भारत के 50 ऋषि वैज्ञानिक अध्याय – 34 भारत के महान समाज वैज्ञानिक महात्मा बुद्ध
भारत के महान समाज वैज्ञानिक महात्मा बुद्ध
बौद्ध मत के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध संसार के इतिहास के एक महान समाज सुधारक थे। उनके बारे में यह मिथ्या धारणा है कि उन्होंने कोई नया पंथ चलाकर आर्य वैदिक सिद्धांतों की आलोचना की। सच यह है कि उन्होंने समकालीन समाज में वैदिक सिद्धांतों के प्रति आई शिथिलता को फिर से गतिशील करने के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया। वैदिक सिद्धांतों और ऋषियों के प्रति उनके हृदय में गहरी आस्था थी। ईश्वर और जीवात्मा के अस्तित्व में भी वह विश्वास रखते थे।
गतिशीलता बढ़ाई झकझोर कर वतन को,
लोगों को था जगाया गुलजार कर चमन को।
अज्ञानता बढ़ी थी , पाखंड भी था फैला,
बदल कर दिखा दिया था देश के चलन को।।
उच्च कोटि के विद्वान पं. धर्मदेव जी विद्यामार्तण्ड की पुस्तक “बौद्धमत और वैदिक धर्म” इस संबंध में हमारा बहुत कुछ मार्गदर्शन कर सकती हैं। हम सभी यह भली प्रकार जानते हैं कि महाभारत के पश्चात वैदिक मान्यताओं का तेजी से पतन हुआ। इस काल में वैदिक धर्म की पतानोन्मुख अवस्था को रोकने के लिए महात्मा बुद्ध ने कमर कसी। उनका भारत की वर्णाश्रम व्यवस्था के साथ-साथ चार आश्रमों की व्यवस्था में भी पूरा विश्वास था। यद्यपि वैदिक मान्यताओं की ठेकेदारी लेने वाले किसी वर्ग विशेष ने उस समय महिलाओं और शूद्रों को पठन-पाठन का अधिकार देने से इनकार कर दिया था। वेदों के नाम पर यज्ञ में हिंसा हो रही थी। इस प्रकार की वेद विरुद्ध आचरण शैली को देखकर महात्मा बुद्ध के हृदय में क्रांति भाव जागे। उन्होंने राजपाट को लात मारकर समाज सुधार के क्षेत्र में जाने का संकल्प लिया। उस समय राजपाट को लात मारना बहुत बड़ी बात नहीं थी, क्योंकि राजपाट का भी अंतिम उद्देश्य (राजधर्म) जनकल्याण ही होता है और समाज सुधारक का काम भी जनकल्याण करना ही होता है। दोनों का उद्देश्य एक ही है। ऐसा नहीं है कि राजधर्म का निर्वाह करते समय व्यक्ति अध्यात्म की गहरी चर्चा नहीं कर सकता और ऐसा भी नहीं है कि संन्यासी होकर व्यक्ति राजधर्म पर चर्चा नहीं कर सकता।
उन्होंने रामचंद्र जी की भांति सीधा जनसंपर्क स्थापित कर अपने वनवास काल में लोगों के कल्याण के लिए कार्य करना आरंभ किया। प्रचलित सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध उन्होंने आवाज उठाई और लोगों ने उनकी आवाज को बड़े ध्यान से सुनना आरंभ किया।
जो भी लग गए थे, धब्बे धर्म पे म्हारे,
समाज को संवारा नेता थे ऐसे प्यारे।
गुलशन उजड़ रहा था पाखंड बढ़ रहा था,
वेदों को आगे रखकर कर गए थे उजारे।।
पं. धर्मदेव जी लिखते हैं कि पक्षपातरहित दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट ज्ञात होता है कि महात्मा बुद्ध के समय में अनेक सामाजिक और धार्मिक विकार उत्पन्न हो गये थे, लोग सदाचार, आन्तरिक शुद्धि, ब्रह्मचर्यादि की उपेक्षा करके केवल बाह्य कर्मकाण्ड व क्रिया-कलाप पर ही बल देते थे। अनेक देवी देवताओं की पूजा प्रचलित थी तथा उन देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिये लोग यज्ञों में भेड़ों और बकरियों, घोड़ों की ही नहीं, गौओं की भी बलि चढ़ाते थे। महात्मा बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था के शुद्ध वैदिक और वैज्ञानिक स्वरूप को लेकर लोगों से सीधा संवाद किया और उन्हें बताया कि यह जन्मगत न होकर कर्मगत है।
महात्मा बुद्ध ने जातिगत आधार पर समाज में प्रचलित ऊंच-नीच की भावना का भी विरोध किया और वैज्ञानिक दृष्टिकोण देकर लोगों को यह समझाने का प्रयास किया कि परमपिता परमेश्वर की सृष्टि में कोई छोटा बड़ा नहीं है। इसलिए किसी के साथ जन्म के आधार पर भेदभाव करना परमपिता परमेश्वर की व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह करना है, जिससे उचित नहीं कहा जा सकता। जिन लोगों ने जन्म के आधार पर एक वर्ग विशेष को पतित, दलित और शोषित बना कर रख दिया था निश्चित रूप से महात्मा बुद्ध के प्रगतिशील विचारों का उन पर वज्रपात हुआ होगा, पर महात्मा बुद्ध ने उनके किसी भी संभावित विरोध की चिंता ना करके वैदिक व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने का भागीरथ प्रयास किया।
अजित केशकम्बल नामक एक प्रसिद्ध दार्शनिक के विचारों से हमें पता चलता है कि उस समय का भारतीय समाज अपने मूल वैदिक समाज की मान्यताओं से कितना दूर जा चुका था? उसका मानना था कि दान-यज्ञ-हवन यह सब व्यर्थ हैं, सुकृत दुष्कृत कर्मों का फल नहीं मिलता। यह लोक-परलोक नहीं। दान करो यह मूर्खों का उपदेश है। जो कोई आस्तिकवाद की बात करते हैं वह उनका तुच्छ (थोथा) झूठ है। मूर्ख हों चाहे पण्डित, शरीर छोड़ने पर सभी उच्छिन्न हो जाते हैं, विनष्ट हो जाते हैं मरने के बाद कुछ नहीं रहता।”
सब ओर थी गिरावट, कूड़ा कबाड़ फैला,
शुद्ध वेद में भी, मिलाया गया था मैला।
दान, यज्ञ आदि, भी खो रहे थे गरिमा
उल्टी चलन चली थी, गुरु को बनाया चेला।।
किसी भी प्रकार की ऊंच नीच ,भेदभाव और छुआछूत की वेद स्पष्ट शब्दों में निंदा करता है। ऋग्वेद में बड़ा स्पष्ट कहा गया है कि :-
”अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावधुः सौभगाय। युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुधा पृश्निः सुदिना मरुद्भ्यः” (ऋग्वेद 5/60/5)
इस वेद-मन्त्र में यही उपदेश है किया गया है कि सब मुनष्य परस्पर भाई हैं। किसी भी मनुष्य को जन्म के आधार पर बड़ा व छोटा, ऊंचा या नीचा नहीं कहा जा सकता है। सृष्टि के सभी प्राणियों का परमपिता परमेश्वर ही एक पिता है और प्रकृति व भूमि सबकी एक माता है। संसार में जो लोग ऐसा मानकर जीवन व्यवहार करते हैं और अपने कर्मों पर नजर रखते हुए कार्य संपादन करते हैं उन सबको सौभाग्य की प्राप्ति और वृद्धि होती है।
बौद्ध साहित्य के ग्रन्थ ‘सुत्त निपात वसिट्ठ सुत्त’ में वर्णन है कि कि मनुष्यों के शरीर में ऐसा कोई भी पृथक् चिन्ह (लिंग भेदक चिह्न ) कहीं देखने में नहीं आता जिससे उनकी अलग अलग जातियों की पहचान की जा सके। प्रत्येक मनुष्य के केश, सिर, आंख, नाक, मुख,गर्दन, कंधा पेट, पीठ ,हथेली, पैर,नाखून आदि एक जैसी ही होती हैं। किसी के भी किसी भी अंग में कोई विशिष्ट विभिन्नता नहीं होती। कहने का अभिप्राय है कि महात्मा बुद्ध एक ऐसे सामाजिक ऋषि वैज्ञानिक थे, जिन्होंने सामाजिक समरसता को पुनर्स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने समाज विज्ञान पर वैदिक ऋषियों के अनुकूल चिंतन किया। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि जो मनुष्य गाय चराता है उसे हम चरवाहा कहेंगे, ब्राह्मण नहीं। जो व्यापार करता है वह व्यापारी ही कहलाएगा और शिल्प करनेवाले को हम शिल्पी ही कहेंगे, ब्राह्मण नहीं। दूसरों की परिचर्या करके जो अपनी जीविका चलाता है वह परिचर ही कहा जाएगा, ब्राह्मण नहीं। अस्त्रों-शस्त्रों से अपना निर्वाह करनेवाला मनुष्य सैनिक ही कहा जाएगा , ब्राह्मण नहीं। अपने कर्म से कोई किसान है तो कोई शिल्पकार, कोई व्यापारी है तो कोई अनुचर। कर्म पर ही जगत् स्थित है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने ऋषियों, महापुरुषों, चिंतकों सामाजिक वैज्ञानिक व अध्यात्म प्रेमी पूर्वजों की बातों को लेकर परस्पर लड़ाई झगड़े नहीं करें। उनके विचारों की पवित्रता को स्थापित करने का प्रयास करें और सामाजिक समरसता को बनाए रखने पर ध्यान दें। जो लोग आज महात्मा बुद्ध के नाम पर अपने आपको भारत के वैदिक हिंदू समाज से अलग दिखाने का प्रयास कर रहे हैं ,उन्हें महात्मा बुद्ध के वास्तविक वैदिक चिंतन पर विचार करना चाहिए। इसी प्रकार जो लोग महात्मा बुद्ध को अलग स्थान देने का प्रयास कर रहे हैं उन्हें भी उनके वैदिक चिंतन को अपनाकर उनके प्रति श्रद्धा भाव प्रकट करना चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत