जिन्हें प्रभु लोक-कल्याण के विचार देते हैं:-
साधक ध्यान निमग्न हो,
साधना में खो जाया।
रचना कोई होती नई,
श्रेय उसी को जाय ॥ 2298 ।।
मन कहाँ भाव-विभोर होता है-
जो खुशबू माँ-गोद में,
मिलती नहीं कहीं और।
प्रभु तेरी आगोश में,
मन हो भाव-विभोर ॥2299॥
तत्त्वार्थ:- शिशु जब जन्म लेता है, तो चार घन्टे बाद ही उसे अपनी माँ की खुशबू का अहसास होता है,जिसे वह आजीवन याद रखता है, उस खुशबू से ही वह हजारों महिलाओं में अपनी माँ को पहचान लेता है। माँ का दूध पीते वक्त उसे जो सुकून मिलता है वह किसी और की गोद में जाने पर नहीं मलता बेशक अन्य रिश्ते कितने भी खास क्योंना हों।
दूसरे की गोद में वह कुछ समय बाद ही रोने लगता है, क्योंकि उसे अपनी माँ की खुशबू की याद आती है, और वह बेचैन हो जाता है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य को भी प्रभु की गोदी में ही सुकून मिलता है- धन, यश, विपुल सम्पत्ति अथवा पत्नी और संतान से नहीं। अत: प्रभु की गोद में ही पहुँचने पर मन भाव विभोर होता है।
गुरू किसे कहते हैं:-
भोग में जोग जगावै जो,
हरि- मार्ग बतलाय।
दुर्बोध को बदले सुबोध में,
वही ‘गुरु’ कहलाय॥ 2300॥
व्यक्तित्त्व कब आकर्षक होता है:-
मन की बगिया में खिलें,
व्यवहार – विचार के फूल।
इनसे महके शख्सियत,
खुश हो मंगलभूल॥2301॥
तत्त्वार्थ :- व्यक्ति के के व्यवहार में ईश्वर में आस्था,सत्म, न्याय में निष्ठा, निष्कपट मुस्कान और माधुर्य, विनम्रता और लोक – कल्याण के ऊर्जावान विचार वाणी में ओज और चेहरे पर तेज हो, हृदय में करुणा, नेत्रों में लज्जा और स्नेह, हाथों में पुरुषार्थ और पराक्रम, पैरों में सन्मार्ग पर चलने की शक्ति, चेहरा का श्रृंगार जब दिव्यता और सौम्यता बन जय तो मनुष्य का व्यक्तित्व आकर्षक बन जाता है।
कोई पुण्यात्मा ही प्रभु की कृपा पात्र – होती है:-
मायाधीन जग में घने,
दुर्लभ मायातीत।
पुण्यात्मा ही बने,
मेरे प्रभु का मीत॥2302॥
क्रमश: