मुलायम सिंह यादव भारतीय राजनीति के एक धुरंधर खिलाड़ी रहे हैं। यह तो सब समय का फेर और कर्मों का फल है कि आज वह अपने ही दांव पर फंसे खड़े हैं। उनके आगे कुंआ है-तो पीछे खाई है। अब जाएं तो किधर जाएं, ना तो आड़े वक्त में मुस्लिम तुष्टिकरण काम आ रहा है और ना ही परिवार पोषण की उनकी वह प्रवृत्ति काम आ रही है जिसके चलते उन पर भाई-भतीजावाद के आरोप लगते रहे हैं। यह सब समय का फेर ही तो है किउनके चहेते आजम खां भी इस समय हवा का प्रवाह देख रहे हैं और यह मानकर चल रहे हैं कि हवा जिधर बहेगी उधर जाने का निर्णय ले लिया जाएगा।
‘किंकत्र्तव्यविमूढ़’ की स्थिति में फंसे मुलायम सिंह यादव ने पार्टी हित में यह निर्णय लिया कि पार्टी को हर स्थिति में टूटने से बचाया जाए और उन्होंने समय के फेर को समझते हुए यह जानने में तनिक भी देर नही लगायी कि इस समय प्रदेश और पार्टी में ‘मुलायम के दिन लद चुके हैं’ और हवा अखिलेश के पक्ष में बह रही है। इसलिए उन्होंने अपने अस्तित्व का विलीनीकरण अखिलेश के बढ़ते वर्चस्व को स्वीकार करते हुए सहजता से अपने पुत्र के व्यक्तित्व में कर दिया।
यह अत्यंत दुखद रहा है कि अखिलेश ने इस समय अपनी गंभीरता को छोडक़र याचक बने नेताजी के प्रति ‘मुलायम’ होने से इंकार कर दिया है। स्पष्ट है कि अब वह ‘अधर्म’ के मार्ग पर है। याचक की मुद्रा में आये अपने पिता का सम्मान करना उनका धर्म है-जिसे वह पहचानने में चूक कर रहे हैं। वह यदि अधर्म के इस मार्ग पर चलते हैं और नेताजी क्षुब्ध होकर पार्टी छोडक़र लोकदल में जाते हैं तो इसके लिए इतिहास अखिलेश की गंभीरता पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाएगा। उन्हें पिता को याचक नही बनाना चाहिए। नेताजी के पार्टी के लिए दिये गये बलिदान के दृष्टिगत अखिलेश के लिए उपयुक्त होगा कि वह उनके लिए राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोड़ दें। समय ने नेताजी को इतना दुर्बल कर दिया है कि अब वे चाहकर भी अखिलेश का अहित नहीं कर पाएंगे। वह अपना शेष जीवन सपा के अध्यक्ष के रूप में व्यतीत कर लें और पार्टी उनका इस रूप में सम्मान करती रहे, यही उनके लिए उचित है। पर इसकी पहल तो अखिलेश को ही करनी होगी। क्योंकि वह नेताजी के पुत्र भी हैं और पार्टी के इस समय सबसे बड़े नेता भी हैं। अखिलेश जितना ही इसमें देर करेंगे उतना ही गलत होगा।
इस समय नेताजी की लोकदल में जाने की चर्चा है। ऐसा नही है कि लोकदल में उनके जाते ही जान पड़ जाएगी और वह अखिलेश की सपा को हराने की स्थिति में आ जाएगा, ऐसा तो संभव ही नही है और इसे अखिलेश हों चाहे राजनीति के अन्य पंडित लोग हों सभी जानते हैं कि लोकदल प्रदेश के चुनावों में कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाने नहीं जा रहा है। पर नेताजी उसे अपने लिए अंतिम आश्रय स्थल मान रहे हैं तो कोई न कोई तो कारण होगा ही? और कारण केवल एक है कि नेताजी को अपने अंतिम दिनों के गुजारे के लिए तथा आत्मतुष्टि के लिए इस समय किसी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद चाहिए। अब यदि उन्हें यह पद लोकदल दे रहा है-तो उनके लिए यह भी उचित है। वह लोकदल को अपनी अंतिम शरण स्थली मान रहे हैं। उधर लोकदल के पास भी कोई चेहरा नही है, इसलिए यदि नेताजी वहां जाते हैं तो उसके लिए भी यह उचित होगा कि उसे इस बार के चुनावों में एक अच्छा चेहरा मिल जाए। मुलायम को लोकदल चाहिए और लोकदल को मुलायम चाहिएं-बस, यही वह ‘न्यूनतम सांझा कार्यक्रम’ है जो लोकदल और मुलायम को एक दूसरे के निकट ला रहा है।
अब यदि मुलायम सिंह यादव लोकदल में जाते हैं तो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि इसका अखिलेश के स्वास्थ्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। हमारा मानना है कि ‘आजम खां’ जैसों के सान्निध्य में रहकर अखिलेश ने चाहे जितना औरंगजेब को उदार बादशाह के रूप में पढ़ा हो-पर भारतीय इतिहास उसे आज तक इस बात के लिए क्षमा नहीं कर पाया है कि उसने अपने पिता के साथ अपमानजनक व्यवहार किया था और उसे आगरा के लालकिला में बंदी बनाकर छोड़ दिया था। आजम खां के दिये मुगलिया संस्कार को अखिलेश न अपनायें तो ही अच्छा है। वे मुलायम सिंह यादव को लोकदल के किले में बंदी जीवन जीने के लिए न छोड़ें और उनके लिए सम्मानपूर्वक राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोड़ें, यह देश ‘औरंगजेबी परंपरा’ का देश नही है-उस परंपरा को तो यह देश कोसता है। यह तो ‘राम की परंपरा’ का देश है-जहां पिता की इच्छा मात्र से ही पुत्र वनवास चल देता है। अखिलेश ‘वनगमन’ की तैयारी तो करें, फिर देखें मुलायम उनके लिए कितने मुलायम होते हैं, पर अखिलेश पिता की परीक्षा न लेकर स्वयं ‘राम’ बनकर दिखा दें। यह उनके लिए इसलिए भी उचित है कि वह उस यदुवंश से हैं जिसके कृष्ण जी महाराज ने जेल में बंद पिता को जेल से मुक्त कराया था। यदुवंश की परंपरा पिता को जेल में डालने की नहीं है, अपितु जेल से मुक्त कराने की है। अखिलेश अपने इतिहास को समझें-उत्तर मिल जाएगा।