ़ती जा रही हैं। और जनता अभी भी परेशान हैं। मोदी अकेले खेवनहार हैं और सामने सवालिया मुद्रा में खड़ी हैं देश की सवा सौ करोड़ जनता। यह सही है कि मोदी की मारक मुद्राएं विरोधियों को डराने, बेईमानों को धमकाने और भ्रष्ट लोगों को बचकर निकल जाने के भ्रम से निकालने के लिए हैं। लेकिन सच यह भी है कि देश अब भी मोदी पर भरोसा करता है, इसलिए विपक्षी दलों के बहकावे में नहीं आ रहा। राहुल गांधी कहते रहे कि मोदी ने 50 अमीरों को बचाने के लिए देश को संकट में डाल दिया। ममता बनर्जी भले ही मोदी को कोस रही हों। और मायावती भले ही चीखती – चिल्लता रहे कि मोदी देश को बरबाद कर रहे हैं। लालू यादव भी ललकार रहे हैं। लेकिन इनकी सुनता कौन हैं ! और देखते देखते, 30 तारीख तो आ गई। नोटबंदी की डेडलाइन खतम होने को है। नोट छापने में तेजी की बातों से लेकर कैशलेस अर्थव्यवस्था को कामयाब करने की दिशा में प्रयत्नों की परिभाषा गढऩे का वक्त समाप्त हो रहा है। दिहाड़ी मजदूर का भी सारा पैसा बैंकों में जमा हो गया और वह खाली जेब भटक रहा है। कैशलेस के लिए क्रेडिट कार्ड का उपयोग करने और पेटीएम के प्रचार की परिभाषा का दूसरा पहलू यह भी है कि नौकरियां जा रही हैं और रोजगार के अवसर समाप्त हो रहे हैं। भिवंड़ी का 50 फीसदी मजदूर खाली बैठा है। मुंबई के हजारों बंगाली ज्वेलरी कारीगर अपने गांव लौट गए हैं। आगरा में तिलपट्टी बनानेवाले भी हाथ पर हाथ धरे हैं। मुंबई का कंस्टरक्शन मजदूर भी बेकार बैठा है और फिल्मों के लिए अलग अलग काम में दिहाड़ी काम करनेवाले करीब दो लाख लोग भी गांव लौट गए हैं। मनरेगा से लेकर देशभर के दिहाड़ी मजदूर को जोड़ा जाए, तो उनका आंकड़ा करीब 27 करोड पार के पार जाता है। 50 दिन पूरे होने जा रहे हैं, लेकिन इन सबकी हथेली खाली है। और पेट तो वैसे भी कभी भरा हुआ था ही नहीं।
सरकारी आकड़े बताते हैं कि नवंबर 2015 के मुकाबले इस बार मनरेगा में 55 फिसदी रोजगार कम रहा। नोटबंदी की मार मनरेगा के मजदूर पर इस कदर पड़ेगी, यह सरकार ने भी पता नहीं सोचा था या नहीं। लेकिन यह पक्का है कि मनरेगा का रोजगार भी सिर्फ 100 दिन के लिए ही होता है, साल भर के लिए नहीं। अब हालात और बिगड़े हैं क्योंकि पैसा तो बैंकों में जमा हो गया। और उधर, नए नोटों की कमी और पुराने नोटों से खदबदा रहे बैंकों के भीतर का सच यह भी है कि उनकी रोजमर्रा की जिंदगी कब फिर से बहाल होगी, यह वे खुद भी नहीं जानते। इसलिए आज सवाल यह नहीं है कि 30 दिसंबर के बाद अचानक कोई जादू की छड़ी अपना काम शुरू कर देगी। मगर, सवाल ये है कि नोटबंदी के बाद देश, तकदीर के जिस तिराहे पर आ खड़ा हुआ है, वहां से जाना किधर है, यह समझ से परे होता जा रहा है। आपने तो कहा था मोदीजी कि – ’50 दिन दीजिए, सिर्फ 50 दिन। सब ठीक हो जाएगा।’ लेकिन सच्चाई यही है कि सब ठीक होना तो छोडिये, हालात में सिर्फ उम्मीद जगाने लायक ही बदलाव आया है। मगर, उससे भी बड़ी सच्चाई यह है कि कोई भी व्यवस्था सिर्फ एक रात में खड़ी नहीं हो सकती। या इन्फ्रास्ट्रक्चर कोई जादू की छड़ी घुमाने से विकसित नहीं जाता। यह भी देश जानता है। आपमें भरोसा इसीलिए बना हुआ है।
तस्वीर देखिए, सरकार देश की नोटों की मांग पूरी ना कर पाने के लाचारी की हालत से उबरने के लिए कैशलेस हो जाने का राग आलाप रही हैं। लेकिन जिस देश की करीब 30 फीसदी प्रजा को गिनती तक ठीक से लिखनी नहीं आती हो, जहां के 70 फीसदी गांवों में इंटरनेट तो छोड़ दीजिए, बिजली भी हर वक्त परेशान करती हो। उस हिंदुस्तान में कैशलेस के लिए मोबाइल बटुए, ईपेमेंट, पेटीएम और क्रेडिट कार्ड की कोशिश कितनी सार्थक होगी, यह भी एक सवाल है।
देश कतार में है, और कतारों से मुक्ति दिलानेवाले का संघर्ष करते दिखनेवाले विपक्षी नेता रैलियों में सरकार पर आरोप जड़े जा रहे हैं। लेकिन देश यह समझ गया है कि 30 दिसंबर के बाद अगर हालात सामान्य होने शुरू नहीं हुए, तो न केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मिशन फेल हो जाएगा, बल्कि देश को उबारने की एक ईमानदार कोशिश भी फेल हो जाएगी। मगर, देश की ज्यादातर जनता को मोदी में अटल विश्वास है। उसे भरोसा है कि बीजेपी के उदय के बारे में अटल बिहारी वाजपेयी के सूत्रवाक्य ‘अंधेरा छंटेगा, सूरज उगेगा, कमल खिलेगा’ की तर्ज पर ‘यह साल जाएगा, नया साल आएगा, मोदी के सपनों की खुशहाली लाएगा।’ वैसे भी नोटबंदी की सफलता सिर्फ जनता के विश्वास पर ही टिकी है। जनविश्वास की बिसात का बहुत बड़ा मतलब होता है। इसलिए यह सवाल ही बेमतलब हो जाता है कि देश के करोडो मजदूरों के पास अगर काम ही नहीं होगा तो वे जाएंगे कहां? और इस सवाल का भी कोई अर्थ नहीं है कि गरीब के हाथ में काम नहीं है तो क्या आने वाले दिनों में अराजकता का माहौल नहीं बनेगा? फिलहाल तो ऐसा कुछ नहीं लगता। क्योंकि नोटबंदी के मामले में मोदी ने जनता का विश्वास अर्जित कर लिया है। क्योंकि देश मानने लगा है कि मोदी की यह जंग बेईमानी, भ्रष्टाचार और लूट के खिलाफ हैं। यह कोई मजबूरी नहीं है। बल्कि बीते 70 साल की व्यवस्था से उपजी परेशानी के खिलाफ फैसला है। इतने सालो में देश में आमजन भ्रष्टाचार के सामने हथियार डाल चुका है, बेईमानी के सामने घुटने टेक चुका है और व्यवस्था में विकसित हो रहे लोगों की लूट से थक चुका है। भरोसा उसका इसी कारण है। तो क्या नोटबंदी को प्रधानमंत्री मोदी का सबसे बडा दांव कहा जाए, जिसे उन्होंने देश के विश्वास की बिसात पर खेला है।
यानी देश सचमुच बेईमानी और ईमानदारी के बीच बंट चुका है, जैसा कि राहुल गांधी आरोप लगाते हैं? अगर यह आरोप सही है, तो मोदी बिल्कुल सही राह पर जा रहे हैं। क्योंकि जंग जब बेईमानी और ईमानदारी की ही है, तो जनता सिर्फ ईमानदारी को चुनती है। बात सही है कि नोट बदलने से काली कमाई खत्म नहीं हो जायेगी। और यह भी सही है कि नोटबंदी से लोग बहुत परेशान है। वैसे, अब तक का इतिहास गवाह है कि जंग जब आम आदमी के असल मुद्दे की हो, और वह भले ही सच भी हो, तो भी हर हाल में जीत देश को खोखला बनानेवाली राजनीति की हुई है। मगर, शायद पहली बार राजनीति हार रही है और विश्वास जीत रहा है।