गतांक से आगे……..
इस उपदेश में राम का संकेत है कि राजा के निर्णयों की गोपनीयता सदा बनी रहनी चाहिए। यदि तुम्हारे निर्णय या तुम्हारे मन की बात समय से पहले लोगों को पता चल जाती है तो निश्चय ही इसे आपकी असावधानी माना जाएगा। आपको यह ध्यान रखना होगा कि दीवारों के भी कान होते हैं। अत:पूर्ण सावधान रहते हुए अपने कार्यों का निष्पादन करते चलो।
राम भरत को पूछते हैं-”भला तुम्हारा सेनापति तो अच्छा है?”
इसका अभिप्राय है कि राजा का सेनापति ऐसा होना चाहिए जो उसकी चतुरंगिणी सेना का यश दिग्दिगंत में फैलाये। जिसके कारण दुष्ट और आततायी लोगों को सिर उठाने का अवसर ही उपलब्ध ना हो। यदि सेनानायक अपनी सेना का उचित नेतृत्व करने में अक्षम और असफल होता है तो ऐसी सेना दूसरे राजाओं की दृष्टि में उपहास का पात्र बन जाया करती है। अत: तुम्हें चाहिए कि तुम अपनी सेना के सेनापति का सदा ध्यान रखो, और उसकी योग्यता को संवारने का सदा प्रयास करते रहना। अन्यथा हमारे पूर्वजों ने दीर्घकाल से जिस उत्तम राष्ट्रधर्म का निर्वाह किया है और यश कमाया है वह धूल में मिल जाएगा। कितना सुंदर उपदेश है-एक भाई वन में अपने रहने को तनिक भी दुखद नही मान रहा। इसके विपरीत इसे अपने लिए शुभ संयोग मान रहा है और दूसरे भाई की अयोग्यता पर कोई उंगली न उठाते हुए उसे बातों-बातों में राष्ट्रनीति का मनु प्रतिपादित उपदेश दिये जा रहा है। हमें राम के इस आदर्श चरित्र से काटने वालों को लाभ ही यह हुआ है कि आज का ‘राम’ तो ऐसी परिस्थिति में ‘भरत’ को असफल करने का हरसंभव प्रयास करता है।
राम सहृदयता से भरे भरत को सदुपदेश करते हैं-”सेना का वेतन देने में तुम किसी प्रकार की कृपणता तो नहीं करते हो?”
कहने का अभिप्राय है कि सेना के कारण ही राष्ट्र सुरक्षित रहता है। हर सैनिक अपने घर परिवार को छोड़ राष्ट्र सेवा के लिए दूर चला जाता है।
यदि उन सच्चे देशप्रेमियों के लिए आपने किसी भी प्रकार से कोई ऐसा कार्य किया जिसमें उनके प्रति तुम्हारा प्रमाद झलकता हो तो इसे उचित नहीं माना जा सकता। क्योंकि इससे सेना के मनोबल पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। राष्ट्रनीति का तकाजा है कि राजा अपनी सेना का मनोबल ऊंचा करने के लिए उसको हर प्रकार से प्रसन्न रखने का प्रयास करे।
मर्यादा पुरूषोत्तम राम अपने उपदेश को जारी रखते हुए भरत को आगे बड़े पते की बात बताते हुए कहते हैं-‘भला प्रजा का तुम पर विश्वास तो है?’
अपने राजा से प्रजा तभी प्रेम करती है जब राजा लोक कल्याणकारी कार्यों को करने वाला हो। इसे आप प्रजा का स्वार्थ नहीं कह सकते। इसे तो अपने राजा के प्रति प्रजा की स्वाभाविक और अनिवार्य अपेक्षा कहा जाना चाहिए। क्योंकि उसे देश की जनता बहुत से अधिकारों से संपन्न करके तथा बहुत से ऐश्वर्य का स्वामी इसीलिए बनाती है कि वह जनसेवा को अपना जीवनव्रत बनाएगा। कत्र्तव्य से स्खलन तो हर क्षेत्र में बुरा लगता है।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत