भाइयों बहनों! योगी महान होता है वह पाप पुण्य कर्मों से रहित होता है। कहा भी है –
कर्माशुक्लाकृष्ण योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्*॥योग दर्शन।कैवल्यपाद। 7॥
योगी का कर्म पाप पुण्य से रहित होता है, अन्य अयोगी व्यक्तियों का तीन प्रकार का होता है।
अर्थात् पुण्य, पाप व निष्काम कर्म।
अत: हम सभी को योग को अपनाना चाहिए। जैसा कि सभी को विदित है कि 22 जून अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाया जाता है व हमारे देश में यह योग प्राचीन काल से ही जागृत रहा है व पनपता रहा है, भारतीय सरकार की ओर से भी योग की ड्रिल निर्धारित की गई है। अत: इस सर्वमान्य योग को सभी अपनाएँ व अपने जीवन में धन, ऐश्वर्य, उन्नति, सत्कामसिद्धि व सदाचार के साथ साथ अभूतपूर्व, अनदेखी, अनसुनी शक्तियों के स्वामी भी होवें। मात्र आसन की सिद्धि होने पर ही सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास व संकल्प -विकल्प रूप द्वन्द्वों का अभिघात समाप्त हो जाता है व जीवन शांतिमय, सुखमय बन जाता है।
प्राणायाम के विषय में यदि विचारें तो यह प्राणायाम मानव को बल, स्वास्थ्य, ज्ञान सिद्धि आदि के साथ साथ सूक्ष्म दृष्टि व सभी आढ चक्रों में ऊर्जा स्तर को ऊँचा कर देता है। प्राणायाम सिद्ध योगी दूर की वार्ताएँ व भविष्य की वार्ताएँ भी सहज रूप से जानने लगता है। कुछ मुख्य प्राणायाम – कपालभाति, सूर्य भेदी, चंद्र भेदी, भस्त्रिका, बाह्य वृत्ति, आभ्यंतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति, अनुलोम विलोम, उज्जायी, भ्रामरी व उद्गीथ आदि हैं।
योग गुरु बाबा रामदेव जी का एक वचन है कि*अनुलोम विलोम से मस्तिष्क रूपी ड्राइवर फि़ट व कपाल भाति से उदर रूपी इंजन फि़ट तो शरीर रूपी गाड़ी भी फि़ट।*
इस प्रकार
प्रत्याहार – इन्द्रिय संयम
धारणा- संकल्पों के आधार पर विषय विशेष पर श्रम करने की क्षमता प्राप्त कर लेते हैं और धारणाओं में लय होना प्रारंभ कर देते हैं।
ध्यान करते हुए समाधि में भी लय होना शुरू हो जाते हैं। समाधि अवस्था में अनसुलझी वार्ता व संदेह स्पष्ट हो जाते हैं और परमात्मा को स्पष्ट रूप से जान लेते हैं, ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है।
ब्रह्मचारी कृष्णदत्त जी महाराज ने कहा है कि*आत्मा स्वत: ज्ञानी है और जन्म जन्मांतरों के प्रकृति में आवेशों में आने के कारण वह ज्ञान भूली रहती है व प्राणायाम के निरंतर अभ्यास के द्वारा मल, विक्षेप व आवरणों के लगातार नष्ट होते जाने के कारण आत्मा का ज्ञान उद्बुद्ध होना प्रारंभ हो जाता है*।
भगवान वेद में कहते हैं-
*ओ3म् आत्मने मे वर्चोदा वर्चसे पवस्वौजसे मे वर्चोदा वर्चसे पवस्वायुषे मे वर्चोदा वर्चसे पवस्व विश्वाभ्यो मे प्रजाभ्यो वर्चोदा वर्चसे पवेषाम्*॥यजुर्वेद। 7।28॥
योग विद्या के बिना कोई भी मनुष्य पूर्ण विद्या वान नहीं हो सकता और न पूर्ण विद्या के बिना अपने स्वरूप व परमात्मा का ज्ञान कभी होता है और न इसके बिना कोई राजा, न्यायाधीश सत्पुरुषों के समान प्रजा की रक्षा कर सकता है इसलिए सब मनुष्यों को उचित है कि इस योग विद्या का सेवन निरंतर किया करें।
अत: यदि जीवन में पूर्ण ज्ञान, स्वास्थ्य, नीरोगता, धन, ऐश्वर्य, विद्या, यश, सुख, शांति, सिद्धियाँ व चमत्कारिक बल आदि की इच्छा है तो अवश्य ही इस महान योग को अपनाएँ जिसे पाकर मानव भगवान राम व भगवान कृष्ण सरीखा न जाने क्या से क्या बन जाता है, यह सत्य है।