एक और एक हमेशा दो नहीं होते । कभी एक और एक मिलकर ग्यारह भी हो जाते हैं । यदि भारतीय समाज में प्रचलित 16 संस्कारों में से विवाह संस्कार को लिया जाए तो वहां एक और एक मिलकर (अर्थात कन्या और वर) ‘एक’ हो जाते हैं। इसी प्रकार राजनीति में चुनावी गणित भी सदा एक सा नहीं रहता है ।उसका अपना दर्शन है और चुनावी परिदृश्य में बनती बिगड़ती हुई समीकरणों को देखने का भी लोगों का अपना-अपना दृष्टिकोण होता है। जिन्हें लोग कभी-कभी किसी राजनीतिक दल के लिए सर्वथा विपरीत परिस्थितियां मानते हैं, कभी-कभी वे विपरीत परिस्थितियां भी उस राजनीतिक दल के अनुकूल हो जाती हैं और जिस दल के लिए लोगों का गणित परिस्थितियों को उसके अनुकूल घोषित कर रहा हो कभी-कभी वे अनुकूल परिस्थितियां भी उस राजनीतिक दल के लिए प्रतिकूल सिद्ध हो जाती हैं। राजनीति में ऐसा अनेक बार देखा गया है कि कभी-कभी घोर पराजय भी विजय का संकेत देती है और बिगड़ते हुए कामों को बनाने में सहायता करती है तो कभी-कभी जीत भी बने हुए काम को बिगाड़ देती है।
यदि हाल ही में संपन्न हुए कर्नाटक विधानसभा चुनावों की बात करें तो यहां कांग्रेस की जीत विपक्ष को गहरी निराशा में ले गई है, जबकि भाजपा के लिए हार में भी ‘खुशियों के कमल’ खिल गए हैं । कर्नाटक विधानसभा चुनावों के परिणामों के दृष्टिगत हमें यह समझना चाहिए कि इसमें कांग्रेस को मिली जीत में इस पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व का कोई योगदान नहीं है। स्थानीय प्रादेशिक नेतृत्व की मेहनत के चलते कांग्रेस ने यह चुनाव जीता है। यह बात पूर्णतया सच है कि कांग्रेस के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री खड़गे किसी भी दृष्टिकोण से कोई आकर्षक व्यक्तित्व नहीं रखते हैं। चुनावी सभाओं में भी लोग उन्हें सुनने के लिए उमड़ कर नहीं आते हैं। जहां तक राहुल गांधी या सोनिया गांधी या प्रियंका वाड्रा की बात है तो उनकी भी स्थिति न्यूनाधिक ऐसी ही है। इसके उपरांत भी कांग्रेस की चाटुकारिता की संस्कृति के चलते कर्नाटक की जीत को ‘एक परिवार’ की जीत के रूप में देखा जा रहा है और यह प्रचार किया जा रहा है कि राहुल गांधी राष्ट्रीय पटल पर स्थापित हो रहे हैं , इसका जनमत उनकी ओर तेजी से झुकता जा रहा है। बस, यही वह पेंच है जो कांग्रेस के लिए पहले भी खतरनाक रहा है और अब फिर खतरनाक साबित होने जा रहा है।
कांग्रेस के चाटुकार राहुल गांधी को अपने बारे में सही सोचने का कभी समय नहीं देते। कर्नाटक की जीत के बाद कांग्रेस में चल रहे राहुल गांधी के कीर्तिगान और उनकी ‘पप्पू नीति’ को भी एक कुशल रणनीति के रूप में दिखाने की कांग्रेसियों की होड़ उन्हें आज की वास्तविकता से परिचित नहीं होने दे रही है। जब नेता वास्तविकता से नहीं जुड़ पाता है तो उसके पांव उखड़ जाते हैं। इसमें दो मत नहीं हैं कि राहुल गांधी के पास अपनी एक लंबी और गर्वीली परंपरा है, विरासत है। पर दुर्भाग्य की बात है कि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी अपनी इस शानदार विरासत का सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जैसे लोग जिस प्रकार कर्नाटक चुनाव से पहले तेजी से राष्ट्रीय पटल पर उभरते हुए आ रहे थे और सारे विपक्ष को एक झंडे तले लाकर भाजपा को परास्त करने की रणनीति पर कार्य कर रहे थे, वह अब कर्नाटक में कांग्रेस की हुई जीत के चलते निराशा महसूस कर रहे हैं। जिस प्रकार अपने आपको वे आज का लोकनायक जयप्रकाश नारायण साबित करना चाह रहे थे अब उनके इस प्रयास को भी गहरा झटका लग चुका है। कर्नाटक ने उन्हें स्पष्ट संकेत दे दिया है कि उन्हें अब अपने प्रयासों को लेकर गंभीरता से सोचना होगा क्योंकि अब कांग्रेस अपने बलबूते पर आगे बढ़ना चाहेगी । कांग्रेस को यह भ्रम हो चुका है कि लोग उसकी ओर लौट रहे हैं और अब वह अपने दम पर केंद्र में सरकार बना सकती है। यदि कर्नाटक में भाजपा सरकार बनाने में सफल हो जाती तो कांग्रेस देश के विपक्ष की ओर मुड़ सकती थी। यहां तक कि नीतीश कुमार या किसी भी विपक्षी नेता को तब वह मजबूरी में प्रधानमंत्री पद का दावेदार भी मान सकती थी। इस प्रकार कर्नाटक ने राष्ट्रीय पटल पर विपक्षी एकता की चल रही नीतीश कुमार की मुहिम को धक्का पहुंचाया है।
कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने जिस प्रकार न्यायालय के परामर्श की अवहेलना करते हुए अपने लिए दो साल की सजा होने दी, उसके पीछे उनकी सोच रही थी कि देश का जनमानस उनके ‘जिंदा शहीद’ होने पर उनके साथ जुड़ेगा। उनकी सोच थी कि उनके इस ‘बलिदान’ से केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनना निश्चित हो जाएगा । यद्यपि उनका यह सपना केवल सपना ही रहा और देश की जनता सच्चाई को समझ कर उनकी ओर तनिक भी नहीं झुकी। इसके उपरांत भी कर्नाटक के संदेश से उत्साहित राहुल गांधी को उनके चाटुकार यही समझाएंगे कि अब आपकी जय जयकार पूरे देश में इसी प्रकार होगी। इससे राहुल गांधी भ्रमित होंगे,उत्साहित नहीं। उनकी यह भ्रम पूर्ण स्थिति उन्हें ‘एकला चलो रे’ की नीति पर चलने के लिए प्रेरित करेगी। बस, यही वह स्थिति होगी जो भाजपा के लिए लाभप्रद होगी।
एक भाजपा नेता मुझसे अभी हिमाचल से फोन पर कह रहे थे कि राहुल गांधी का एक बयान पूरे देश में हमें 50,000 वोट दिलवा जाता है। इसी प्रकार ओवैसी की मूर्खतापूर्ण बातें भी हमारे लिए लाभप्रद होती हैं। इस प्रकार राहुल गांधी और ओवैसी जैसे लोग हमारे लिए शत्रु के रूप में परम मित्र हैं। जिन्हें हम फलता-फूलता देखना चाहते हैं। कहने का अभिप्राय है कि राहुल गांधी और ओवैसी की राजनीति भाजपा को मजबूती देती है। यही कारण है कि राष्ट्रीय पटल पर प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में भाजपा पिछले अनुभवों के आधार पर इस बार भी राहुल गांधी को ही रखना चाहेगी। यदि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी कर्नाटक में हार के पश्चात नीतीश कुमार या किसी अन्य दूसरे व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मानते हुए विपक्षी एकता को मजबूत जा करते तो भाजपा के लिए 2024 का चुनाव जीतना सचमुच एक चुनौती बन सकती थी। लेकिन अब भाजपा की चिंता निश्चित रूप से कम हुई हैं। इस प्रकार और कर्नाटक में भाजपा की हार का गहरा दर्शन है जिसे भाजपा के चुनावी रणनीति का रोने बहुत अच्छे ढंग से समझ लिया है। यही कारण है कि भाजपा इसी वर्ष के अंत में राजस्थान, तेलंगाना, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे चार राज्यों में होने वाले चुनावों की तैयारी में जुट गई है। कर्नाटक में क्या हो गया है ? इस पर भाजपा ने न तो मंथन किया है और ना ही इसकी कोई चर्चा राष्ट्रीय पटल पर की जा रही है। इस हार को अपने लिए अनुकूल समझकर इसके दर्शन को भाजपा भुनाना चाहती है। बस, यही कारण है कि भाजपा इस वर्ष के अंत में 4 राज्यों में होने वाले चुनावों की तैयारी में जुट चुकी है। समय रहते कांग्रेस को भी कुछ करना होगा ।
भारतीय राजनीति के एक खेमे में जीत में निराशा और दूसरे खेमे में हार में खुशी का अद्भुत संगम कर्नाटक चुनाव परिणाम के पश्चात बना हुआ देखा जा रहा है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)