हिन्दू विरोध की चल रही है आत्मघाती नीति

हिन्दू इस भारतीय राष्ट्र की चेतना शक्ति का नाम है, इसकी आत्मा है। हिन्दुत्व उस प्रसुप्त शक्ति का नाम है जो इस राष्ट्र में राष्ट्रवाद की भावना को जगाकर सारे राष्ट्र को आंदोलित और चेतनामय करने की क्षमता और सामथ्र्य रखती है।
भारत का यह दुर्भाग्य रहा कि इस प्रसुप्त शक्ति को सोई हुई शक्ति के रूप में ही रखने के लिए हमारा शासक वर्ग भी प्रयासरत रहा है। हिन्दू ‘राष्ट्र शक्ति’ का पर्याय न बन जाए शासक वर्ग को इस बात की तो चिंता है किंतु इस बात की चिंता रंचमात्र भी नही है कि हिंदू विरोध जब बढ़ता है तो उसकी परिणति राष्ट्र विघटन के रूप में होती है।
लॉयलपुर खालसा कॉलेज के भूतपूर्व प्रिंसीपल श्री प्रीतम सिंह गिल ‘हेरेटेज ऑफ सिख’ में लिखते हैं कि-”सिखों ने एक शत्रु देश को छोडक़र दूसरे शत्रु देश में प्रवेश किया। वे कढ़ाई से भट्टी में गिर पड़े। जबकि उन्हें दो बुराईयों में से एक को चुनना था।”
गिल साहब ने यह संकेत सन 1947 ई. में देश के बंटवारे के समय की सिख मानसिकता के विषय में किया है। श्री गिल जैसे अनेकों लोगों की मान्यता है कि भारत न तो कभी एक था और न एक है, इसलिए कभी एक होना भी नही चाहिए। इस घातक सोच के घातक लोगों की घातक नीतियों के कारण पंजाब को आतंकवाद की भट्टी में तपना पड़ा। सारे राष्ट्र की संसार के समक्ष जो किरकिरी हुई और उससे जो मानसिक यातना हमें झेलनी पड़ी वह अलग है। वास्तव में गिल जैसे लोग वे लोग हैं, जो भारत और भारतीय संस्कृति की उस अध्यात्म चेतना को समझाने में असफल रहे, जिसके कारण हिंदू का जन्म हुआ। इस अध्यात्म चेतना को समझने के केन्द्र में अध्यात्म के अक्षय स्रोत वेद एवं उपनिषद रहे हैं।
इनके ज्ञान सागर में डुबकी लगाकर स्नान करके स्नातक जब बाहर आएगा तो इनके मंत्रों से तो उसका जीवन उज्ज्वल होगा ही साथ ही उसके हाथों में रामायण, गीता, गुरू ग्रंथ साहिब आदि धर्म ग्रंथों सहित दर्शन शास्त्रों का संयोग और हो जाएगा। उसे यह अनुभूति हो जाएगी कि उसकी भ्रांतियां कितनी निर्मूल थीं। हिंदू (आर्य) को समझने के लिए यहां स्वतंत्रता के उपरांत वेद और वैदिक वांग्यमय पर अनुसंधान करने, उनके मानवीय स्वरूप को उद्घाटित करने उनकी अध्यात्म चेतना को मानवीय चेतना बना देने की दिशा में विशेष कार्य किये जाने की आवश्यकता थी। 
इससे गिल जैसे लोगों को ऊपरिलिखित बातें कहने अथवा लिखने का दुस्साहस न हो पाता। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं किया गया। फलस्वरूप-हिंदू परंपरा को न समझकर हिन्दू विरोध इस देश में पूर्ववत जारी है। यह विरोध विरोध करने वाले के अज्ञान और अध्ययन के प्रति अरूचि के तथ्य को प्रकट करता है। किंतु दुर्भाग्य पूर्ण तथ्य यह है कि राष्ट्र चेतना के प्रतीक इस पावन शब्द को कोसने वाले ‘पीएचडी’ की डिग्री ले रहे हैं, मानद उपाधि से सम्मानित किये जा रहे हैं।
उसके वास्तविक स्वरूप को उद्घाटित कर उसे राष्ट्र की प्राणशक्ति बना देने के लिए प्राण प्रण से कार्य करने वाले लोग राष्ट्र में उपेक्षित और तिरस्कार हो रहे हैं। लगता है कि हिन्दू विरोध का वही ढंग मुस्लिम कट्टरवादी तत्वों ने भारत के परिप्रेक्ष्य में छोड़ा नही जो स्वतंत्रता से पूर्व उनके द्वारा अपनाया गया था। पाकिस्तान से आतंकवादी आ रहे हैं। आज इन आतंकवादियों का चारों ओर षडयंत्र चल रहा है जो भी कहेगा वही इन्हें आतंकवादी कहेगा। स्वयं वे भी इस शब्द को अपने विषय में सुनकर प्रसन्न होते हैं। क्योंकि उनका उद्देश्य भी तो आतंक फैलाना ही है।
हमने कभी सोचा नहीं है कि लोग पाकिस्तान से ही क्यों आ रहे हैं? और आतंकवादी कहलाकर स्वयं प्रसन्न क्यों होते हैं? 
कारण स्पष्ट है कि जैसा कि एफ.के. दुर्रानी ने अपनी पुस्तक ‘मीनिंग ऑफ पाकिस्तान’ में लिखा है-‘पाकिस्तान का निर्माण इसलिए आवश्यक था कि उसको अड्डा बनाकर शेष भारत का इस्लामीकरण किया जाए।’ आतंकवादी इसीलिए पाकिस्तान से ही आते हैं। पाकिस्तान इनका अड्डा है, भारत कार्य क्षेत्र है। नीति आतंक फैलाकर नये पाकिस्तान की नींव डालने की है। फल गाजी पद पाना निश्चित है तो फिर आतंकवादी कहलाकर लज्जा किस बात में होनी है? आपके मानव समाज में यह शब्द निंदित हो सकता है, लज्जित कराने वाला हो सकता है किंतु आतंकवादियों के समाज में ऐसा नहीं है।
न खिजां में है कोई तीरगी, न बहार में है कोई रोशनी।
ये नजर-नजर के चिराग हैं, कहीं जल गये कहीं बुझ गये।।
लोगों की अपनी-अपनी दृष्टि और अपना अपना दृष्टिकोण होता है इन समस्याओं के प्रति प्रश्नों के प्रति और उनके समाधान तथा उत्तरों के प्रति। जिसे आप पाप मानते हैं उसी को वह पुण्य मानते हैं। वास्तव में ये आतंकवादी नहीं हैं, अपितु यह इस देश की एकता और अखण्डता को छिन्न-भिन्न करने वाले शत्रु देश के गुप्तचर हैं। जो इस राष्ट्र की सरकारों की लचर प्रशासनिक व्यवस्था को देखकर आतंकवादी बन गये हैं। अत: इनके साथा शत्रु राष्ट्र के गुप्तचरों के साथ होने वाला जैसा व्यवहार ही होना चाहिए। देखिये इस विषय में चाणक्य ने लिखा है कि-”विद्या चार हैं-आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्ड नीति। उनके अनुसार क्षत्रिय का अपना धर्म पढऩा, यज्ञ करना, दान देना, शस्त्रों से जीवन निर्वाह करना तथा प्राणियों की रक्षा करना है। राज वही उत्तम है जो अपनी प्रजा को उसके धर्म मार्ग से भ्रष्ट न होने दे और अपनी प्रजा की प्राण रक्षा में समर्थ होवे। इसलिए राजा उचित दंड देने वाला होना चाहिए।”
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)

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